साभार- दोपहर का सामना 17 07 2020
अमूमन पाकिस्तान से बहुत कम अच्छी ख़बरें आती हैं। ख़ासकर वहां के अल्पसंख्यकों को लेकर अक्सर नकारात्मक ख़बरें ही पढ़ने, सुनने और देखने को मिलती हैं। लेकिन पिछले दिनों एक ख़बर ऐसी आई थी कि, लगा जैसे पाकिस्तान को भी अक़्ल आ गई है और उसने अपने देश के अल्पसंख्यकों की भावनाओं को समझना शुरू कर दिया है। ख़बर यह थी कि पाकिस्तान सरकार इस्लामाबाद में हिंदुओं के लिए मंदिर का निर्माण कराने जा रही है। ख़बर यह भी आई कि इस मंदिर की आधारशिला भी रखी जा चुकी है। घोषणा की गई कि इमरान सरकार इसका पूरा ख़र्च उठाएगी। बताया गया कि पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में भगवान कृष्ण के इस मंदिर को इस्लामाबाद के एच-९ इलाके में २० हजार वर्ग फ़ुट में बनाया जाएगा और इस पर लगभग १० करोड़ पाकिस्तानी रुपये ख़र्च किये जाएंगे। इस्लामाबाद हिंदू पंचायत ने इस मंदिर को नाम भी दे दिया, ‘श्रीकृष्ण मंदिर।’ हालांकि, इस मंदिर के लिए वर्ष २०१७ में ही ज़मीन दी गई थी। मंदिर का निर्माण कुछ सरकारी औपचारिकताओं की वजह से तीन साल से अटका पड़ा था। पाकिस्तान सरकार की योजना के तहत यह भी निर्णय लिया गया कि मंदिर परिसर में एक श्मशान स्थल भी होगा। इसके अलावा अन्य हिंदू मान्यताओं के लिए अलग जगह बनाई जाएगी। लेकिन वह पाकिस्तान ही क्या, जो बोले वही करे। पाकिस्तान की कट्टरपंथी संस्थाओं ने सरकार के मंदिर निर्माण के इस फ़ैसले का विरोध करते हुए इसे इस्लाम विरोधी क़रार दे दिया। पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने जब अपना विरोध तेज़ किया तब पाकिस्तान की इमरान खान सरकार के अधीन ‘राजधानी विकास प्राधिकरण’ ने क़ानूनी कारणों का हवाला देते हुए मंदिर के भूखंड पर चारदीवारी का निर्माण रोक दिया। नगर प्राधिकरण का तर्क था कि, भवन नियंत्रण कानून के तहत भवन की योजना के मानचित्र को मंज़ूरी मिलने के बाद ही मंदिर निर्माण किया जा सकता है। हास्यास्पद यह है कि यह क़ानून सिर्फ़ अल्पसंख्यकों पर लागू होता है, जबकि बहुसंख्यक कहीं भी मस्जिद और मदरसा बना सकते हैं।
पाकिस्तान में हिंदू सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, पाकिस्तान में ७५ लाख हिंदू रहते हैं। हालांकि, स्थानीय हिंदू समुदाय के दावे के अनुसार देश में हिंदुओं की आबादी लगभग ९० लाख से अधिक है। लेकिन मंदिर निर्माण को लेकर पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुसलमानों के कुछ तबक़ों ने इसका पुरज़ोर विरोध शुरू कर दिया। लाहौर की जामिया अशरफ़िया के एक फ़तवे में मंदिर बनाए जाने पर कड़ी आपत्ति की गई और इस फ़तवे को लेकर सोशल मीडिया पर भी ख़ूब बहस हुई। मुस्लिम धार्मिक तबक़ों के इस रवैये और विरोध की वजह से अल्पसंख्यकों में मायूसी फैल गई। एक सच यह भी है कि इस्लामाबाद में हिंदू मंदिर बनाने के क़दम को उदारवादी तबक़ों ने सराहा। पाकिस्तान का यह प्रगतिशील तबक़ा मंदिर के विरोध को सही नहीं मानता। इस स्थानीय बुद्धिजीवी मुस्लिम और ग़ैरर-मुस्लिम तबक़े का मानना है कि पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक सब नागरिक बराबर हैं और पाकिस्तान को लेकर पाकिस्तान के क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्नाह की यही अवधारणा थी। लेकिन पाकिस्तान सरकार को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा। देश का उदारवादी तबक़ा चाहता है कि ऐसे कट्टरपंथियों को जिन्नाह का ११ अगस्त, १९४७ का वह भाषण सुनना चाहिए जिसमें उन्होंने सभी नागरिकों को बराबर अधिकार देने की बात कही थी।
पाकिस्तान सरकार के इस रवैये पर पर समझदारों का चिंतित होना स्वाभाविक है। पाकिस्तान के मुस्लिम समुदाय को यह अच्छी तरह से पता है कि उनके मौलवी हज़रात पूरी दुनिया में तो मस्जिदें बना रहे हैं लेकिन पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को दबा कर रखना चाहते हैं। यह एक तरह का पाखंड और दोमुंहापन है। पाकिस्तान के कट्टरपंथियों को क्या यह नहीं पता कि यूरोपीय देशों में मौलवी हज़रात मस्जिदें और मदरसे बनाने के लिए वहां की सरकारों से तो मदद ले रहे हैं, जबकि पाकिस्तान में एक मंदिर बनाने पर इतना शोर मचा रहे हैं? पाकिस्तान सरकार का मंदिर निर्माण में सहयोग एक सकारात्मक क़दम समझा जाता, लेकिन जाहिल पाकिस्तानी अवाम ने इस मौक़े पर अपना कड़ा रुख दिखाकर अपनी रही सही इज्जत भी गंवा दी। जो मौलवी इसका विरोध कर अपनी सियासत चमका रहे हैं क्या वह इस बात का कोई जवाब दे सकते हैं कि पाकिस्तान सहित अन्य मुस्लिम देशों में जो मंदिर हैं वह किस आधार पर बने और अब तक क़ायम हैं? यह जानते हुए भी कि इस्लाम जब दीन में ज़बरदस्ती को सही नहीं मानता तब अल्पसंख्यकों की भावनाओं का अनादर कर किस इस्लाम की पैरवी की जा रही है?
बताते चलें कि पाकिस्तान के ही चकवाल ज़िले में सातवीं सदी में निर्मित प्रसिद्ध कटासराज मंदिर है। इस मंदिर परिसर में राम मंदिर, हनुमान मंदिर और शिव मंदिर ख़ास तौर से देखे जा सकते हैं। मुस्लिम मुल्क मलेशिया के गोमबाक स्थित बातु गुफ़ाओं में कई मंदिर हैं। मलेशिया में बड़ी संख्या में तमिल रहते हैं इसलिए उनकी भावनाओं की क़द्र करते हुए गुफ़ा के प्रवेश स्थल पर हिंदू देवता मुरुगन की विशाल प्रतिमा बनाई गई है। यह तो सब जानते हैं कि इंडोनेशिया भले ही दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश है, फिर भी वहां की संस्कृति में हिंदू तौर तरीकों की झलक पाई जाती है। वहां बड़ी संख्या में हिंदू मंदिर हैं। वहां का नौवीं सदी में निर्मित प्रामबानान मंदिर हिंदू सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र है। पाकिस्तान से ही अलग होकर बने बांग्लादेश की १६ करोड़ से ज़्यादा की आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी लगभग दस फ़ीसदी है। लेकिन वहां भी हिंदू आस्थाओं का मान रखा जाता है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका के ढाकेश्वरी मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। अविभाजित भारत का ही अंग रहे बांग्लादेश के विभिन्न हिस्सों में और भी कई मंदिर हैं। मुस्लिम देश ओमान के