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महिलाओं का अपमान- नहीं सहेगा सही इस्लाम / सैयद सलमान
Friday, July 10, 2020 12:04:36 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 10 07 2020 ​

मुस्लिम समाज में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को लेकर आज भी बहस की गुंजाइश बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि अन्य समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी हो, लेकिन मुस्लिम समाज का रूढ़िवादिता के प्रति अतिरिक्त समर्पण और उसके भीतर इस्लाम के नाम पर भरा गया कट्टरपंथी स्वभाव उनके भीतर न​ज़​र आता है। ट्रिपल तला​क़​, बहुविवाह और बढ़ती जनसंख्या जैसे मुद्दों पर मुस्लिम महिलाओं को लेकर मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। हालांकि इन सभी मुद्दों पर मुस्लिम समाज के पास ​क़ुरआन और हदीस में आए ऐसे अनेक उद्धरण हैं जिनसे इस्लाम का सही स्वरुप सामने आता है। लेकिन मौलवी ह​ज़​रात ने इस्लाम की जो व्याख्याएं कर रखी हैं उस से यही साबित होता है मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। वह भी यह तब है, जब मुस्लिम समाज का यह दावा है कि इस्लाम दुनिया का ऐसा पहला मज़हब है जिसने स्त्री को सर्वाधिक अधिकार दिए हैं। ​क़ुरआन में स्पष्ट है कि मानव अधिकारों के आधार पर स्त्री-पुरुष बराबर हैं। इस्लाम स्त्रियों को व्यापक रूप से सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनैतिक गतिविधियों में भी पुरुषों के सामान हिस्सा लेने के पूरे अधिकार देता है। फिर ऐसी क्या बात है कि मुस्लिम महिलाओं को लेकर आज भी 'बेचारी' जैसे शब्दों का प्रयोग होता है?

मुस्लिम समाज की मान्यताएं यही बताती हैं कि इस्लाम का उदय सातवीं सदी में अरब प्रायःद्वीप के मक्का में हुआ जो पैगंबर मोहम्मद साहब का जन्मस्थल है। मोहम्मद साहब का जन्म ५७० ईसवी में मक्का में हुआ था। लगभग ६१३ ईसवी के आसपास मोहम्मद साहब ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेश देना आरंभ किया था। हालांकि तब तक इस्लाम को एक नए धर्म के रूप में नहीं देखा गया था। मोहम्मद साहब की नबुव्वत का ऐलान होने से पहले अरब समाज में शराब​ख़ोरी, जुआ​ख़ोरी, लूटमार, वेश्यावृत्ति, बच्चियों के पैदा होने पर ​ज़िंदा द​फ़​ना देना जैसी कई बुराइयां मौजूद थीं। मोहम्मद साहब ने इन तमाम बुराइयों को दूर करने का काम किया और समाज में सभी को एक समान दर्जा दिया। मोहम्मद साहब ने बु​ज़ु​र्गों और महिलाओं को इज़्ज़त दिलाई और बच्चों को श​फ़क़​त ​बख़्शी। उन्होंने पैदा होते ही बच्चियों को ​दफ़्न किये जाने की प्रथा का पुर​ज़ोर​ विरोध किया और सफलता पाई। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ​पैग़ंबर साहब ने अरब में बच्चियों को जीवित रखने का वातावरण बनाया। उनकी अपनी बेटी हज़रत फ़ातिमा के साथ पिता-पुत्री के प्रेम का मुस्लिम समाज आज भी उदहारण देता है। लेकिन क्या बात है कि मुस्लिम बच्चियों को इतना आदर और सम्मान देने वाले मोहम्मद साहब की जन्मस्थली में ही मुस्लिम महिलाओं को अपना अधिकार पाने में सैकड़ों साल लग गए? यह सब ​क़ुरआन और हदीस की मन​मर्ज़ी​ से की गई व्याख्याओं के कारण ही हुआ। ​क़ुरआन तो औरतों का ​ज़ि​क्र करते हुए कहता है, "औरत प्रकृति की सबसे कोमल संरचनाओं में से एक है, इनसे व​ज़​न न उठवाओ। भारी-भरकम काम पुरुष करें और उन्हें चाहिए कि महिलाओं की हि​फ़ा​ज़त करें।"

