अनेक संस्कृतियों और सामाजिक परंपराओं वाले हमारे देश में महज़ एक अफ़वाह के चलते अनियंत्रित भीड़ द्वारा एक क़त्ल कर दिया जाता है. ऐसी घटना एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए. अलग-अलग समुदायों के बीच नफ़रत की राजनीति और हिंसा सभ्य समाज की पहचान नहीं कही जा सकती.
दादरी के बिसारा गांव में एक मुसलिम परिवार के घर की फ़्रिज में गाय का मांस रखने की अफ़वाह का फैलना, इस अफ़वाह के बाद, ख़बरों के मुताबिक वहां के मंदिर से इस बात की घोषणा कर नफ़रत हो हवा देना, और फिर हिंसक भीड़ का अपने ही गाँव के परिवार पर हमला करना सामाजिक वैमनस्य बिगाड़ने वालों की मानसिकता के सफ़ल होने का सबूत है.
परिवार के मुखिया मोहम्मद अख़लाक़ की र्इंट-पत्थरों से मार कर हत्या कर दी जाती है और उसके बेटे को बुरी तरह जख्मी कर मरणासन्न छोड़ दिया जाता है. यह उस भारत का चेहरा क़त्तई नहीं है, जहां सैकड़ों सालों से अलग-अलग धर्मों को मानने वाले समुदायों के बीच एक-दूसरे की संस्कृति का आदर करने की परंपरा रही है
हालाँकि प्रशासन बाद में भारी पुलिस बल की तैनाती कर खानापूर्ति करता है और एक गाँव, एक दुसरे पर अविश्वास करने वालों का गवाह बन जाता है. वैसे प्रशासन भी कहीं न कहीं इस लापरवाही का ज़िम्मेदार है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता.
कुछ दिनों पहले कानपुर के शेखपुर गांव में भीड़ ने मंदिर के सामने एक शख्स को पाकिस्तानी आतंकी बता कर पीट-पीट कर मार डाला था.भीड़ हिंसक होती रही है पर पिछले कुछ महीनों से उसमे अतिरिक्त उबाल देखने को मिल रहा है. आखिर इस मानसिकता को हवा दे कौन रहा है?
दरअसल, धार्मिक उन्माद के नाम पर जैसी राजनीति चल रही है और बहुत मामूली बातों को तूल देकर हिंसा भड़काने की जो कोशिश की जा रही है, उसके चलते ही ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं. सोशल मीडिया से लेकर तथाकथित फ़ायर ब्रांड नेताओं के आग उगलते बयान आग में घी का काम करते हैं. ऐसे नेताओं पर अंधभक्ति दर्शाने वाले और उनका अंधानुकरण करने वाले भी सहज तरीके से जीवन गुज़ारने में यकीन रखने वाले लोगों के बीच दो समुदायों को लेकर दूरियां बढ़ा रहे हैं.
स्पष्ट है धार्मिक ध्रुवीकरण की सोची समझी राजनीति इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है और ऐसी रणनीति बनाने वालों के लिए सामाजिक ताना बाना अगर बिखरता भी है तो उनकी बला से. सामाजिक सद्भाव और देश की एकता को क्षति पहुंचाती ऐसी घटनाओं का अगर देश की सामाजिक व्यवस्था पर गहरा और दीर्घकालिक असर पड़ता भी है तो नफ़रत के सौदागरों को आखिर क्या फ़र्क पड़ना है. नकारात्मक राजनीति करने वाले दल और सरकारें अगर समय रहते क़दम नहीं उठातीं तो समझ लीजिये विश्वपटल पर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर भारत की उजली साख पर बट्टा लगने के लिए ऐसी घटनाएं काफी हैं.
राजनीति, समाज, धार्मिक उन्माद से कही ज़्यादा ज़रूरी है इंसानियत. दादरी हो, शेखपुर हो, बनारस हो, मुजफ्फरपुर हो मुंबई के ब्लास्ट हों या यूँ कहें जहाँ कहीं किसी भी बेक़सूर का लहू बहे यह इंसानियत के लिए अच्छे संकेत नहीं है.
भारत जैसे देश में हर धार्मिक समुदाय को अगर एक-दूसरे पर शक, भय और असुरक्षा के बीच जीना पड़े तो लानत है ऐसी सरकारों और उनके चलाने वाले कर्णधारों पर.
इंसानी गोश्त की महक जिन लाशों के सौदागरों को अच्छी लगने लगी हो क्या वो इसपर चिंतन मनन करेंगे या फिर ऐसी घटनाएँ उनके वजूद को संजीवनी देने का काम करती हैं इसलिए आँख मूँदकर क़त्ल-ए-आम होता देख नीरू वाली बंसी बजाते रहेंगे.