साभार- दोपहर का सामना 04 09 2020
पूरा विश्व जब कोरोना महामारी से लड़ने में लगा है तब भी अनेक जगह पर धार्मिक नफ़रत और उन्माद अपने चरम पर है। अभी हमारे देश में बेंगलुरु में पैग़ंबर मोहम्मद साहब के ख़िलाफ़ की गई टिप्पणी और उसके बाद हुई हिंसा की घटना का मामला ठंडा भी नहीं पड़ा था कि स्वीडन से भी कुछ ऐसी ही ख़बर आई। दक्षिणी स्वीडन के माल्मो शहर में क़ुरआन शरीफ़ को जलाए जाने की ख़बर फैलने के बाद दंगाइयों ने बेंगलुरु जैसी हिंसा को अंजाम दिया। उन्होंने अज़ान और नमाज़ के अलावा आपदा के समय पाठ किये जाने वाले नारों का दंगों में इस्तेमाल करते हुए सड़कों पर पत्थरबाजी और आगज़नी की। सनद रहे, 'अल्लाहु अकबर' एक सदा है जो ईश्वर की महानता को निरूपित करती है। चूंकि यह वाक्य अरबी में है, इसलिए मुसलमान इसे अज़ान के वक़्त और नमाज़ पढ़ते वक़्त इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इसके भावार्थ पर मुसलमानों का एकाधिकार नहीं है। इसी वाक्य को अगर हिंदी में 'ईश्वर महान है' या अंग्रेजी में 'गॉड इज़ ग्रेट' कहेंगे तो क्या इस वाक्य के भाव बदल गए? एक बात और, मुस्लिम समाज के दंगाई क्या इस बात को कहीं से साबित कर सकते हैं कि इस नारे का इस्तेमाल तोड़-फोड़ या दंगा करने के लिए किया जाना चाहिए? अपरिहार्य कारणों से छिड़ी जंग में तो नारे लगते रहे हैं और वह किसी भी धर्म या मुल्क के आधार पर हो सकते हैं लेकिन हिंसा में उसका इस्तेमाल ग़लत है।
मीडिया में अक्सर दंगे-फ़साद के साथ-साथ ऐसी भी ख़बरें आती हैं जब किसी दूसरे मज़हब के लोगों ने किसी अन्य मज़हब के धार्मिक स्थल, बूढ़े, बच्चों और महिलाओं को बचाया, ह्यूमन चैन बनाई या उनकी रक्षा में पहरेदारी की। इस बात से यह पता चलता है कि जब किसी ख़ास मज़हब पर कुछ दंगाई ज़ुल्म कर रहे थे तब उसी मज़हब के लोग मज़लूमों की हिफ़ाज़त कर रहे थे। इस से इस बात को समझाने में आसानी होती है कि किसी ख़ास मज़हब के लोग मानवता के लिए अच्छा काम कर रहे हैं और धार्मिक उन्माद और दंगों के दौरान भी अपनी इंसानियत को नहीं भूले और समाजसेवा में लगे रहे। दरअसल यही ख़बरें लोकहित की होती हैं। लेकिन बजाय ऐसी ख़बरों को देखने के, लोग उन आंकड़ों में उलझना ज़्यादा पसंद करते हैं, जिनमें दंगे-फ़साद का ज़िक्र हो। हिंसक प्रवृत्ति के लोग तो उसके बाद सोशल मीडिया पर ज़हर उगलने में अपना सारा समय व्यतीत करने लगते हैं। एक तरफ़ तो ये दंगे फ़साद हो रहे होते हैं तो दूसरी तरफ़ खलिहर बैठी नई पीढ़ी सोशल मीडिया पर क्रांति करने में लग जाती है। ज़ाहिर है जवाब में दूसरी तरफ़ से भी जवाब आएगा। और फिर वह लोग कामयाब हो जाते हैं जो धार्मिक वैमनस्यता को बढ़ावा देना चाहते हैं। मुसलमानों का एक समूह इस तरह के प्रकरण में मज़लूम नहीं, कभी-कभी कारक नज़र आने लगता है।
