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सूदख़ोरी हराम है ! / सैयद सलमान
Friday, July 24, 2020 11:55:39 AM - By सैयद सलमान

एक पुरानी कहावत है, `कर्ज में डूबा व्यक्ति और दलदल में गिरा हाथी कभी ऊपर नहीं आ पाते।’
साभार- दोपहर का सामना 24 07 2020

कोरोना काल की इस मुश्किल घड़ी में कमाई और बचत बढ़ाने के नए-नए नुस्ख़े आज़माए जा रहे हैं। लॉकडाउन की वजह से असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है क्योंकि रातों रात हज़ारों लोगों का रोज़गार छिन गया। बीते कुछ महीनों से कोरोना की मार से जूझ रही पूरी दुनिया आने वाले दिनों में आज के मुक़ाबले कहां खड़ी होगी इसका माक़ूल जवाब किसी के पास नहीं है। ऐसे में कई ग़रीब परिवार घर चलाने के लिए इधर-उधर से क़र्ज़ लेकर काम चला रहे हैं। क़र्ज़ कैसे चुकता होगा यह जवाब भी अभी किसी के पास नहीं है। भूख सबसे बड़ा दर्द है और इस से निपटने के लिए स्वाभिमान को परे रखकर क़र्ज़ लेने में कोई बुराई नहीं, लेकिन इस आपदा में भी कुछ मित्रों का कुछ मित्रों को ब्याज पर क़र्ज़ देने का ज़िक्र भी सामने आया। यह बात भीतर तक झकझोर गई। किसी की मजबूरी में उसकी मदद करना इंसानी फ़ितरत है, लेकिन मदद के नाम पर मजबूरी का लाभ उठाना शैतानी फ़ितरत ही कहा जाएगा। शायद इसीलिए इस्लाम में ब्याज को सख़्ती से मना किया गया है। पवित्र क़ुरआन कहता है, "और जो लोग ब्याज खाते हैं, वे बस इस प्रकार उठते हैं जिस प्रकार वह व्यक्ति उठता है जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो। अल्लाह सूद को मिटाता है और सदक़ात को बढ़ाता है और अल्लाह किसी नाशुक्रे गुनाहगार को पसंद नही करता। ऐ लोगो, जो ईमानदार हो तो अल्लाह से डरो और जो सूद बाक़ी है वह छोड़ दो अगर तुम मोमिन हो।(अल-क़ुरआन २: २७५, २७६, २७८)"

पवित्र क़ुरआन ने स्पष्ट रूप से ब्याज को वर्जित मानते हुए इंसानों से दो गुना, चार गुना ब्याज न खाने और अल्लाह से डरने की बात कही है। इस्लाम की रूहानियत मानती है कि ब्याज धन को कम करता है लेकिन दान-पुण्य करने, सदक़ा,-फ़ितरा देने से धन कम नहीं होता। अर्थशास्त्र भले ही ब्याज को मूलधन का किराया, शुल्क या कुछ और माने, लेकिन इस्लाम धर्म में स्पष्ट रूप से ब्याज को अनुचित माना गया है। इस्लाम के मुताबिक़ ब्याज एक ऐसी व्यवस्था है जो अमीर को और अमीर बनाती है तथा ग़रीब को और ज़्यादा ग़रीब। एक प्रकार से यह शोषण का एक ज़रिया है, जिसे लागू करने से इंसानों को बचना चाहिए। इस्लाम का मानना है कि ब्याज खाने से बरकत ख़त्म हो जाती है। पैग़ंबर मोहमद साहब के दिव्य संदेश से पहले अरब में ब्याज की प्रथा बड़े स्तर पर प्रचलित थी। मोहम्मद साहब ने स्वयं ग़रीबी में जीवन बिताया था और उन्होंने इस प्रथा से कई लोगों को कष्ट उठाते देखा था। इसलिए मोहम्मद साहब ने अपने सहाबियों और उम्मतियों को ब्याज के मकड़जाल से बचने को कहा। इतना तो तय है कि कर्ज़दार कभी भी स्वेच्छा से ब्याज देने को तैयार नहीं होता है। इस से उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ब्याज दर कितनी कम है बल्कि यह उसकी मजबूरी होती है। इसकी वजह यह है कि अगर उसे कहीं से 'क़र्ज़-ए-हस्ना' यानि बिना ब्याज का क़र्ज़ मिल जाए तो वह कभी भी ब्याज पर पैसा लेने के लिए तैयार नहीं होगा।

