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ज़ुल्म, दहेज, मानसिक उत्पीड़न- मर्म को समझे मुस्लिम समाज.......! / सैयद सलमान
Friday, March 26, 2021 - 12:09:35 AM - By सैयद सलमान

ज़ुल्म, दहेज, मानसिक उत्पीड़न- मर्म को समझे मुस्लिम समाज.......! / सैयद सलमान
जिस शादी में दहेज के लिए जबरन लेन-देन हो उसमें उलेमा और क़ाज़ी शामिल न हों तो दहेज़ की लानत से निजात मिल सकती है
साभार- दोपहर का सामना 26 03 2021

गुजरात के अहमदाबाद में पिछले दिनों आयशा नामक एक युवती ने दहेज उत्पीड़न से परेशान होकर साबरमती नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। पति के मारने-पीटने से तंग आकर की गई आयशा की आत्महत्या से सभी सकते में आ गए थे। ख़ासकर मुस्लिम समाज में तो हर तरफ़ इस घटना को लेकर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं। इस बात पर ख़ूब चर्चा हुई कि इस्लाम की नज़र में आत्महत्या करना केवल घृणित ही नहीं बल्कि हराम भी है। ज़्यादातर आत्महत्या करनेवाले लोग किसी बात से निराश होकर आत्महत्या करने का क़दम उठाते हैं। मानसिक तनाव के कारण ही आत्महत्या किए जाने की घटना होती है। इस्लाम के अनुसार ईश्वर ने कठिन स्थिति और नाज़ुक हालात में सब्र से काम लेने का आदेश दिया है और अल्लाह की नेमतों से निराश न होने की सीख दी है। इस्लाम में आत्महत्या न करने के पीछे की वजह यह बताई गई है कि ज़िन्दगी अल्लाह की ओर से दी गई वह अमानत है जिसे अल्लाह के आदेश से, अल्लाह के बताए हुए रास्ते पर चल कर गुज़ारना है। अल्लाह का फ़रमान है, ‘और न ही आत्महत्या करो। निस्संदेह अल्लाह तुम पर बहुत दयावान है। (अल-क़ुरआन ४:२९) लेकिन फिर भी न तो आत्महत्याएं रुकती हैं न उसके कारणों पर कभी चिंतन-मनन होता है।

यह तो स्पष्ट है कि आत्महत्या को लेकर हर समाज में एक धारणा है कि कोई टूटा-हारा हुआ शख़्स ही अवसाद की मार न झेल पाने के कारण आत्महत्या करता है। लेकिन क्या आत्महत्या करनेवाले पर उंगली उठानेवालों ने कभी उनके कारणों को दूर करने का प्रयास किया? जड़ में कुछ होता है और इलाज किसी और चीज़ का किया जाता है। आत्महत्याओं को रोकने के लिए उसके कारणों पर ज़्यादा वार करने की जरूरत है। आयशा की आत्महत्या की वजह अगर प्रताड़ना थी तो उस से यही सबक़ मिलता है कि आज भी महिलाओं पर ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती, दहेज और मानसिक उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं। शायद इसी मर्म को मुस्लिम समाज ने अब जाकर पकड़ने की कोशिश शुरू की है। बेशक यह पहली बार नहीं है जब ऐसा होगा, लेकिन अब अगर यह शुरुआत हो रही है तो तो अंजाम तक पहुंचाना भी समाज की ज़िम्मेदारी है। इस दिशा में पहल करते हुए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शादी को आसान बनाने और रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर अंकुश लगाने के लिए और विशेष रूप से दहेज लेन-देन और बेटियों पर हो रहे ज़ुल्म को रोकने के लिए अभियान शुरू किया है। फ़िलहाल महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और कर्नाटक के उलेमा और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर इस अभियान को शुरू किया गया है। इस अभियान में यह भी तय किया गया है कि जिस शादी में दहेज के लिए जबरन लेन-देन होता है, उसमें उलेमा और क़ाज़ी शामिल न हों, यह क़दम बेटियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। कई मामलों में ढुलमुल रवैया अपनाने के लिए मुस्लिम समाज के बीच अपनी साख़ खोते ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की यह पहल वाक़ई क़ाबिले तारीफ़ है।