इतिहास इस तथ्य का गवाह है कि एकता और सद्भाव और असंगति और भेदभाव राष्ट्रों के उत्थान और पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब तक किसी भी राष्ट्र में एकता और सद्भाव है, वह हर क्षेत्र में जीत का परचम फहराता रहता है। जैसे-जैसे एकता में भेदभाव और वैमनस्यता पैर पसारती है वैसे-वैसे हर क्षेत्र में पिछड़ना और पराजित होना ऐसे राष्ट्र की नियति बन जाती है। बिलकुल उसी तरह जब कोई राष्ट्र अपनी एकता खो देता है, तो वह वास्तव में अपनी सारी जमा पूंजी खो देता है। कठिन से कठिन समस्याओं से निपटने के लिए एकता एक शक्तिशाली बल और शक्तिशाली हथियार है। मिसाल के तौर पर इस्लामी इबादत शैली में सामूहिकता की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण है। जुमा और ईद की नमाज़ें मुस्लिम समुदाय की आपसी एकता का एक अच्छा उदहारण हैं। इसी तरह, हज का कर्तव्य निभाना मुस्लिम समुदाय की एकता और समानता का सबसे बड़ा संकेत है। इतनी बड़ी सभाओं में एक ही इमाम के पीछे प्रार्थना करने और सभी एक ही ईश्वर की मख़लूक़ हैं इसकी समझ होने के बावजूद क्या मुस्लिम समाज अपने इन धार्मिक कर्मों को सामाजिक जामा नहीं पहना सकता? क्या वह राष्ट्र के साथ खड़ा नहीं हो सकता? जो मुसलमान खड़े होते हैं उन्हें नाकारा साबित करने में कट्टरपंथी धर्मगुरुओं का ज़्यादा ज़ोर होता है।
कभी सर जोड़कर बैठकर सोचें वह मुस्लिम उलेमा जो केवल बयानबाज़ियां करते हैं कि आख़िर क़ुरआन जलाने, अल्लाह या मोहम्मद साहब के बारे में असभ्य टिप्पणी करने जैसे घृणित कृत्य किस वजह से होते हैं। क्या आज का मुसलमान उस नबी का असली उम्मती नज़र आता है जिस नबी से मिलने हज़ारों मील का फ़ासला तय कर ईसाई, यहूदी और अन्य धार्मिक धर्मगुरु आते थे? और उस पर सुखद यह कि नबी-ए-करीम उन्हें मदीना मुनव्वरा की मस्जिद में क़याम की इजाजत भी देते थे और उनकी मेहमाननवाज़ी में ख़ुद भी रहते और अपने साथी सहाबा कराम को भी लगाते थे। आज तो फ़िरक़े के आधार कई मस्जिदों में दूसरे फ़िरक़े के मुसलमानों तक का प्रवेश वर्जित कर दिया गया है।
ग़ौर करने की बात यह भी है कि जिनकी आजीविका सांप्रदायिक दंगों को फैलाने से संबंधित है, वे अंतर-मुस्लिम और अंतर-धार्मिक एकता की योजना को कैसे सफल होने देंगे? इसलिए, यह समझने की ज़रूरत है कि सभी समुदायों में एकता और सौहार्द केवल उत्साही नारों, उत्साही वक्तव्यों और उत्साही भाषणों के ज्वालामुखी द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता न ही इसकी कोई मज़बूत संभावना है। उसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। कोई भी एकता भौतिक लक्ष्यों और आर्थिक हितों पर आधारित नहीं हो सकती। यह एक शुद्ध राष्ट्रीय सोच और राष्ट्रीय भावना है जो सभी प्रकार के स्पष्ट व्यक्तिगत हितों का त्याग करने की मांग करती है। इस मामले में विशेषकर मिंबर-ओ-मेहराब के वारिसों, उलेमा-ए-कराम और मुस्लिम बुद्धिजीवियों को बहुत ज़िम्मेदार भूमिका निभाने की ज़रूरत है। उन्हें मुसलमानों की मजलिसों में या फिर सार्वजनिक समारोहों में सांप्रदायिक और संवेदनशील मतभेदों को व्यक्त करने से दूर रहना चाहिए और लोगों को बौद्धिक रूप से प्रशिक्षित करना चाहिए।
