साभार-दोपहर का सामना 24 01 2020
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी), और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर देश भर में आंदोलन हो रहे हैं, लेकिन दिल्ली का शाहीन बाग़ सबसे अधिक चर्चा में है। शाहीन बाग़ में पिछले एक महीने से अधिक समय से प्रदर्शन चल रहा है। दिल्ली-एनसीआर की कड़ाके वाली रिकॉर्ड तोड़ ठंड भी रुकावट बनने में नाकाम रही है। विषम परिस्थितियों में भी रात भर लोगों का धरना-प्रदर्शन पर डटे रहना आश्चर्यचकित करता है। ख़ासकर मुस्लिम महिलाओं का बड़ी संख्या में शामिल होना इस बात का सबूत है कि मुस्लिम महिलाओं में बदलाव की बेताबी है। घरेलू कामों और अन्य ज़िम्मेदारियों के बीच मुख्य रूप से बुर्क़ाधारी महिलाएं बड़ी संख्या में उस दिन से मौजूद हैं, जिस दिन से विरोध शुरू हुआ था। इस प्रदर्शन को चाहे किसी भी तरीक़े से देखें, मगर जिस तरह शांतिपूर्ण तरीक़े से लगातार यह प्रदर्शन चल रहा है, उसने ऐसी हलचल मचाई है, जिसका प्रभाव देशभर में पड़ा है। इस प्रदर्शन में मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी बताती है कि अब वे भी सामाजिक आंदोलनों में उतरने का मन बना चुकी हैं। बदलते समय, बदलते समाज, बदलते परिवेश और शिक्षा के बढ़ते महत्व के बीच भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने भी बंदिशों की बेड़ियों को झकझोरना शुरू कर दिया है।
सदियों से रीति-रिवाज के बंधनों में जकड़ी और अक्सर बेतुके फ़तवों की मार झेलती बुर्क़े में क़ैद मुस्लिम महिलाएं अब अपनी बात रखने का दमख़म रखती हैं। ट्रिपल तलाक़, हलाला, मज़ारों पर हाज़री जैसे मुद्दों पर भी मुस्लिम महिलाओं की अच्छी ख़ासी संख्या सड़कों पर उतर चुकी है, लेकिन राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर मुस्लिम महिलाओं का मुखर होना अचरज भरा है। मुद्दे की ग़लत या सही की परिभाषा में न पड़ते हुए अगर मुस्लिम महिलाओं के इस आंदोलन को देखा जाए तो यह बदलाव आने वाले समय में मुस्लिम महिलाओं के लिए मील का पत्थर साबित होगा। धर्म की नाजायज़ बंदिशों को तोड़ने के लिए मुस्लिम महिलाएं सड़क पर उतरने से गुरेज़ नहीं कर रही हैं। धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले क़ाज़ी के पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुस्लिम महिलाएं भी क़ाज़ी बन रही हैं। अफ़रोज़ बेगम और जहांआरा ने बाक़ायदा महिला क़ाज़ी की ट्रेनिंग ली है। नादिरा बब्बर, शबाना आज़मी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना क़िदवई जैसी कई ऐसी मुस्लिम महिलाएं भी हैं, जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर अपना अलग मुक़ाम बनाया है।
इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं को वैसे भी बड़े अधिकार दिए गए हैं। यह अलग बात है कि आम मुसलमान उस पर अमल नहीं करता। इस्लाम महिला अधिकारों के बारे में क्या कहता है, यह जान लेना वक़्त की ज़रूरत है। अक्सर इस मुद्दे पर भ्रम पैदा होता है। जब गुमराह तालिबानी विचारधारा के पोषक या कट्टरपंथी उलेमा महिलाओं के संदर्भ में कोई भी बेतुका फ़रमान जारी करते हैं, तब उस फ़तवे को तोड़-मरोड़ कर इस्लाम के बुनियादी उसूलों से जोड़ दिया जाता है। उसे इस्लामिक फ़तवे के नाम से प्रचारित किया जाता है। सही इस्लाम को न जानने वाले मुस्लिम औरग़ैर मुस्लिम भी अक्सर इसे इस्लाम का एक हिस्सा समझ लेते हैं जो सर्वथा ग़लत है। एक बात गांठ मार लेनी चाहिए कि, सही इस्लाम की शिक्षा में ऐसी किसी भी बात से इस्लाम का ताल्लुक़ नहीं है जो मानव अधिकारों की रक्षा न करे। इस्लाम तो सज़ायाफ़्ता क़ैदी के अधिकारों की भी बात करता है, फिर भला वह आम आदमी के ख़िलाफ़ ज़ुल्म का हिमायती कैसे हो सकता है। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं पर ज़ुल्म की बात करने वाला मुसलमान कैसे हो सकता है?