दरअसल, समाज में दहेज की लानत कोई नई बात नहीं है। दहेज के लिए बहुओं को जिंदा जलाने या दूसरे तरीक़ों से मार डालने या उन्हें घर से निकाल देने जैसी अनेक घटनाएं अक्सर सामने आती रही हैं। हालांकि, इस्लाम में दहेज के लेन-देन की सख़्त मुमानियत है फिर भी ऐसी घटनाओं का होना शर्मनाक ही कहा जाएगा। हालांकि, कई उलेमा ने दहेज को हराम तक क़रार दे रखा है। इसलिए यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि मज़हबी और दुनियावी दोनों ही तरीक़ों से यह एक घिनौना और क़ाबिले जुर्म कर्म है। दहेज लेने और देनेवाले दोनों का समाजी बायकॉट शुरू होना चाहिए। अगर आयशा की आत्महत्या की घटना से सबक़ लेकर इस दिशा में भी ठोस योजना बनाई जाए तो उसके नतीजे प्रभावी आएंगे। युवावर्ग बड़े पैमाने पर जितना शिक्षित होता जा रहा है, वह उतना ही खुले विचारों को तरजीह भी देता है। बस ज़रूरत उसकी सोच को सकारात्मक दिशा देने की है। उसे रूढ़िवाद से चिढ़ तो है लेकिन पारिवारिक दबाव में अक्सर दहेज जैसी प्रथा का विरोध नहीं कर पाता। या यूं कहें उसकी गंभीरता को वह समझ ही नहीं पाता। लेकिन उलेमा द्वारा जुमा के ख़ुत्बे के दौरान, जलसे-जुलूस में या फिर सामाजिक-पारिवारिक समारोहों में उनके बीच सही इस्लाम की तस्वीर पेश की जाए तो वह ज़रूर इस बात को समझेगा। हां, सामाजिक संदेश को साफ़-साफ़ बताया जाए, उसमें किसी भी बात को न छुपाया जाए, न मनगढ़ंत क़िस्से-कहानियों के माध्यम से इस्लाम की कोई कट्टरपंथी तस्वीर पेश की जाए।

इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि इस्लाम में दहेज का कोई स्थान नहीं है। शादी बिना दहेज के ही होनी चाहिए। बावजूद इसके यदि कोई दहेज लेता है या मांग करता है तो वह नियम विरुद्ध है। कहा जाता है कि पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने अपनी बेटी हज़रत फ़ातिमा को कुछ सामान शादी के मौक़े पर बतौर तोहफ़ा अता किया था। हज़रत फ़ातिमा को जो चंद चीज़ें मोहम्मद साहब ने दी थीं, वह थीं- सूत की दो पुरानी चादरें, एक लिहाफ़, अलसी के छाल से भरा हुआ एक गद्दा, एक चमड़े का तकिया, खजूरों की शाखाओं से भरा हुआ एक लकड़ी का प्याला, पानी के लिए एक मिट्टी का घड़ा और मश्क़, एक चक्की, एक चारपाई, दो चांदी के बाज़ूबंद और एक मिस्वाक। क्या इसे कोई दहेज कहेगा? हक़ीक़त यह है कि हज़रत अली की जिरह को बेचकर यह सामान ख़रीदा गया था। सीरत निगारों के मुताबिक़ हज़रत अली के पास मेहर में देने के लिए सिर्फ़ एक जिरह थी जो उन्होंने बतौर मेहर हाथों-हाथ दे दी थी। इसलिए नबी करीम ने उसको फ़रोख़्त करा दिया और उस रकम का इस्तेमाल बिस्तर, तकिया और कुछ चीज़ें मुहैया कराने में किया। अगर दहेज का कोई तसव्वुर होता तो नबी करीम अपनी बाक़ी बेटियों के साथ भी ऐसा ही मामला फ़रमाते। लेकिन यह बात हर जगह स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी किसी भी बेटी को दहेज नहीं दिया। हज़रत अली तो ख़ुद मोहम्मद साहब की किफ़ालत में (आश्रित) थे। उनके जिरह को फ़रोख़्त करके कुछ सामान मुहैया कराने में ख़ुद मोहम्मद साहब हज़रत अली के साथ शरीक हुए। क्या मोहम्मद साहब की सीख से बढ़कर मुसलमानों को और कुछ बताने की ज़रूरत है? इसलिए दहेज, तलाक़ और जाहिलाना रस्मों और रिवाजों के ख़िलाफ़ तहरीक चलाने की ज़रूरत है। लोगों को बताना है कि दहेज जैसी लानत ग़ैर-इस्लामी है। अगर आज इस वबा से न लड़ा गया तो आनेवाले दिनों में दिखावे और शान-शौकत का भोंडा प्रदर्शन और दहेज रूपी दानव न जाने कितनी आयशाओं को लील जाएगा।

(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)