धार्मिक और राष्ट्रीय एकता के लिए प्रमुख बाधाओं की सूची में अज्ञानता, पूर्वाग्रह और नस्लीय पूर्वाग्रह सबसे ऊपर हैं। धर्म के नाम पर विभाजन फैलाने वालों को एकता और भाईचारे के महत्वपूर्ण बिंदु को समझने की ज़रूरत है। यह बात सभी धर्मों पर लागू होती है। प्रत्येक राष्ट्र के बहुसंख्यकों के साथ मुस्लिम समाज की एकता के रास्ते में रोड़ा बनने वाले सभी कारकों को समझें और उन्हें ख़त्म करने के लिए व्यावहारिक क़दम उठाएं तभी ग़लतफ़हमियों और नफ़रतों की आग को ठंडा किया जा सकता है। जितनी उग्रता दिखेगी, उतना ही सामने से प्रतिरोध होगा। जैसा प्रतिरोध आप करते हैं, वैसे ही प्रतिरोध को ग़लत ठहराने का फिर आपको कोई अधिकार नहीं रह जाता। 'पूरे विश्व में मुसलमानों पर ज़ुल्म हो रहा है', इस टैबू से बाहर निकलिए, शिक्षित बनिए, क़ुरआन-हदीस का सही मुतालआ कीजिए। इस्लाम ने अपनी शाश्वत शिक्षाओं के माध्यम से सभी पूर्वाग्रहों को मिटाने की बात कही है। उस दौर के सबसे बड़े भेद गोरे और काले के बीच के अंतर को ख़त्म करने का काम इस्लाम ने ही किया था तो फिर आज इस्लाम हर तरह के भेद क्यों नहीं ख़त्म कर सकता?
यूरोप और खाड़ी देशों का मुसलमान अलग-अलग पहनावे, खान-पान और अन्य कई कारणों से अलग होता है, लेकिन इस्लाम के अगर पांच फ़र्ज़ पर क़ायम है तो वह आख़िर है तो मुसलमान ही न? लेकिन चंद मुसलमानों के कर्मों ने पूरे इस्लाम की छवि को ख़राब करने का काम किया है। इस्लाम केवल तक़वा, परहेज़गारी, पवित्र विचारों, चरित्र सम्मान और अनुग्रह के आधार को महत्व देता है। मुसलमान ऐसी स्पष्ट शिक्षाओं के मौजूद रहते अरब, ग़ैर-अरब, मुस्लिम, गैर-मुस्लिम के पूर्वाग्रहों से पीड़ित क्यों हैं? इतिहास के अदना से अदना तालिब-ए-इल्म को भी पता है कि इन पूर्वाग्रहों के कारण इस्लाम और मुसलमानों को अपूरणीय क्षति हुई है। तथ्य यह है कि वैश्विक स्तर पर भाईचारे के लिए सच्ची एकता और सद्भाव के लिए एक आंदोलन केवल तभी उभर सकता है जब कट्टरपंथी मुसलमान अपने पेशेवर और आंशिक मतभेदों को एक तरफ़ रख दें और राष्ट्रीय एकता और भाईचारे को मज़बूत करें। वह जिस भी राष्ट्र में रहते हैं वहां के क़ानून और वहां की सभ्यता को आत्मसात करें। इसलिए मुस्लिम समाज को पूर्वाग्रहों से दूर रहना चाहिए। जिस भी वतन में मुसलमान रहते हैं उसकी एकता के लिए ईमानदारी से काम करना चाहिए। याद रखें, इस्लाम की शिक्षा यही है कि, 'वतन से मोहब्बत, निस्फ़ (आधा) ईमान है।'