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रमज़ान की इबादत, मज़दूरों की मदद / सैयद सलमान
Friday, May 1, 2020 12:03:56 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान

साभार- दोपहर का सामना 01 05 2020

पूरा विश्व कोरोना वायरस के चपेट में है। वैक्सीन बनाए जाने की कोशिश हो रही है। इस बीच भारत की धरती पर भी इस वायरस ने लोगों की नींद उड़ा रखी है। चारों तरफ एहतियाती क़दम उठाए जा रहे हैं। सरकारें और समाजसेवी संगठन लोगों की यथासंभव सहायता करने में लगे हुए हैं। लॉकडाउन के कारण लगभग सभी धर्मों के त्योहार इस बार फीके-फीके ही बीते। इस बीच इस्लाम धर्म का पवित्र महीना रमज़ान भी शुरू हो गया। रमज़ान के पूरे महीने की रौनक़ कोरोना वायरस के कारण लगाए गए लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग की भेंट चढ़ गई।

उलेमा और मुफ़्ती हज़रात के अनुरोध और फ़तवों का बहुत हद तक असर भी हुआ है और मुस्लिम समुदाय घरों में ही रहकर रोज़ा, नमाज़, तिलावत जैसी इबादतें करने में लगा हुआ है। अपवाद ज़रूर हैं, लेकिन काफ़ी हद तक मुस्लिम समाज ने इस बात को समझ लिया है कि बाहर जाने का अर्थ है ख़ुद को, परिवार को और आस-पड़ोस को ख़तरे में डालना। इस डर और तब्लीग़ी जमात पर शुरूआती दौर में लगे आरोपों के मद्देनज़र मुस्लिम समाज में थोड़ी जागरूकता आई और इल्ज़ामों से बचने के लिए भी मुस्लिम समाज ने ख़ुद को घरों में क़ैद करना मुनासिब समझा। इस बीच तब्लीग़ी जमात के कोरोना पॉज़िटिव पाए गए सदस्यों की इलाज के बाद जब रिपोर्ट आनी शुरू हुई तो बड़ी संख्या में लोग ठीक होकर निगेटिव कैटेगरी में पाए गए। अधिकांश ने स्वेच्छा से अपना प्लाज़्मा देने की इच्छा जताई जिसका देश भर में बड़ा सकारात्मक असर हुआ। ऐसे में इस बीमारी के बीच सकारात्मक क़दमों का सिलसिला न रुकने देना मुस्लिम समाज की ज़िम्मेदारी बनती है।

इसी कड़ी में १ मई अर्थात 'मज़दूर दिवस' को भी सकारात्मकता की दिशा में एक क़दम आगे बढ़ा कर मनाया जा सकता है। कहने को तो मज़दूर दिवस १ मई १८८६ से मनाना शुरु हुआ जिसके इतिहास में रूस की मज़दूर क्रांति का अहम रोल है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि साढ़े चौदह सौ साल पहले पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने भी मज़दूरों के हुक़ूक़ तय कर दिए थे। हदीस 'सहीह इब्ने माज़ा' के अध्याय १९९५ के मुताबिक़ मोहम्मद साहब ने फ़रमाया कि, “मज़दूरों का पसीना सूखने से क़ब्ल उन्हें उनकी मज़दूरी दे दी जाए।” अर्थात जब मज़दूर काम कर ले, तो उसे बिना किसी टाल-मटोल या बहानेबाज़ी के उसकी मज़दूरी दी जाए। उन्होंने मज़दूरों के काम करने के मुनासिब वक़्त तय किए। यही नहीं अरबों में जब ज़ुल्म और अराजकता थी तब उन्होंने मज़दूरों के हुनर और वक़्त के मुताबिक़ उनका मेहनताना देने की बात कही। मोहम्मद साहब ने मज़दूरों की शारीरिक और मानसिक स्थिति के मुताबिक़ उनसे काम लेने का हुक्म दिया। जब बांदी-और ग़ुलाम रखने का प्रचलन था तब उस दौर में उन्होंने मज़दूरों को बंधुआ न समझते हुए उन्हें इज़्ज़त दिलाई, जो एक मज़दूर को मालिक से प्राप्त होनी चाहिए। बुख़ारी शरीफ़ की हदीस में पैग़ंबर साहब का फ़रमान है कि “तुम्हारे मज़दूर या मुलाज़िम तुम्हारे भाई हैं, बस अल्लाह ने तुम में से जिसके मातहत किसी भाई को किया है तो वह उसको वैसा ही खिलाए जैसा वह ख़ुद खाता है, उसको वैसा ही लिबास पहनाए जैसा वह ख़ुद पहनता है, और उसे वो काम करने को न कहे जिसे करने की उसकी क्षमता न हो और अगर ऐसा काम करने का कह भी दे तो ख़ुद उसका हाथ बंटाए।” इस हदीस के मुताबिक़ मज़दूरों के हक़ में कई बातें सिद्ध होती हैं। जैसे, मज़दूर की वित्तीय स्थिति का ध्यान रखना, मज़दूर की ताक़त से बढ़कर काम न लेना, मज़दूरों की इज़्ज़त, आत्मसम्मान और नफ़्स का ख़्याल रखना और मज़दूरों और मालिकों के बीच आला और अदना के फ़र्क़ को ख़त्म करना। अब सवाल उठता है कि हदीस शरीफ़ की इस सीख पर ईमानदारी से कितने मुसलमान अमल करते हैं?

