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महामारी और मोहम्मद साहब का संदेश / सैयद सलमान
Friday, April 3, 2020 8:27:55 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
मन बहुत दुःखी है। चारों तरफ कोरोना वायरस का भय पसरा है। न्यूज़ चैनल से लेकर सोशल मीडिया में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या बताने की होड़ है। कोरोना से होने वाली मौत की संख्या दिनों दिन बढ़ रही है। कोरोना वायरस के साथ एक नाम और चर्चा में है जिसे तबलीग़ी जमात के नाम से जाना जाता है। जब से कोरोना के साथ तबलीग़ी जमात का नाम जुड़ा तब से कोरोना की भयावहता या उस से बचने के संदेशों की जगह समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ नफ़रत वाली बयानबाज़ी और सोशल मीडिया के सभी प्लेटफ़ॉर्म पर गाली-गलौज का बोलबाला है। दरअसल दिल्ली के निज़ामुद्दीन स्थित मरकज़ में तबलीग़ी जमात का इज्तेमा हुआ था। इसमें शामिल कुछ लोग कोरोना वायरस से संक्रमित पाए गए और अलग-अलग प्रदेशों में कईयों की मौत हो गई। इसके बाद से हर किसी की ज़ुबान पर तबलीग़ी जमात का नाम है। मरकज़, तबलीग़ और जमात के अलग-अलग मायने हैं। मरकज़ का मतलब होता है सेंटर यानि केंद्र और तबलीग़ का मतलब है अल्लाह और कुरान, हदीस की बात दूसरों तक पहुंचाना यानि प्रचार करना। जमात का मतलब होता है समूह यानि ग्रुप। सरल शब्दों में तबलीगी जमात का मतलब है आस्था का प्रचार करने वालों का समूह। तबलीग़ी मरकज़ का मतलब इस्लाम की बात लोगों तक पहुंचाने का केंद्र। जमात के लोग उन मुसलमानों तक पहुँचने का काम करते हैं जिन्हें क़ुरआन और हदीस से पूरी तरह वाक़फ़ियत नहीं है। यह लोग समूह बना कर मस्जिदों अथवा मदरसों में क़याम करते हैं और उस इलाके के मुसलमानों को इकठ्ठा कर उन्हें धार्मिक प्रवचन देते हैं। जमात के लोग घर-घर जाकर मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने, रोज़ा रखने, ज़कात देने, हज करने जैसे फ़राएज़ के साथ साथ नबी की सुन्नतों को अमल में लाने के लिए प्रेरित करते हैं और उन्हें अपनी जमात से जोड़ते हैं। पैग़ंबर की जीवनी से लेकर सहाबा कराम के संदेश को जमात के लोग मुसलमानों में प्रचारित करते हैं और दुनिया और आख़िरत का मामला समझाते हैं। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन कोरोना को लेकर विश्वभर में चल रही जागरूकता के बीच निजामुद्दीन मरकज़ में किया गया कार्यक्रम ९० वर्ष से अधिक समय से अर्जित की गई जमात की पूरी साख़ पर दाग़ लगा गया। तबलीग़ी जमात की लापरवाही पर सर पीटने के अलावा आम मुसलमान कुछ नहीं कर सकता।

अगर बात ताज़े विवाद की करें तो तबलीग़ी जमात फिलहाल कटघरे में है। तबलीग़ी जमात के मरकज़ में कोरोना संक्रमित लोगों के पाए जाने पर एक दूसरे पर दोषारोपण हो रहे हैं। कोरोना मामले में जमात को मान लेने में कोई हर्ज नहीं था कि उनकी तरफ से कोताही हुई। पत्राचार की आड़ लेकर खुद को सही बताना तकनीकी तौर पर सही हो सकता है, लेकिन नैतिक रूप से नहीं। प्रशासन की लापरवाही पर यहाँ कुछ लिखना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि उसकी कमियां तो जगजाहिर हो चुकी हैं। लेकिन, जब पूरा विश्व कोरोना को लेकर एहतियात बरत रहा था, तब जमात ने इतने बड़े आयोजन को क्यों नहीं टाला? जमात की हठधर्मिता और नादानी के बीच कोई नहीं पूछेगा की दिसंबर में कोरोना की