शिव मंदिर की ख्याति से प्रभावित होकर ही फ़रवरी २०१८ में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां की राजधानी मस्क़त के शिव मंदिर का भी दौरा किया था। मस्क़त में श्रीकृष्ण मंदिर और गुरुद्वारा भी मौजूद हैं। इस्लामी मुल्कों में सम्मानित संयुक्त अरब अमीरात के दुबई में भी शिव और कृष्ण मंदिर मौजूद है। अबु धाबी में भी पहला मंदिर बनाया जा रहा है जिसकी आधारशिला प्रधानमंत्री मोदी ने रखी थी। रोज़ी-रोज़गार की तलाश में बहुत से लोग भारत से मुस्लिम देश बहरीन जाते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में हिंदू भी शामिल हैं। उनकी धार्मिक आस्थाओं के मद्देनजर वहां शिव मंदिर और अय्यप्पा मंदिर बनाए गए हैं। हमेशा ही उथल-पुथल का शिकार रहे अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले हिंदुओं की संख्या काफ़ी कम है। इनमें ज्यादाज़्यादातर क़ाबुल या अन्य दूसरे बड़े शहरों में रहते हैं। उस अफ़ग़ानिस्तान के क़ाबुल में अब भी कई मंदिर देखने को मिल जाएंगे। मुस्लिम देश लेबनान के ज़ाइतून में भी हिंदू मंदिर मौजूद हैं, जबकि वहां हिंदुओं की संख्या बहुत कम है। इसके अलावा ईरान-इराक़ में भी हिंदुओं सहित अन्य धर्मों की इबादतगाहें मौजूद हैं। तो क्या यह इस्लामी देश पाकिस्तान से कम इस्लामी हैसियत रखते हैं? या पाकिस्तान का ख़ुदा इनसे अलग है?
पाकिस्तान को समझना होगा कि इस्लाम समानता, सहयोग, भाईचारा, समर्पण, त्याग, संतोष, क्षमा और बलिदान जैसी विशेषताओं की शिक्षा देता है। उसे समझना होगा कि कट्टरवाद किसी भी मुल्क के लिए घातक होता है। पाकिस्तान के अपने हिंदू भाइयों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले पाकिस्तान को समझना होगा कि असहिष्णुता और कट्टरवादी इस्लाम के प्रदर्शन की ऐसी पराकाष्ठा क्या इस्लाम धर्म को मान-सम्मान और इज़्ज़त बख़्शेगी? पाकिस्तान की जो ताक़तें ख़ुद को सच्चा मुसलमान या इस्लाम का सच्चा अनुयायी बता रही हैं क्या उन्होंने कभी ज़ालिम मुस्लिम शासकों के इतिहास को पढ़ने की ज़हमत उठाई है? काश वे इतिहास के उन पन्नों को भी पलटकर सबक़ ले सकते कि कट्टरपंथी मुसलमान शासकों के बलपूर्वक सत्ता संघर्ष के नतीजे में इस्लाम और आम मुसलमानों को अब तक कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है। पेशेवर इस्लाम विरोधी इतिहास की उन्हीं घटनाओं के आधार पर मुसलमानों के प्रति नफ़रत का रवैया रखते हैं। क्या अपनी कट्टरपंथी सोच से आज पाकिस्तान वही नहीं कर रहा। इस्लाम कमज़ोर को दबाने नहीं बल्कि उनके साथ खड़ा होने को प्राथमिकता देता है। किसी को भी उसकी मनचाही इबादत से रोकना इस्लाम के दृष्टिकोण से मना है। क्या पाकिस्तानियों को क़ुरआन की उन आयतों का जरा भी ज्ञान नहीं जिनमें कहा गया है, ‘ला इकराहा फ़िद्दीन’ (अल-क़ुरआन २:२५६) अर्थात, ‘धर्म के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं।’ और ‘लकुम दीनकुम वलीय दीन’ (अल-क़ुरआन १०९:६) अर्थात, ‘तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन, मेरे लिए मेरा दीन।’