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लॉकडाउन, तिलावत और रमज़ान का सबक़ / सैयद सलमान
Friday, May 15, 2020 9:36:46 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना  15 05 2020 

कोरोना महामारी के दौरान चूंकि देश भर में लॉकडाउन है और लोग घरों में ही रहकर अपनी दिनचर्या पूरी कर रहे हैं। मज़दूर वर्ग, कई राज्य सरकारों की उनका ख़्याल रखने और राज्य न छोड़ने की अपील पर भी भरोसा न करते हुए सड़कों पर निकल आया है। कहीं सरकारी अनुमति से, कही जुगाड़ से और कहीं ख़ुद अपनी और अपने परिवार की जान जोखिम में डालते हुए अपने-अपने आबाई वतन जाने  के लिए कुछ न कुछ जतन ज़रूर कर रहा है। हज़ारों मील की लंबी सड़क उसने पैदल ही नाप लेने के ज़िद ठान ली है। कई लोग तो १५-२० दिन की पैदल यात्रा कर अपने 'मुलुक' पहुँच भी गए हैं। रास्ते में उनका सहारा बने अनेक समाजसेवी संगठन, जिन्होंने उनके नाश्ते, खाने, पीने और सुस्ताने का इंतज़ाम किया। संगठन की आर्थिक हैसियत भर कहीं टूटी चप्पल बदली तो कहीं जूते तक दिए। और यह संगठन किसी भी धार्मिक, सामाजिक या प्रांतीय भेदभाव के बिना काम कर रहे हैं। अनेक मुस्लिम समाजी संगठनों का कैंप देखकर भी अच्छा लगा। अच्छा इसलिए कि, शुरूआती दौर में मुस्लिम समाज के ही एक तबक़े पर कोरोना फैलाने का इलज़ाम लगा था। लेकिन समझदार बिरादरान-ए-वतन ने उस बात को ख़ारिज करते हुए एकता का दामन थामे रखा और भरसक ग़रीब, मजबूर, मज़दूर मुसलमानों की यथासंभव मदद भी की। देश के असली कर्णधार ऐसे ही लोग हैं। हालांकि माहौल बिगाड़ने की काफ़ी कोशिशें हुईं। सभी तो नहीं लेकिन अधिकांशतः नाकाम साबित हुईं, यह सुकून की बात है।

जो मुसलमान घरों में रहे उनके लिए रमज़ान बड़ी राहत बनकर आया। इस्लाम धर्म में रमज़ान की बड़ी महत्ता है। इस महीने में रब अपने बंदों के लिए रहमत और बरकत का द्वार खोल देता है। ईमान, नमाज़, हज, ज़कात के अतिरिक्त रोज़ा भी समस्त मुस्लिम समुदाय के लिए बहुत अहम है। जो लोग घरों में रहे, उन्होंने इबादत को ही अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया है और नमाज़ रोज़े के साथ तिलावत भी कर रहे हैं और तर्जुमा भी पढ़ रहे हैं। सही इस्लाम को जानने और समझने का यही असली तरीक़ा है। इस्लाम को समझने के लिए क़ुरआन का सहारा लेना चाहिए न कि उन मौलवियों की किताबों का जिनमें केवल क़िस्से-कहानियां और मनगढ़ंत इस्लामी मान्यताओं का ज़िक्र होता है जिसका कोई सबूत क़ुरआन या सही हदीस में नहीं मिलता। ऐसी ही किताबों और उद्धरणों को आधार बनाकर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता है और ख़ुद मुसलमान ऐसी किताबों के हवाले से ख़ुद को मुसलमान साबित करने में लग जाता है। सच्चाई यह है कि इस्लाम को एक धर्म के रूप में जाना तो जाता है, लेकिन इस्लाम के मूल स्रोत पैग़ंबर पर अवतरित हुई ईशवाणी क़ुरआन और पैग़ंबर के अपने कर्म और कथन के संकलन हदीस शरीफ़ में इस्लाम को धर्म, मज़हब या रिलीजन नहीं बल्कि इस्लाम को एक दीन या जीवन प्रणाली कहा गया है। इस्लाम के दीन होने का अर्थ यह है कि इस्लाम में ईश्वर के प्रति जो आस्था है उसके अनुसार पूरे जीवन का एक सिद्धांत होता है और उस सिद्धांत के अनुसार जीवन के हर मामले के लिए एक नियमावली बनी है। ईश्वर की गवाही, नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज को अपनाना उस नियमावली का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। मुसलमानों को उसी के अनुसार जीवन व्यतीत करना है। यह ख़ून-ख़राबा, ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती, यह जुआ-चकारी, शराब पीना, ब्याज का कारोबार कर ग़रीबों का ख़ून चूसना, कालाबाज़ारी करना या ऐसे कोई भी कार्य करना जो ग़ैर-इंसानी कार्य हो, कहीं से कहीं तक इस्लामी दायरे में नहीं आते। 