कोरोना महामारी काल में ऐसी स्थिति बन गई है कि लोग परेशान हैं। जो लोग इस बीमारी से या किसी अन्य वजहों से बीमार हैं, वो काम नहीं कर पा रहे हैं। बीमारी और लॉकडाउन की स्थिति में न जाने कितने ही लोग सेल्फ़ आइसोलेशन में हैं और बेरोज़गार हो गए हैं। जिनका अपना छोटा-मोटा या औसत कारोबार है भी वो उसे चला नहीं पा रहे। ऐसे में अगर कोरोना वायरस नियंत्रण में नहीं आया तो आर्थिक तंगी का यह असर और भी ज़्यादा हो सकता है। फिर संबंधित पीड़ित व्यक्ति के पास आसपास से क़र्ज़ लेने की नौबत आएगी ही। कुछ को मिल जा रहा है कुछ तो क़र्ज़ ले भी नहीं पाते। आख़िर उन्हें दे भी कौन। हालांकि मुसलमानों को इस बात पर ग़ौर करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि क़ुरआन का मुतालआ करें। क़ुरआन तो तंगहाल की मदद में यहां तक कहता है, "और अगर कोई तंगदस्त तुम्हारा क़र्ज़दार हो तो उसे खुशहाली तक मोहल्लत दो और सदक़ा करो और अगर तुम समझो तो तुम्हारे हक़ में ज्यादा बेहतर है कि असल भी बख़्श दो। (अल-क़ुरआन २: २७५)" आख़िर कितने मुसलामानों ने इस बात पर अमल किया है। ग़रीब मुसलमानों को शुरूआती दौर में ग़ैरर-सरकारी और समाजी संगठनों द्वारा बांटे जा रहे भोजन और खाद्य सामग्री पर गुज़र बसर करना पड़ा। लॉकडाउन धीरे-धीरे खुलने की स्थिति में उन्हें वह भी नहीं मिल रहा। आख़िर समाजी संगठन भी कितना कर पाएंगे। क्या धनाढ्य मुस्लिम नुमाइंदों को ऐसे संगठनों की मदद जारी नहीं रखनी चाहिए? हो सकता है कि वो मदद कर रहे हों, लेकिन क्या यह मदद ज़रूरतमंदों तक पहुँच रही है इसका जायज़ा लिया गया है? तस्वीरें खिंचवाने और सोशल मीडिया पर चलाने से न तो सही इस्लाम की नुमाइंदगी होगी न ही उसका सही ज़रूरतमंद को लाभ मिलेगा।