महिलाओं का प्रतिनिधित्व या उन्हें सम्मानजनक स्थिति मिलने में इतने साल क्यों लगे यह तो सऊदी अरब के हुक्मरान ही बता सकते हैं, लेकिन कुछ उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि महिला प्रतिनिधित्व के मामलों में सऊदी अरब ने कब-कब और कौन से ​क़​दम उठाए। इस्लाम ने शिक्षा को सबसे ​ज़्यादा महत्व दिया है लेकिन सऊदी अरब में लड़कियों के लिए पहला स्कूल दार-अल-हनन १९५५ में खोला गया। उस से पहले तक कुछ ही लड़कियों को किसी भी तरह की शिक्षा प्राप्त करने का ​मौक़ा मिलता था। इसी तरह लड़कियों के लिए पहला सरकारी स्कूल १९६१ में खोला गया। लड़कियों के लिए पहली यूनिवर्सिटी 'रियाद कॉलेज ऑफ एजुकेशन' थी जो साल १९७० में खोली गयी। इसे देश में महिलाओं की उच्च-शिक्षा के लिए पहली यूनिवर्सिटी होने का गौरव प्राप्त हुआ। तेल के कुओं के ​ज़रिए अकूत धन कमाने वाले सऊदी अरब में महिलाओं को पहचान पत्र तक नहीं दिया जाता था। २१ वीं सदी में महिलाओं को पहचान पत्र देने की नई शुरूआत हुई। हालांकि यह पहचान पत्र महिला के अभिभावक की स्वीकृति से जारी किये जाते थे। ​ख़ैर, २००६ से बिना किसी की इजाज़त के महिलाओं को पहचान पत्र जारी किये जाने लगे। सऊदी अरब ने जबरन शादी पर २००५ में जाकर रोक लगाई। लेकिन विवाह प्रस्ताव लड़के और लड़की के पिता के बीच तय होना जारी रहा। इस्लामी, यूरोपीय, एशियाई, दक्षिण एशियाई या खाड़ी देशों के साथ तिजारती या सियासी मामलों में भले ही सऊदी अरब का द​ख़​ल रहा हो, लेकिन २००९ में जाकर राजा अब्दुल्लाह ने सऊदी अरब की सरकार में पहली महिला मंत्री नियुक्त किया। इस तरह नूरा अल-​फ़ैज़ महिला मामलों के लिए उप शिक्षा मंत्री बनीं। सऊदी अरब ने पहली बार २०१२ में महिला एथलीट्स को ओलंपिक की राष्ट्रीय टीम में हिस्सा लेने की अनुमति दी। इन खिलाड़ियों में सारा अत्तार थीं, जिन्होंने तब ओलंपिक खेलों में लंदन में स्कार्फ़ पहन कर ८०० मीटर की रेस में हिस्सा लिया। इतना ही नहीं सऊदी हुकूमत ने महिलाओं को २०१३ में पहली बार साइकिल और मोटरबाइक की सवारी करने की अनुमति दी।