सही इस्लाम की शिक्षा के अनुसार अल्लाह को वो निवाला पसंद है जो हलाल रिज़्क़ से प्राप्त किया गया हो। हलाल रिज़्क़ अगर मज़दूर कमाता है तो उसकी बरकत से मालिक की रोज़ी भी हलाल होती है। ऐसे में अगर मालिक मुसलमान है तो उसे बिना रंग, नस्ल, जाति या मज़हब की तफ़रीक़ के अपने मज़दूर का ख़्याल रखना ज़रूरी हो जाता है। क़ुरआन के मुताबिक़ “बेहतर मज़दूर जो तू रखे वो ताक़तवर और अमीन होना चाहिए।” यानि इस आयत में ताक़त से मुराद काम करने की सलाहियत से है चाहे वो काम मानसिक हो या शारीरिक। वो मज़दूर मालिक के मफ़ाद का और अमीन होना चाहिए और जो काम उसे सौंपा जाए वह उसे अमानत और दयानत से करने वाला होना चाहिए। यानि मज़दूरों के आदाब भी निश्चित किए गए हैं। ध्यान रहे इस्लाम की मान्यता है कि जो व्यक्ति अपने सेवकों तथा कामगारों से उनकी क्षमता के अनुसार काम करवाता है और ज़्यादा परेशानी वाला कार्य नहीं करवाता, इसी प्रकार वह कार्य नहीं करवाता जो उनकी स्वस्थ के लिए हानिकारक हो, तो अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल होती है। हदीस 'सहीह मुस्लिम' के अध्याय १८२९ में पैग़ंबर मोहम्मद साहब का फ़रमान है कि “सुन लो, तुम में से हर व्यक्ति ज़िम्मेदार है और प्रत्येक से उनकी ज़िम्मेदारी के प्रति प्रश्न किया जाएगा। जो शासक है वो लोगों के प्रति ज़िम्मेदार है और उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति प्रश्न किया जाएगा। व्यक्ति अपने परिवार का ज़िम्मेदार है और उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति उस से प्रश्न किया जाएगा। महिला अपने पति के घर और उसके बच्चों की ज़िम्मेदार है और उस से उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति प्रश्न किया जाएगा। और सेवक या मज़दूर अपने मालिक के माल का ज़िम्मेदार है और उस से उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति प्रश्न किया जाएगा। तो ध्यान रहे तुम में से हर व्यक्ति ज़िम्मेदार है और प्रत्येक से उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति प्रश्न किया जाएगा।”

