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'हक़ीक़त ख़ुराफ़ात में खो गई, यह उम्मत रवायात में खो गई' / सैयद सलमान
Tuesday, December 5, 2017 - 9:25:10 AM - By सैयद सलमान

'हक़ीक़त ख़ुराफ़ात में खो गई, यह उम्मत रवायात में खो गई' / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 05 12 2017

पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद साहब के जन्मदिन पर मुस्लिम समाज ने ईद मिलादुन्नबी पर्व पिछले दिनों धूमधाम से मनाया। मुस्लिम बस्तियों की रौनक़ देखने लायक थी। पर्व को लेकर मस्जिदों एवं मोहल्लों सहित घर-दुकानों आदि पर आकर्षक विद्युत सज्जा की गई थी। मुस्लिम मोहल्लों में रंग बिरंगी पताकाएं फहरा रही थीं। शहर भर के अनेक ठिकानों पर निकले ईद मिलादुन्नबी के जुलूस में बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के लोग मौजूद थे। जुलूस में पवित्र मक्का-मदीना, आपसी भाईचारे, एकता और देशप्रेम को दर्शाती हुई अनेक झांकियां आकर्षण का केंद्र रहीं। नफ़रत करो दहशतगर्दी से, आधी रोटी खाओ-अपने बच्चों को पढ़ाओ, सफ़ाई ईमान का आधा हिस्सा है, बेटी बचाओ जैसे संदेश भी जुलूस के माध्यम से दिए गए। इस मौके पर विभिन्न रास्तों पर निकाले गए जुलूस के दौरान मुस्लिम समाज ने मोहम्मद साहब के बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। जुलूस शहर की विभिन्न सड़कों से पूरी शान से गुज़रा, जिसमें आकर्षक वेशभूषा में लोग शामिल हुए। विशेषकर छोटे बच्चे आकर्षण का केंद्र रहे। कई स्थानों पर हिन्दू-सिख और ईसाई भाइयों ने जुलूस का स्वागत किया। अनेक मस्जिदों, मदरसों, दरगाहों, यतीमख़ानों में नज़्र-ओ-नियाज़ और लंगर का आयोजन भी हुआ। पर्व को लेकर पुलिस प्रशासन पूरे समय मुस्तैद रहा। कुल मिलाकर ईद मिलादुन्नबी का पर्व एक भव्य कार्यक्रम के रूप में अमन के साथ संपन्न हुआ।

लेकिन इस वर्ष भी सुधिजनों के ज़ेहन में यह पर्व एक सवाल छोड़ गया कि आम फ़तवों पर मरने कटने वालों ने मुस्लिम उलेमा के आदेशों का कितना पालन किया। डीजे न बजाने और शोर शराबे से बचने की हिदायत, हुल्लड़ न करने की तम्बीह, बिरादरान-ए-वतन के आवागमन पर किसी तरह की बाधा न पहुंचाने की सख्त नसीहत पर कितना अमल हुआ। इस मुद्दे पर इस बार उलेमा कराम नहीं बल्कि मुस्लिम समाज का वह तबका ज़्यादा निशाने पर होना चाहिए जो अपनी सहूलियत का इस्लाम अपने ही समाज पर थोपना चाहता है। ईद मिलादुन्नबी के जुलूस की तैयारियों की कई वर्षों से होती रही बैठकों में हिस्सा लेने की बुनियाद पर दावे से कह सकता हूँ कि अधिकांश नौजवान तबका आयोजकों की बात को 'इस कान से सुन, उस कान से उड़ा' देने वाले फॉर्मूले पर ज़्यादा अमल करता है। जिस नबी ने अपनी उम्मत को नसीहत की हो कि राह चलते अगर कोई कंकर पत्थर दिखाई दे और अंदेशा हो कि उस से राहगीर को अड़चन, तकलीफ़ या चोट लग सकती है तो रास्ते से उस कंकर-पत्थर को हटा दे, उस नबी के वर्तमान दौर के उम्मतियों को देखकर क्या कहा जाए। जिस तरह से तेज़ डीजे बजाते, नाचते, सड़कों पर अवरोध पहुंचाते मुस्लिम नौजवान अनेक जगह पर जुलूस निकलते हैं वह पूरे मुस्लिम समाज के लिए शर्मिंदगी का कारण बनते हैं। दाढ़ी, टोपी, बुर्का, ब्याज, तलाक़ और हलाला जैसे मुद्दों पर फ़तवों की आड़ में दुनिया सर पर उठाने वाले नौजवान इस मुद्दे पर आखिर क्यों नहीं उलेमा और मुफ़्ती हज़रात की बातों पर अमल करते। यह दोमुहांपन नहीं तो और क्या है।