सबसे पहली चीज़ जो हमें इस्लाम में मिलती है, वह यह कि इस्लाम, इंसानों के इंसान पर कुछ हक़ और अधिकार मुक़र्रर करता हैं। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह हैं कि हर इंसान चाहे, वह हमारे अपने देश और वतन का हो या किसी दूसरे देश और वतन का, अपनी क़ौम का हो या किसी दूसरी क़ौम का, मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम, किसी जंगल का रहने वाला हो या किसी रेगिस्तान मे पाया जाता हो, बहरहाल सिर्फ़ इंसान होने की हैसियत से उसके कुछ हक़ और अधिकार हैं जिनको एक मुसलमान लाज़िमी तौर पर अदा करेगा और उसका फ़र्ज़ है कि वह उन्हें अदा करे। इस्लाम ने सभी को जीने का अधिकार दिया है। क़ुरआन कहता है, ‘किसी जान को हक़ के बगैर क़त्ल न करो, जिसे अल्लाह ने हराम किया हैं।’ (अल-क़ुरआन ०६:१५२) यहां भी क़त्ल की मनाही को ऐसे क़त्ल से अलग किया गया है जो हक़ के साथ हो, और हक़ का फ़ैसला बहरहाल कोई अधिकार रखने वाली अदालत ही करेगी। यह हुक्म तमाम इंसानों के बारे में है, न कि अपनी क़ौम या अपने मुल्क के शहरी, या किसी ख़ास नस्ल, रंग या वतन, या मज़हब के आदमी को देखकर क़त्ल करने की इजाज़त है। तो जब इस्लाम बेवजह बेवजह ख़ून-ख़राबे से ही मना कर रहा है तो फिर सारी बहस क्यों? उन मौलवियों की किताबों को किनारे रख दें जिसमें क़ुरआन और ज़ईफ़ हदीसों की ग़लत व्याख्या कर बात-बात पर जिहाद की बात कही जाती है। जिहाद जद्दोजेहद और संघर्ष को कहते हैं जो इंसान प्रतिदिन अपने सुखमय जीवनयापन के लिए करता है। उसमें ख़ून-ख़राबे की बात कहां से आ गई? जिहाद तो नफ़्स, बुराई और बेहयाई से होना चाहिए। जिहाद इल्म के लिए हो, जिहाद हलाल रोज़ी के लिए हो, जिहाद पाक-साफ़, अमन-अमान और परोपकारी जीवन जीने के लिए हो।

दीन-ए-इस्लाम अमन और सलामती का मज़हब है जो भाईचारे और मोहब्बत का पैग़ाम देता है, साथ ही यह समाज में फैलने वाली हर बुराई जैसे झूठ, चोरी, धोखेबाज़ी, रिश्वत, बेईमानी, बेहयाई, ज़िना और ज़ुल्म वग़ैरह को जड़ से ख़त्म करने का हुक्म देता है। इस्लामी तालीम के मुताबिक़ मुसलमान वो है जिसके हाथ से किसी मुस्लिम या ग़ैर- मुस्लिम की जान और माल महफ़ूज़ हैं। दीन-ए-इस्लाम और पैग़ंबर-ए-आज़म मोहम्मद साहब के बताए हुए सही रास्ते पर चलकर मुस्लिम समाज अमन-चैन हासिल कर सकता है, जिसकी आज दुनिया को बहुत ज़रूरत है। मोहम्मद साहब का फ़रमान है कि, 'अल्लाह उस पर रहम नहीं करता जो इंसानों पर रहम न करे।' क़ुरआन के सही मुतालआ करने से ज्ञात होता है कि दीन-ए-इस्लाम की हर प्रक्रिया को बिना किसी बाधा के पूरा किया जा सकता है। दीन-ए-इस्लाम में ज़बरदस्ती की सख़्त मनाही है। ज़बरदस्ती करना यह एक प्रकार का ज़ुल्म ही तो हुआ जिसकी क़ुरआन में सख़्ती से मुमानियत आई है। 

ज़रूरतमंद इंसान की मदद करना इस्लाम का बुनियादी उसूल है। इस्लाम की शिक्षा ग़रीब, बेसहारा, मजबूर की मदद करने का हुक्म देती है। मुसलमान अपने मुल्क से और उसकी एकता-अखंडता से मोहब्बत करे यही इस्लाम की सच्ची नसीहत है। वतन से मोहब्बत न करने वाला इंसान इस्लाम का अनुयायी नहीं हो सकता। इस्लाम और वतन से प्रेम एक सिक्के के दो पहलू हैं। मुसलमानों को अपनी नस्लों को अच्छी शिक्षा देने और मोहम्मद साहब के सिद्धांतों पर अमल करने की ज़रूरत है। क्या मुसलमानों को यह बात समझ में नहीं आती? मुसलमानों के विकास और कल्याण के लिए तालीम की बहुत अहमियत है। मुसलमानों के ज़िंदगी के सभी क्षेत्रों में पिछड़ने की एकमात्र वजह तालीम से दूरी है। मुसलमानों को जहां दीनी तालीम पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वहीं आधुनिक तालीम को भी अपनाने की ज़रूरत है। इल्म हासिल करना हर मुसलमान मर्द और औरत पर फ़र्ज़ है। इस्लामी शिक्षा के साथ-साथ अगर विज्ञान और तकनीक की शिक्षा पर ध्यान दिया जाए तो मानवता का कल्याण हो सकता है। कोरोना वायरस जैसी बीमारी का तोड़ भी ऐसी शिक्षा से हासिल होगा। यह वक़्त ऐसी ही कमियों को तलाश कर उन्हें दूर करने का है। लॉकडाउन और रमज़ान ने यह सबक़ मुस्लिम समाज को दिया है। क़ुरआन की सही सीख बेहद ज़रूरी है ताकि ग़ैर-इंसानी कृत्यों से दूर रहने की प्रेरणा मिले और जीवन को परोपकारी बनाया जा सके। आने वाली नस्लों को दीन-ईमान से जुड़ी नसीहतों पर अमल करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए ताकि इस्लाम को लेकर फैलाई गई ग़लतफ़हमियां भी दूर हों और शरारती तत्वों द्वारा फैलाया गया बेवजह का तनाव ख़त्म भी हो और सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ भी न पाए।