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शिक्षा है ज़रूरी… मुसलमानों में शिक्षा को लेकर बढ़ी जागरुकता / सैयद सलमान
Friday, March 12, 2021 - 9:09:50 AM - By सैयद सलमान

शिक्षा है ज़रूरी… मुसलमानों में शिक्षा को लेकर बढ़ी जागरुकता  / सैयद सलमान
तय तो मुसलमानों को करना है, वह क़ुरआन की आयत ‘इक़रा’ अर्थात पढ़ को आत्मसात करते हैं या सबसे ‘जाहिल क़ौम’ का तमग़ा सीने से लिपटाए हाशिये पर रहना पसंद करते हैं।
साभार- दोपहर का सामना 12 03 2021

जब कभी मुस्लिम समाज का ज़िक्र महफ़िलों में होता है तो उनकी कमियों पर भी चर्चा होती है। ज़रूरी नहीं कि यह चर्चा विरोधियों की तरफ़ से ही हो, ख़ुद मुस्लिम समाज भी अपनी कमियों को तलाशता है, यह अच्छी बात है। अक्सर देखा गया है कि मुस्लिम समाज जब अपनी कमियों की बात करता है तो वह सबसे ज़्यादा दु:खी मुस्लिम समाज में शिक्षा की कमी पर होता है। लेकिन पिछले दिनों एक पारिवारिक मित्र के यहां आयोजित समारोह में जब चर्चा छिड़ी तो बात इस बात पर आ गई कि अब मुस्लिम समाज की सोच बदल रही है। वह अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर संजीदा है। महफ़िल में मौजूद एक मित्र ने अपने बेटे का उदाहरण देते हुए बताया कि उनके बेटे ने अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान ही मेडिकल फ़ील्ड में जाने का चयन कर लिया था। उसने एसएससी के बाद एचएससी तक विज्ञान में पढ़ाई की और इस बीच वह उच्च शिक्षा के लिए तमाम रिसर्च वर्क भी ख़ुद ही करता रहा। यहां की महंगी मेडिकल शिक्षा और भारी डोनेशन को देखते हुए इस वर्ष उसने विदेश जाने का मन बनाया जहां अपेक्षाकृत कम ख़र्च आ रहा था। आज वह यूक्रेन के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेकर डॉक्टर बनने के अपने सपने को साकार करने में लग गया है। हमारे मित्र के पिता धागे के कारोबार में थे। उन्होंने अपने बेटे को फ़ार्मास्यूटिकल में स्नातक बनाया और आज उनका पोता डॉक्टर बनने की राह पर है। तीसरी पीढ़ी तक यह परिवर्तन यूं ही नहीं आया। यह निरंतर मुस्लिम समाज में शिक्षा के प्रति जागरूक किए जा रहे अभियान का नतीजा है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि हम एक ऐसे बहुलतावादी देश के नागरिक हैं, जहां के संविधान में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित रखा गया है। यहां का संविधान अनुच्छेद २९ (१) में विभिन्न समुदायों को अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार देता है। जबकि दूसरी तरफ़ अनुच्छेद ३० (१) के तहत सभी अल्पसंख्यक समुदायों को अपने धर्म, भाषा के आधार पर अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। आज़ादी के बाद से अभी तक देश में दो शिक्षा नीति लागू हुई है, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के शैक्षणिक पिछड़ेपन को चिह्नित करते हुए इन पर विशेष ध्यान देने की बात की गई है। लेकिन आश्चर्य यह है कि शिक्षा में नामांकन के मामले में मुस्लिम समुदाय की स्थिति दलित और आदिवासी समुदाय के मुकाबले ज्यादा कमज़ोर है। मुस्लिम समुदाय की शैक्षणिक स्थिति पर नज़र डालने पर जो आंकड़े सामने आए, वह चौंकानेवाले हैं। २०११ की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत के धार्मिक समुदायों में सबसे ज़्यादा निरक्षरता की दर ४३ प्रतिशत मुसलमानों की है। २०१८-१९ में उच्च शिक्षा के अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नामांकित छात्रों में मुसलमानों की हिस्सेदारी केवल ५.२३ प्रतिशत है। मुसलमानों की जनसंख्या के अनुपात में यह काफ़ी कम है। लेकिन अब मुसलमान उच्च शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। भला ऐसा कौन-सा समाज होगा, जो अपने माथे पर ‘जाहिल’ का टैग लेकर घूमना चाहेगा।

वैसे मुस्लिम समाज की दयनीय स्थिति को देखते हुए यह अपेक्षा की जा रही थी कि नई शिक्षा नीति में उनकी कमज़ोर शैक्षणिक स्थिति और उसके कारणों का विश्लेषण किया जाएगा। इस निराशाजनक स्थिति से निकलने का कोई न कोई हल ढूंढ़ने की कोशिश होगी लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। पूरी शिक्षा नीति में अल्पसंख्यक या मुस्लिम समुदाय का अलग से कोई ज़िक्र नहीं किया गया बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित समूहों में शामिल करते हुए नज़रअंदाज़ कर दिया गया तो क्या मुस्लिम समाज को इसका रोना लेकर बैठ जाना चाहिए? अगर हिंदुस्तान का मुसलमान शिक्षा के मामले में पिछड़ा हुआ है तो क्या कोई दूसरा देश आकर उन्हें शिक्षित करेगा? मुस्लिम समाज में अगर जागरुकता की कमी रही है तो उसका ज़िम्मेदार ख़ुद मुस्लिम समाज है। मुस्लिम समाज के हित की बात करनेवालों का उद्देश्य मुसलमानों में शिक्षा के प्रति जागरुकता पैदा करना होना चाहिए था लेकिन उस मामले में कहीं न कहीं कमी रह गई। कुछ बुद्धिजीवी और जागरूक मुसलमानों को अगर छोड़ दिया जाए तो आमतौर पर मुस्लिम समाज बच्चों की पढ़ाई लिखाई को लेकर गंभीर नहीं होता। ऐसे में जागरूक मुस्लिम नेताओं, धर्मगुरुओं और मुस्लिम समाज के हितचिंतक संगठनों को मुस्लिम समाज में शिक्षा के महत्व को समझाने की बड़ी ज़िम्मेदारी है।