बात जब क़र्ज़, व्यवसाय और मुनाफ़े की आती है तो मुस्लिम समाज अक्सर इन मुद्दों में ख़ुद को गड्डमड्ड कर लेता है। क़ुरआन ने तिजारत और ब्याज के फ़र्क़ को साफ़ कर दिया है। क़ुरआन कहता है, "इस्लाम ने व्यापार को वैध और सूदख़ोरी को ग़ैर-कानूनी बना दिया है। (अल-क़ुरआन २: ३९२)" अब बात जब क़र्ज़ लेने की आती है तब मामला पेचीदा हो जाता है। क़र्ज़ की दो स्थितियां हैं। पहला, व्यक्तिगत क़र्ज़ या बंधक क़र्ज़, अर्थात किसी व्यक्ति द्वारा अपनी व्यक्तिगत ज़रूरतों के लिए किसी साहूकार या बैंक से लिया गया क़र्ज़ और दूसरा, अन्य व्यावसायिक क़र्ज़ जो कि एक व्यापारी या उद्योगपति ब्याज पर अपने व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए बैंकों से उधार लेता है। मुस्लिम समाज में इन दो तरीक़ों के क़र्ज़ को लेकर अक्सर अलग-अलग राय सामने आती है। सूदख़ोरी की वैधता का प्रतिनिधित्व करने वाले मुसलमानों का कहना है कि क़ुरआन ने जिस सूदख़ोरी को मना किया है वह व्यक्तिगत या महाजनी क़र्ज़ है जिसकी ब्याज दर बहुत क्रूर है लेकिन व्यावसायिक क़र्ज़ हराम नहीं है। ऐसे मुसलमानों का मानना है कि, चूंकि इस तरह के क़र्ज़ स्वैच्छिक रूप से दिए जाते हैं और उनकी ब्याज दरें उचित और वाजिब हैं और दोनों में से कोई भी पक्ष अन्यायपूर्ण नहीं है, इसलिए यह वाणिज्यिक ब्याज उस ब्याज से मुक्त है, जो कुरआन द्वारा निषिद्ध है। लेकिन बैंक से, साहूकार से या फिर निजी क़र्ज़ लेने वाले क़र्ज़दार इस बात से इत्तेफ़ाक़ करेंगे कि ब्याज भरते-भरते उनकी कमर टूट जाती है। एक पुरानी कहावत है, 'क़र्ज़ में डूबा व्यक्ति और दलदल में गिरा हाथी कभी ऊपर नहीं आ पाते।' और अगर इसी क़र्ज़ में ब्याज शामिल हो जाए तो स्थिति और भयानक हो जाती है।

बात अगर ख़ालिस कारोबार की है तो कोई व्यक्ति अपनी स्वयं की पूंजी के साथ व्यापार करता है या परस्पर समन्वय या साझेदारी के रूप में। पारस्परिक समझ या साझेदारी के रूप में दो व्यक्ति या समूह एक साथ सहानुभूति, दया और शुद्ध व्यवसाय का माहौल बनाते हैं। यह उनका साझा हित होता है और राष्ट्रीय उत्पादन पर भी इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जबकि दूसरी तरफ वाणिज्यिक हित के मामले में सूदख़ोर केवल अपने हित में रुचि रखता है। कभी-कभी वह इतने महत्वपूर्ण समय में पूंजी की वापसी की मांग करता है और आगे किये जाने वाले निवेश से हाथ खींच लेता है, जब व्यापार को पूंजी की सख़्त ज़रूरत होती है। इस तरह सूदख़ोर अपनी पूंजी को तो ब्याज के साथ निकाल लेता है लेकिन क़र्ज़दार को बड़ा नुक़सान होता है। क्या यह ब्याज का काला सच नहीं है? बात अगर क़र्ज़, व्यवसाय और शुद्ध ब्याज की करें तो दरहक़ीक़त ब्याज एक निश्चित दर पर मिलने वाला एक निश्चित लाभ है, जबकि व्यापार में लाभ के साथ-साथ नुक़सान की भी संभावना है। इस्लाम के नज़रिए में इसीलिए ब्याज एक अभिशाप है जिस से जो जितना बच जाए वही उसकी बचत है। इस्लाम की मान्यता है कि इंसान की आजीविका बिलकुल शुद्ध और हलाल होनी चाहिए। ग़लत रास्ते से की गई कमाई को शैतान की कमाई कहा गया है। ब्याज लेने का अर्थ ही है लोगों की कठिनाई का फ़ायदा उठाते हुए पैसे कमाना। ऐसे में मुसलमानों को मजबूरी का फ़ायदा उठाने की नीयत से क्या ब्याज की कमाई का ख़्याल भी मन में लाना चाहिए?