आहट और जनवरी में भारत में कोरोना का मरीज़ पाए जाने के बाद फ़रवरी में लाखों लोगों की मौजूदगी में कैसे ट्रंप की आवभगत हुई। कोई नहीं पूछेगा कि संपूर्ण लॉक डाउन की घोषणा से पहले तक संसद की कार्यवाही क्यों चलती रही। कैसे एमपी में सत्ता परिवर्तन का खेल भीड़-भाड़ के साथ हुआ, कैसे यूपी के सीएम सार्वजनिक कार्यक्रमों में भीड़ के साथ हिस्सा लेते रहे। सवाल आप पर इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि आपने धार्मिक लबादा ओढ़कर यह कृत्य किया। निज़ामुद्दीन मरकज़ में वैसे भी हमेशा हज़ारों की भीड़ होती है, तो क्यों नहीं भीड़ को अपने-अपने अपने ठिकानों पर वापस लौटने का आदेश दिया गया। क्यों प्रशासन के आदेश की बाट जोहते रहे। यह किस प्रकार का धार्मिक हठ है? इसमें इस्लाम का सौंदर्य कहां है? मुसलमानों की अनेक धाराएं अपने आलिमों की किताबों और प्रवचनों के आधार पर धर्म की व्याख्या करती हैं, लेकिन जब धर्म की शिक्षा देते देते कोई समूह धर्मांध हो जाए, ख़ुद को सर्वोपरि मानने लगे, धर्म की शिक्षा लेने आने वाले आम मुसलमानों को अपनी जागीर समझने लगे, इस्लाम की बुनियादी शिक्षा से हटकर अपने अलग नियम क़ायदे लगाने लगे, क़ुरआन और हदीस से हटकर अपने मनगढ़ंत तर्कों को थोपने लगे तब यह ज़रूरी हो जाता है कि उन पर मुस्लिम समाज अपना रुख स्पष्ट करे।

पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद साहब दूरअंदेश थे। वह जानते थे कि आगे चलकर उनके उम्मती जिहालत का परिचय दे सकते हैं, इसलिए जब भी जैसे हालात बने उन्होंने उन हालात से निपटने की तरकीब भी बताई। मोहम्मद साहब ने ही बताया कि जब महामारी का प्रकोप हो, तब जो इलाक़े महामारी से प्रभावित हों वहां न जाएं और न ही दूसरी जगह का सफ़र करें जिससे लोग बीमार हों। उनको डराएं नहीं, उनकी हिम्मत बढ़ाएं। उनकी मदद करें यही हमारा सबसे बड़ा धर्म है। उन्होंने भारी वर्षा में ख़ाना-ए-काबा और ऐतराफ़ में पानी भर जाने की स्थिति में अपने सहाबियों और नमाज़ियों को घर पर ही नमाज़ अदा करने को कहा। उसके लिए बाक़ायदा अज़ान में मामूली सा परिवर्तन तक किया। हज़रत मोहम्मद साहब सर्दी की रातों में भी मुअज़्ज़िन को हुक्म देते थे कि, लोगों से अपने घरों में नमाज़ अदा करने का एलान करो। मोहम्मद साहब की पहल पर ही कठिन वक़्तों के लिए अज़ान के एक हिस्से 'हैया अलस्सलाह' यानि 'आओ नमाज़ की तरफ़' की जगह 'अस्सलाह फ़िर्रिहाल' यानि 'नमाज़ अपने घरों में पढ़ लो' का विशेष प्रावधान किया गया है। यानि इस्लामी शिक्षाओं में कठिन परिस्थिति के समय आसानी अपनाने और ख़तरे या नुक़सान से बचने के लिए सावधानी के उपाय अपनाने का आदेश दिया गया है और अपनी जानों को हलाकत में डालने से सख़्ती से मना किया गया है। तो क्या तबलीग़ी जमात अल्लाह के रसूल की इस शिक्षा से वाक़िफ़ नहीं होगी? तो फिर आख़िर क्यों कोरोना के ख़तरे को भांपते हुए तबलीग़ से जुड़े साथियों को सजग और जागरूक नहीं किया गया? कैसे लॉक डाउन के बाद भी जमात इकठ्ठा होकर नमाज़ पढ़ती रही? और ऐसी ज़िद कई जगह क्यों की जा रही है? महामारी से आमजनों को बचाने में सरकार को सहयोग करने से आख़िर इस्लाम के किस नियम ने रोका? इस्लाम में किसी भी नई चीज़ को जोड़ने को बिदअत कहा गया है। तो क्यों न ऐसे तमाम उलेमा को इस नज़रिये से कटघरे में खड़ा किया जाए जो इस्लाम को अपने हिसाब से हांकने की कोशिश कर रहे हैं?

