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‘साझा सत्य’ : समय की मांग / सैयद सलमान
Friday, May 8, 2020 12:55:00 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 08 05 2020

पवित्र रमज़ान का महीना चल रहा है। रमज़ानुल मुबारक के महीने में यूं भी इबादतें ख़ूब होती हैं। लेकिन महामारी कोरोना के चलते बढ़ाए गए लॉकडाउन के दौरान यह और भी बढ़ गई है। लोग घरों में रहकर ही इबादतों में मशग़ूल हैं। यह अच्छी बात है। मौक़ा मिलते ही सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफ़ॉर्म पर भी नज़र मार ली जाती है ताकि देश-जहान की वर्तमान स्थिति से अवगत हुआ जा सके। ख़ासकर लोगों की उत्सुकता कोरोना के मरीज़ों और मृतकों की संख्या जानने की होती है। ऐसे में अक्सर सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफ़ॉर्म पर मज़हबी धुरंधरों की फ़ौज एक दूसरे के धर्मों पर कीचड़ उछालने, एक दूसरे की बहन-बेटियों का चरित्रहनन करने उनको गाली देने में अपना कीमती वक़्त देती नजर आती है। भले ही उनके आसपास के मोहल्लों में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ रही हो, भले ही ऐसे लोग ख़ुद सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ा रहे हों, भले ही ऐसे लोग किसी भी समाजसेवी कार्य को करने से कतराते हों, लेकिन ऐसे असंख्य महानुभाव सोशल मीडिया के रणबांकुरे बने बैठे हैं और लाइक्स, शेयर, रीट्वीट जैसी आभासी दुनिया को ही अपनी लोकप्रियता का पैमाना और दुनिया की सबसे बड़ी असलियत समझ बैठे हैं।

ऐसे लोगों की मानसिकता शायद यही होती है मानो अपनी एक पोस्ट से इन्होने सैकड़ों ‘विधर्मियों’ को मौत के घाट उतारकर अपने धर्म पर उपकार किया है और अपने-अपने ईश्वर को प्रसन्न कर लिया है। लेकिन इन नादानों को नहीं पता भूख, मजबूरी, ग़रीबी, तंगदस्ती किसी भी धर्म की सीमा से परे होती है और इंसानियत की तलबग़ार होती है। उसे किसी धर्म से कोई वास्ता नहीं है। उसे बस अपने और अपने आश्रितों के पेट भरने की आस होती है। इन समस्याओं से जूझता शख़्स सारे प्रपंचों से दूर रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है। लेकिन शायद यह कड़वा सत्य विभिन्न दलों, संगठनों, व्यक्तियों द्वारा स्थापित आईटी सेल से प्रभावित सोशल मीडिया के योद्धाओं की समझ के बाहर की बात है।

पवित्र रमज़ान में रोज़े, नमाज़, तिलावत या अन्य इबादतों के बजाय नफ़रती सोशल मीडिया पर आकर गाली-गलौज में लिप्त मुसलमानों को क्या यह शोभा देता है? दूसरे धर्म पर उंगली उठाने से इस्लाम ने सख्ती से मना किया है। ‘ला इकराहा फ़िद्दीन’ (अल-क़ुरआन २:२५६) अर्थात, धर्म के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं। ‘लकुम दीनकुम वलीय दीन’ (अल-क़ुरआन १०९:६) अर्थात, तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन, मेरे लिए मेरा दीन। इन आयतों के पैमाने पर देखा जाए तो मुसलमानों को सनातन धर्म, हिंदू धर्म या अन्य किसी भी धर्म से कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। क़ुरआन में ईश्वर इंसानों से मुख़ातिब होकर कहता है, ‘या अय्यूहल इंसान मा ग़र्रका बिरब्बिल करीम’ (अल-क़ुरआन ८२:६) ऐ इंसान, तुम्हें अपने परवरदिगार के बारे में किस चीज़ ने धोखा दिया? यानि अपने रब को पहचानने के लिए मुसलमान होने की शर्त नहीं। एक ही रब की सब मख़लूक़ हैं। अनेक धार्मिक किताबों, भौगोलिक रेखाओं और ऐतिहासिक घटनाओं ने भले ही लोगों को बांट रखा हो मगर जो बात अकाट्य है वो किसी एक परमेश्वर का होना, जिस तक पहुंचने के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इंसानियत का रिश्ता अटूट है।

ऐसे में मुसलमानों को चाहिए कि वो दूसरे धर्म के आराध्यों के प्रति किसी भी प्रकार के अपशब्दों का इस्तेमाल न करें। ऐसा करना ख़िलाफ़-ए-इस्लाम, ख़िलाफ़-ए-पैग़ंबर, ख़िलाफ़-ए-क़ुरआन और ख़िलाफ़-ए-अल्लाह माना जाएगा, क्योंकि क़ुरआन कहता है, ‘और ख़ुदा के सिवा जिन्हें ये पुकारते हैं, तुम उनके प्रति अपशब्दों का प्रयोग न करो। ऐसा न हो कि वे हद से आगे बढ़कर अज्ञान वश ख़ुदा के प्रति अपशब्द का प्रयोग करने लगें।’ (अल-क़ुरआन ०६:१०८) और यह बात बिल्कुल सच प्रतीत होती दिखाई देती है, जब सोशल मीडिया पर अल्लाह और उसके रसूल के ख़िलाफ़ अश्लील चित्रों और नाज़ेबा कलिमात का धड़ल्ले से उपयोग होता है। ऐसे में बहस-मुबाहिसे से परहेज़ करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ बनता है। चुटकी भर का ज्ञान न होते हुए भी पहाड़ भर का अहंकार लेकर झूठी शान दिखाने से ख़ुद के मज़हब का ही मखौल उड़ता है। सवाल यह भी उठता है कि दूसरी तरफ़ से भी तो यही हो रहा है? तो जवाब यह है कि अभी इंसानियत ज़िंदा है और ऐसे लोगों को बड़ी संख्या में बिरादरान-ए-वतन ख़ुद जवाब दे रहे होते हैं। याद रखें अल्लाह पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है, ‘इन्नल्लाहा मअस साबिरीन’ (अल-क़ुरआन ०२:१५३) बेशक अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। इसलिए सब्र, धैर्य और नेकी का दामन थामे रखना भी हर मुसलमान का अख़लाक़ी फ़रीज़ा है। बहुत ज़्यादा हो जाए तो क़ानून का सहारा लें और सब्र बनाए रखें।