देश के मौजूदा हालात में मुसलमानों के पास राजनीति में कोई जगह बचती नहीं है। वह ध्रुवीकरण का शिकार होकर किनारे कर दिया गया है। पिछले कुछ सालों से उसकी पूछ कम हुई है। एक तरफ़ उस पर तुष्टिकरण का लाभ लेने का आरोप है तो दूसरी तरफ़ सच्चर कमिटी की रिपोर्ट कहती है वह शिक्षा के क्षेत्र में दलितों से भी पिछड़ा हुआ है। क़ौम की परेशानियों को उठाने वाले अब न के बराबर हैं। मुसलमानों को अगर योग्य बनना है तो उसका एक ही रास्ता है शिक्षा। शिक्षा के नाम पर ही मुसलमानों की पहचान होनी चाहिए। जिस भी क्षेत्र में मुसलमान काम कर रहे हैं उसको लेकर योग्य शिक्षा लें और ईमानदारी से काम करें। इसके अलावा मुसलमानों को चाहिए कि वित्तीय साक्षरता से जुड़े कोर्स यानि स्टॉक मार्केट, बैंकिंग, इंवेस्टमेंट के साथ ही आर्ट, मेडिकल, शिक्षा, क़ानून, पत्रकारिता जैसे विभिन्न विषय पर योग्यता और रुचि अनुसार भविष्य की राह बनाएं। इसके अलावा जो घर बैठे अपने हुनर और कारोबार को आगे ले जाना चाहते हैं वह स्वरोज़गार के अवसर तलाशें। जागरुकता सिर्फ़ बुनियादी शिक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि उन्हें वित्तीय साक्षरता से भी जोड़ने की होनी चाहिए। मुस्लिम समाज में बहुत अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और वैज्ञानिक वगैरह हैं। मुस्लिम समाज का अधिकांश पढ़ा-लिखा तबक़ा आर्थिक रूप से मज़बूत है लेकिन जागरुकता लाने के नाम पर ग़ैर-ज़िम्मेदार है। मुसलमानों में सैंकड़ों ख़ूबियां हो सकती हैं लेकिन शिक्षा के प्रति जुनून नदारद है। इसी वजह से वे सब वहीं के वहीं रह जाते है। अगर शिक्षा की बुनियाद पर मुसलमानों में क़ाबिलियत भी आ गई तो भविष्य में मुस्लिम समाज बहुत मज़बूत होकर राष्ट्र निर्माण में बड़ी भूमिका निभा सकता है।

ध्यान रहे शिक्षा के बिना कोई समाज तरक़्क़ी नहीं कर सकता। शिक्षित समाज ही देश को प्रगति का रास्ता दिखाता है। मुस्लिम समाज को सबसे ज़्यादा ज़रूरत बच्चों की तालीम पर ध्यान देने की है। वैसे, ऐसा भी नहीं है कि क़ौम ने उन्हें शिक्षा के अवसर नहीं दिए हैं लेकिन चिंतनीय विषय यह है कि तमाम अवसर मौजूद होने के बावजूद क़ौम शिक्षा में पिछड़ी हुई क्यों है? आज युवा पीढ़ी तरह-तरह की बुराइयों में फंसी हुई है, जिसमें मुसलमानों का प्रतिशत ज़्यादा है। मुस्लिम समाज के शिक्षित तबके का प्रयत्न होना चाहिए कि वह युवाओं को बुराइयों के रास्ते से निकालकर उनका रुख़ तालीम की तरफ़ मोड़ें। यह आवश्यक है कि मुस्लिम समाज में शिक्षा जागरुकता के लिए सतत अभियान चलाया जाए और प्रत्येक बच्चे का स्कूल नामांकन अवश्य कराया जाए। ड्रॉप आउट बच्चों की समस्याओं को समझकर उन्हें ड्रॉप आउट से रोका जाना समाज की ज़िम्मेदारी है। उच्च शिक्षा के लिए सरकार की अनेक शैक्षणिक छात्रवृत्तियों का लाभ समाज के जागरूक लोग उन्हें आसानी से दिलवा सकते हैं। मुसलमानों का हीन भावना से बाहर निकलना ज़रूरी है। उन्हें अपने बच्चों को ऊंचा मक़ाम हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। शिक्षा के लिए दूर-दराज़ तक जाने की बात अगर इस्लाम करता है तो क्यों न उसे अमली जामा पहनाया जाए? बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारे मित्र के बेटे ने निर्णय लिया और यूक्रेन पहुंच गया। अगर सरकारों की शिक्षा नीतियों का रोना रोते रहे तो वैसी ही स्थिति बनी रहेगी, जैसी है। बल्कि बिगड़ती ही जाएगी। अगर कोई कार्य मिशन बनाकर किया जाता है तो उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। तय तो मुसलमानों को करना है, वह क़ुरआन की आयत ‘इक़रा’ अर्थात पढ़ को आत्मसात करते हैं या सबसे ‘जाहिल क़ौम’ का तमग़ा सीने से लिपटाए हाशिये पर रहना पसंद करते हैं।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)