जमात के ज़िम्मेदारों की लापरवाही से तबलीग़ी जमात के साथी तो महामारी की चपेट में आए ही, उन्होंने इस परेशानी में अपने परिजनों को भी डाला, अपने साथियों को भी डाला और समाज के हर तबक़े को इसकी ज़द में लाने का इलज़ाम भी अब उन्हीं पर लग रहा है जो काफ़ी हद तक सही है। यमुना विहार, नोएडा या फिर देश भर में अपने-अपने गांव जाने लिए सड़कों पर निकली भीड़ का हवाला देने से ख़ुद की ग़लतियों को कमतर नहीं कहा जा सकता। प्रशासन की कमियां बताकर भी ख़ुद को अब निर्दोष नहीं कह सकते। शायद इसी वजह से अब तबलीग़ी जमात पर मुसलमानों का उन्हीं के ख्यालों से जुड़ा तबक़ा नाराज़ है। लोग तबलीग़ी जमात के सरबराह मौलाना साद की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं। अल्लाह के रास्ते पर मुसलमानों को चलाने की मुहिम चलाने वाले मौलाना साद क्या यह स्वीकार करेंगे कि उन्होंने इतने लोगों को ख़तरे में डाला? हर मुसलमान को आतंकी और अब कोरोना बम बताकर उन्हें मार डालने की वकालत करने वाले कोई भी तर्क नहीं मान रहे न किसी की सुनने को तैयार हैं। आम मुसलमानों के प्रति भी उनकी नफ़रत खुलकर सामने आ रही है। मौलाना साद क्या बताएंगे कि इसका ज़िम्मेदार कौन है?

जब स्कूल और कॉलेज से जुड़े साथी वर्षों के प्रेम और सद्भाव को भुलाकर तबलीग़ी जमात के बहाने सोशल मीडिया समूह पर आम मुसलमानों के लिए कटाक्ष और नफ़रत भरी बोली बोलते हैं तो आँखों में बरबस ही आंसू आ जाते हैं। यक़ीन मानिये दिल ख़ून के आंसू रोता है। कुछ नादानों की ग़लती ने समाज में फैली जागरूकता और महामारी के भय को कब नफ़रत में तब्दील कर दिया पता ही नहीं चला। धर्म की आड़ में देश में कोरोना के बढ़ते ख़तरे की अनदेखी करते जमात के लोगों ने दूसरी तरफ़ के लोगों को ख़ुराक मुहैया करवा दी। वह भी वही कर रहे हैं। धर्म की आड़ में अपनी दबी नफ़रत निकालकर जाहिलों के कर्मों के लिए अब खुलकर पूरे मुस्लिम समाज को कोस रहे हैं। इस ध्रुवीकरण के खेल में पिसता मुस्लिम समाज तबलीग़ी जमात की इस मुर्ख हरकत को शायद ही कभी माफ़ कर पाए। मुसलमानों से अपेक्षा की जा रही है कि वह कम से कम थोड़ी समझदारी तो दिखाएं, ताकि उन्हें धार्मिक भेदभाव का शिकार न होना पड़े। उनके साथ समान व्यवहार किया जा सके, ताकि किसी एक के कारण बाकियों को नफ़रत न झेलनी पड़े। यहां के प्रगतिशील मुसलमानों को धर्म के नाम पर परोसे जा रहे हर पागलपन को रोकने की पहल करनी चाहिए। बिरादरान-ए-वतन भी इस बात को समझें। जब कोई जिंदा ही नहीं बचेगा तो फिर कौन सा धर्म, किसका धर्म, किसके अल्लाह और किसके भगवान। अपनी अक्ल के ताले खोलें, अल्लाह और भगवान के नाम पर अपना देश मत तबाह करें। आम मुसलमानों को बाबर, खिलजी और न जाने किन-किन इतिहास के पन्नों में खो चुके नामों के नाम पर मानसिक तौर पर प्रताड़ित न करें। मुसलमानों को भी समझना चाहिए कि कोरोना के लिए सरकार जो भी क़दम उठाए उसका साथ देने के बजाय मारपीट, बदतमीज़ी, गालियां, थूकना वग़ैरह जैसे कर्म कहीं से कहीं इस्लामी दायरे में नहीं आते। यह नबी के उम्मती नहीं कोई और लोग हैं जो कोरोना की जंग लड़ रहे लोगों के साथ ग़ैर इंसानी बर्ताव कर रहे हैं। और याद रखें, कोई भी ग़ैर इंसानी कृत्य कभी इस्लाम की नज़र में सही नहीं हो सकता।