क्या ऊपर जिन आयतों का ज़िक्र किया गया है उससे यह ज्ञात नहीं होता कि मुसलमानों को कैसा होना चाहिए और मुसलमान होता कैसा जा रहा है? एक बात ज़रूर ध्यान में रखें कि यह बातें सिर्फ़ मुसलमानों के आचरण से संबंधित हैं न कि इस्लाम से। इस्लाम या कोई भी अन्य मज़हब जहां से निकला और जिस रूप में निकला, जैसा तब था वैसा अब भी है। हां, इस्लाम के साथ-साथ अन्य धर्मों के मानने वालों का चरित्र ज़रूर न तो इस्लामिक रह गया है न अन्य धर्मावलंबियों का उनके धर्म के मुताबिक़। इस्लाम की ‘वैश्विक बंधुत्व’ की भावना और सनातन धर्म की ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की शिक्षा एक जैसी है लेकिन इनके मानने वालों का आचरण आज वैसा नहीं रह गया है यह दुःख की बात है। एक बार अगर टीवी चैनल्स की बहस या सोशल मीडिया का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो सच दिखाई देगा। लेकिन धर्मांधता के ज़हर ने सोचने-समझने की सलाहियत को कुंद कर दिया है। ‘मैं ही सत्य हूं’ का गहरे तक बैठ गया भाव ही इस समस्या की जड़ है। मुस्लिम समाज द्वारा इस जड़ता को तोड़ने की पहल करना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है। पहल करने से ही दूसरी तरफ़ से भी सकारात्मक उत्तर के आने की आस रहेगी।

समानता, सहयोग, भाईचारा, समर्पण, त्याग, संतोष, क्षमा और बलिदान जैसी विशेषताओं का पाठ पढ़ाने वाले इस्लाम का लगता है कुछ धुर इस्लाम विरोधियों ने छुटभैये मुसलमानों की मदद से अपहरण कर लिया है। उसका मोहरा भी वही मुसलमान बने हैं जिनको सही इस्लाम की जानकारी नहीं है। वर्तमान दौर में इस्लाम के नाम पर इस्लाम को बदनाम और शर्मिंदा करने वाले घृणित अपराध उन लोगों द्वारा अंजाम दिए जा रहे हैं जो दुर्भाग्यवश ख़ुद को ही सच्चा और वास्तविक मुसलमान बता रहे हैं। कम से कम इस्लाम की तारीख़ में तो ऐसा अंधेर कभी देखने को नहीं मिला। जहां तक धर्म के सिद्धांतों का सवाल है जो क़ुरआन के मुताबिक़ बुनियादी या शाश्वत है और सभी धार्मिक परंपराओं में एक समान है, उनमें बदलाव की न तो कोई आवश्यकता है और न ही ऐसा करना ज़रूरी है। ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होना है। बल्कि ऐसा करने से सामाजिक दूरियां बढ़ने का भी ख़तरा बना रहेगा। सामाजिक एकता के लिए सही इस्लाम का अध्ययन मुसलमानों के लिए बेहद ज़रूरी है।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अपनी किताब ‘तर्जुमानुल क़ुरआन’ में लिखते हैं, ‘सत्य एक है और सभी परंपराओं में समान है, परंतु उसके आवरण अलग-अलग हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि दुनिया शब्दों की पुजारी है और अर्थ को अनदेखा कर देती है। सभी लोग एक परमेश्वर की उपासना करते हैं लेकिन उस परमेश्वर के अलग-अलग नामों को लेकर झगड़ते हैं।’ मौलाना आज़ाद इस साझी आध्यात्मिकता को ‘मुश्तरिक हक़’ अर्थात ‘साझा सत्य’ कहते हैं। इस सत्य की खोज का ज़िम्मा मुस्लिम समाज को उठाना होगा। बार-बार दूसरे पर ऊंगली उठाकर खुद को अलग करने से आम मुसलमानों को तकलीफ़ हो रही है। संवाद का मार्ग अपनाना समय की मांग है। दरअसल धर्म, मज़हब, पंथ का मक़सद एक ऐसी नफ़्सियाती रूहानियत और आध्यात्मिकता पैदा करना है जो ख़ुदाई शफ़क़त, ईश्वरीय करुणा और क़ुदरती ख़ूबसूरती की अक्कासी कर सके लेकिन हो इसके बिलकुल विपरीत रहा है। अफ़सोस की बात यह है कि मज़हब या धर्म, जो इंसानी इत्तेहाद पैदा करने का एक अहम ज़रिया है उसका इस्तेमाल इत्तेहाद को तोड़ने के लिए हो रहा है। तो फिर सवाल यह उठता है कि जिस साझा सत्य और धर्म के उद्देश्य की बात हो रही है उसे स्थापित कैसे किया जाए? उसे स्थापित करने के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों को नहीं इंसानों से प्रेम करने वाले इंसानों को आगे आना होगा। यह काम मुश्किल ज़रूर है लेकिन नामुमकिन क़त्तई नहीं है।