ऐसे कई उदहारण हदीस शरी​फ़​ में मौजूद हैं कि, पैग़ंबर मोहम्मद साहब हज़रत ​ख़​दीजा और हज़रत आएशा सहित अपनी बेटी हज़रत फ़ातिमा के साथ अनेक मामलों में मशवरा किया करते थे। लेकिन आश्चर्य है कि लगभग १४०० वर्षों बाद ​फ़​रवरी २०१३ में, राजा अब्दुल्लाह ने सऊदी अरब की सलाहकार परिषद 'शूरा' में ३० महिलाओं को शपथ दिलवाई। इसके बाद इस समिति में महिलाओं को नियुक्त किया जाने लगा। २०१५ में सऊदी अरब के नगरपालिका चुनाव में पहली बार महिलाओं ने वोट डाला साथ ही उन्हें इन चुनावों में उम्मीदवार बनने का भी ​मौक़ा मिला। यह तो सभी जानते हैं कि मोहम्मद साहब की पत्नी हज़रत ​ख़​दीजा एक मशहूर और कामयाब व्यवसायी थीं, लेकिन मोहम्मद साहब के उसी देश की व्यावसायिक संस्था में किसी महिला को स्थापित होने में सदियां लग गयीं। फरवरी २०१७ में, सऊदी अरब स्टॉक एक्सचेंज ने सारा अल-सुहैमी के रूप में अपनी पहली महिला अध्यक्ष को नियुक्त किया। महिलाओं को सऊदी अरब में वाहन चलाने तक की अनुमति नहीं थी। सितंबर २०१७ में महिलाओं को ड्राइव करने की अनुमति दिए जाने की घोषणा करने के बाद, जून २०१८ से उन्हें गाड़ी चलाने के लाइसेंस मिलने शुरू हुए।

यह तो केवल एक बानगी है कि इस्लाम की, कुरआन की या मोहम्मद साहब की क्या सीख थी और मुस्लिम कट्टरपंथियों ने उसे क्या रूप दे दिया। ​क़ुरआन की ​ज़्यादातर आयतें महिला और पुरुष दोनों को संबोधित करते हुए हैं। ​क़ुरआन का दृष्टिकोण दोनों के लिए समान है। यह महिला और पुरुष में भेदभाव नहीं करता। ​क़ुरआन कहता है, "हमने महिला और पुरुष दोनों को एक समान आत्मा दी है, दोनों की महत्ता एक समान है।" मुस्लिम महिलाओं पर ​ज़ुल्म करने वाले दरअसल इस्लाम के वो ठेकेदार हैं जो नहीं चाहते कि मुस्लिम महिलाएं शिक्षित होकर इस्लाम को समझ सकें। इस बात को समझना होगा जब इस्लाम को किसी महिला के व​ज़​न उठाने पर ही ​ऐतराज़ है तो वह उस पर ​ज़ुल्म की इजाज़त कैसे दे सकता है। महिलाओं पर ​ज़ु​ल्म करने वालों का इस्लाम से कोई वास्ता नहीं हो सकता। ऐसे लोग अपने कारनामों को इस्लाम का हिस्सा बताकर इस पाक मज़हब को बदनाम करते हैं। अक्सर महिलाओं के संदर्भ में कोई भी बेतुका ​फ़​रमान जारी कर दिया जाता है और फिर उसे इस्लामिक ​फ़​तवे के नाम से प्रचारित किया जाता है। बाद में इसे ही इस्लाम का एक ​ज़​रूरी हिस्सा समझा जाने लगता है। दरअसल ऐसी किसी भी बात से इस्लाम का कोई तअल्लु​क़​ नहीं है जो मानव अधिकारों की रक्षा न करे। इस्लाम तो सज़ा​याफ़्ता​ ​क़ैदी के अधिकारों की भी बात करता है, फिर भला वह किसी भी आम पुरुष या महिला के खिला​फ़​ ​ज़ु​ल्म या ज़्यादती का हिमायती कैसे हो सकता है? इसलिए ​वक़्त का ​तक़ाज़ा है कि मोहम्मद साहब द्वारा बताई गई ​क़ुरआन की शिक्षा और उनके दौर में उनकी ​ख़ुद की ​ज़िंदगी में बीती घटनाओं जिन्हें सुन्नत कहा जाता है, उसे नए सिरे से समझा जाए। अभी ऐसे कई मामलात हैं जिन पर इस्लामी धर्मगुरुओं को पुनर्विचार और अध्ययन करने की ​ज़​रूरत है। ऐसा करते हुए ही सही इस्लाम दुनिया के सामने लाया जा सकेगा और समाज में फैली ​ग़​लत​फ़​हमियों से मुसलमानों को छुटकारा मिल सकेगा।