वैसे मुस्लिम समाज में एक तबका वह भी है जो ईद-ए-मिलाद को पैग़म्बर के जन्मदिन के साथ-साथ शोक दिवस के रुप में भी मनाता है। उस वर्ग का मानना है कि इसी दिन पैग़म्बर की मृत्यु भी हुई थी लिहाज़ा इस दिन जश्न नहीं शोक मनाना ज़्यादा सही होगा। यह तबका इस दिन रोज़े, नमाज़, ख़ैरात इत्यादि धार्मिक अनुष्ठान करने को तरजीह देने की बात करता है। यह तबका मानता है कि मोहम्मद साहब का जन्मदिन किसी समारोह के रूप में नहीं मनाना चाहिए। वह इसे एक रस्म मानते हुए इस्लाम के बुनियादी सिद्धातों को ठेस पहुंचाने वाला बताता है। उनका तर्क होता है कि चूँकि इस्लाम दिखावे और प्रदर्शन में विश्वास नहीं करता है और इस्लामी आदर्शों को जीवन में कार्यान्वित करने पर बल देता है इसलिए समारोह का आयोजन अनुचित है। जबकि मुस्लिम समाज का दूसरा बड़ा तबका यह मानता है कि मानव समाज अपनी खुशियों को व्यक्त करने के लिए अपने देश के प्रचलित सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक परिवेश को नहीं बदल सकता। अपने तर्क को रखने लिए वे देश के अन्य धर्मावलंबियों का उदाहरण देते हैं जिसके अनुसार किसी भी अन्य पंथ के त्यौहार के दौरान लोग अपनी भावना व्यक्त करने के लिए सार्वजनिक मार्गों पर जुलूस निकालते हैं। यह दो मतों का टकराव भले हो लेकिन उलेमा इस मामले में एकमत हैं कि इसे शुद्ध सामाजिक तरीके से मनाना चाहिए ताकि किसी अन्य धर्मावलंबियों को तकलीफ न हो। इसलिए डीजे सहित अनेक तरह की हुल्लड़बाजी से रोका जाता है लेकिन नतीजा 'ढाक के तीन पात'।

मुस्लिम बुद्धिजीवी पैग़म्बर मोहम्मद साहब की विलादत के जुलूस को धार्मिक नहीं बल्कि एक सामाजिक रूप में स्वीकार करते हैं। दरअसल ईद मिलादुन्नबी पर जुलूस निकालकर उसे सार्वजनिक स्वरुप देने के पीछे ख़िलाफ़त आन्दोलन का बड़ा रोल रहा है। सन् 1919 से 1924 के बीच भारत में मुख्यत: मुसलमानों द्वारा चलाया गया ख़िलाफ़त आंदोलन एक राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन का वह स्वरुप था जैसी कल्पना लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की स्थापना को लेकर की थी। यह एक तरह का शांति पूर्वक असहयोग आंदोलन था जिसे सत्याग्रह आंदोलन के रूप में चलाया गया ताकि अंग्रेज़ों पर देश छोड़ने का दबाव बनाया जा सके। इसके लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता भी बेहद ज़रूरी थी। गाँधी जी ने इस आन्दोलन को हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिय उपयुक्त समझा। 23 नवम्बर, 1919 को दिल्ली में 'अखिल भारतीय ख़िलाफ़त कमेटी' का अधिवेशन हुआ और गाँधी जी ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता भी की। उनके सुझाव पर असहयोग एवं स्वदेशी की नीति अपनायी गयी। 'ख़िलाफ़त आन्दोलन' मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली एवं मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के सहयोग से ज़ोर पकड़ता चला गया। ख़िलाफ़त समिति द्वारा निकाले गए ईद मिलादुन्नबी के जुलूस का नेतृत्व भी महात्मा गाँधी ने किया और तभी से इस प्रकार के जुलूस के आयोजन ने ज़ोर पकड़ा। हिन्दू-मुस्लिम एकता और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बनने वाले माहौल के दृष्टिकोण से तो यह बेहद मुफ़ीद रहा लेकिन वर्तमान में ईद मिलादुन्नबी के जुलूस का आयोजन अपने मक़सद से भटका नज़र आता है। अब यह गली मोहल्लों के टटपुंजिए नेताओं से लेकर मुस्लिम समाज की ठेकेदारी का दम भरते राज्य और केंद्र स्तर के नेताओं की दुकान चमकाने का साधन भर बनकर रह गया है। हालांकि इसमें बड़ी संख्या में अवाम श्रद्धाभाव से शामिल होती है यह भी सत्य है। लेकिन अब ज़्यादातर ईद मिलाद के जुलूस का पूरी तरह राजनीतिकरण हो चुका है यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं होना चाहिए।

ग़ौरतलब है कि विश्व के लगभग 54 इस्लामी देशों में से केवल 6 देशों में ईद मिलादुन्नबी के दिन सार्वजनिक अवकाश दिया जाता है। जहां मोहम्मद साहब का जन्म हुआ था उस सऊदी अरब जैसे मज़हबी देश में भी ईद-ए-मिलाद पर न तो सरकारी छुट्टी होती है और न ही सड़कों पर कोई जुलूस निकलता है। ईद-ए-मिलाद के जुलूस सबसे अधिक भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश या यूँ कह लीजिये कि भारतीय उपमहाद्वीप में ही देखने को मिलते हैं। मिलाद के नाम पर डीजे बजाना, केक काटना, सड़कों पर साइलेंसर निकाली मोटरसायकल का शोर मचाते कानून की धज्जियां उड़ाना कहाँ तक जायज़ है यह अब गंभीरता से सोचना होगा। हालांकि इस वर्ष जागरूकता आई है लेकिन अभी लंबा सफर तय करना है। पैग़म्बर के संदेश को अगर आम करना मुसलमानों की प्राथमिकता है तो उनके जैसा आचरण भी अपनाना होगा। नबी की सुन्नतों के ज़ख़ीरे से सीख लेकर यह किया जा सकता है। सवाल यही है कि क्या कि मुसलमान इस दिशा में सोचने को तैयार है? उसे सोचना तो होगा। नबी की शान और उनके सन्देश को आम करने के लिए निकलने वाले जुलूस की पाकीज़गी तभी है जब यह मात्र दिखावा या शक्तिप्रदर्शन न होकर सच्चे अर्थों में नबी की सीख लेने वाला बने। वरना यह वार्षिक इवेंट से अधिक कुछ ना कहलाएगा। अल्लामा इक़बाल के शब्दों में कहें तो; 'हक़ीक़त ख़ुराफ़ात में खो गई, यह उम्मत रवायात में खो गई'।