यानि इस्लाम प्रत्येक व्यक्ति और समाज को अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी बहुत उत्तम रूप से अंजाम देने के लिए प्रोत्साहित करता है। अनेक मौलवियों की अनेक स्वविचारों से युक्त किताबों से अलग, सही इस्लाम न्याय पर आधारित धर्म है, जो समाज में पाए जाने वाले किसी भी वर्ग के लिए अत्याचार को पसंद नहीं करता। इस्लाम का अहम पहलू है दीन, दुनिया और आख़िरत। तीनों में सामंजस्य बिठाकर चलना हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है। इस्लाम में नेक काम के बदले ईश्वर की ओर से प्रतिसाद और आख़िरत में अच्छा बदला देने का वादा किया गया है। इस्लामी आदेशों और अधिकारों में मज़दूरों का अधिकार और हुक़ूक़ भी शामिल हैं यह मुसलमानों को नहीं भूलना चाहिए। मज़दूरों से काम तय करते समय उन्हें परेशानी और कष्ट में न डालना और मज़दूरों के आदर-सम्मान का पूरा ख़्याल करना भी हर सच्चे मुसलमान की ज़िम्मेदारी है। मज़दूरों के साथ उत्तम व्यवहार और सद्भाव से पेश आना सच्चे मुसलमान की पहचान है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मज़दूरों से उनकी शक्ति से अधिक काम न लिया जाए। मज़दूरों को पीटना या उन्हें बात-बात पर गाली देना या बुरा भला कहना भी ग़ैर-इस्लामी कृत्य है। मज़दूर भी इंसान होता है जिससे ग़लती और भूल-चूक हो सकती है, ऐसे में उसे बुरा-भला नहीं कहना चाहिए, बल्कि उसे माफ़ कर देना ही सच्चे मुस्लमान की निशानी है। जिसने भी मज़दूर का अधिकार न दिया, उस की मज़दूरी में कमी की या नाजायज़ तरीके से उसका हक़ खा लिया वह पाप का भागीदार है। अगर तयशुदा मुआहिदा से अधिक काम लिया गया, तो उसकी मज़दूरी अलग से देना या उस काम की पूर्ति में मदद करना भी इस्लाम की सीख में शामिल है।

इन सभी बातों को हर मुसलमान जानता और मानता तो है, लेकिन अमल करने से न जाने क्यों कतराता है। मज़दूर दिवस के बहाने वर्तमान परिस्थितियों में मुस्लिम समाज को इस्लाम के सही अर्थ को समझने की ज़रूरत है। जिस मोहम्मद साहब ने दुनिया में आला का अदना पर ज़ुल्म ख़त्म किया हो, क्या उनके उम्मती मज़दूर दिवस पर मज़दूरों की मदद करने को आगे नहीं आ सकते? महामारी के इस दौर में अनेकों मज़दूर अपने गांव-देश से दूर शहरों में फंसे हैं, मुस्लिम समाज को आगे आकर उनकी मदद करनी चाहिए। मुसलमानों के यहां अगर कोई ग़रीब मज़दूर काम कर रहा हो और लॉकडाउन में फंसा हो उसकी ज़रूरत पूरी करने के लिए उन्हें आगे आना चाहिए। मुस्लिम मालिकों को चाहिए कि वे अपने मज़दूरों की तनख़्वाह न काटें, वो जहां भी फंसे हैं उनकी मदद करें। अगर ख़ुद न पहुंच पा रहे हों तो प्रशासन की मदद लें। मज़दूर तबक़ा मज़दूर दिवस को धूमधाम से मनाता रहा है। वह आज परेशान है तो समाज की ज़िम्मेदारी बनती है कि उनके साथ खड़े हों। वह भी बड़ी आस से अपने मालिकों की तरफ़ देख रहे हैं। इस्लाम की सही शिक्षा का अनुसरण करते हुए रमज़ान के मुक़द्दस महीने में इन ग़रीब मज़दूरों की मदद और सेवा किसी इबादत से कम नहीं। आख़िर इन मालिकों का साम्राज्य इन्हीं मज़दूरों के दम पर ही तो क़ायम है।