ट्रिपल तलाक़ को मुस्लिम महिलाओं पर सबसे बड़ा ज़ुल्म क़रार दिया जाता है, लेकिन यह इस्लाम की शिक्षा में नहीं है। सही इस्लाम की तलाक़ को लेकर परिभाषा ही अलग है। पैग़म्बर मोहम्मद साहब की एक हदीस है कि, 'अल्लाह ने जिन चीज़ों की इंसान को इजाज़त दी है, उसमें उसे सबसे ज़्यादा नापसंद तलाक़ है।' इस हदीस से सारी बात साफ़ हो जाती है। इस्लाम तलाक़ की इजाज़त तब देता है जबकि जीवनसाथी का तरीक़ा इस्लामी न हो, उसका बर्ताव अपमानजनक या निंदापूर्ण हो, वह आपके प्रति या परिवार के प्रति निर्दयी हो, ज़ालिम हो और कुछ अन्य। तलाक़ का मसला बहुत संवेदनशील है। सामान्य जीवन में उसका ख़्याल आना भी गुनाह माना गया है। पवित्र क़ुरआन के अनुसार औरत प्रकृति की सबसे कोमल संरचनाओं में से एक है, इनसे वज़न न उठवाओ। भारी-भरकम काम पुरुष करें और उन्हें चाहिए कि महिलाओं की हिफ़ाज़त करें। जब इस्लाम को किसी महिला के वज़न उठाने पर ही एतराज़ है तो वह उस पर ज़ुल्म की इजाज़त कैसे दे सकता है। जो लोग भी महिलाओं पर ज़ुल्म करते हैं, उनका वास्ता इस्लाम से नहीं हो सकता है। हालांकि वे अपने कारनामों को इस्लाम का हिस्सा बताकर इस पाक मज़हब को बदनाम करते हैं।
दरअसल इस्लाम को समझने के लिए सबसे पहले इसे संस्कृति विशेष और समाज विशेष की संरचना से अलग करके देखना ज़रूरी है। सऊदी अरब, मिस्र, ईरान, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामी मुल्कों में अगर कुछ लोग अपनी अलग शैली में जीवनयापन करते हैं तो इसकी वजह वहां की सामाजिक व्यवस्था, वहां की संस्कृति, वहां का भौगोलिक वातावरण वग़ैरह है, न कि इस्लाम। इस्लाम की दृष्टि से हर मनुष्य का जीने का अधिकार इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि पवित्र क़ुरआन ने इस अधिकार के हनन को इंसान और इंसानियत की हत्या के समान कहा है। इसीलिए इस्लाम ने युद्ध और रक्तपात को अस्वीकार्य बताया है। केवल विशेष परिस्थितियों में अपने देश, धर्म या पीड़ितों की रक्षा के लिए युद्ध को सही ठहराया है। इसी को जिहाद का नाम देकर बदनाम किया जाता है। हालांकि ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकार के युद्धों में भी आम नागरिकों, बंदियों, घायलों और यहाँ तक कि पशुओं और पेड़-पौधों के अधिकारों पर ध्यान देना भी इस्लाम में आवश्यक बताया गया है। लेकिन मज़हब के नाम पर अपनी दुकान चमकाने वाले धर्मगुरुओं और राजनेताओं ने इस्लाम की क़ुरआन और हदीस से अलग और ग़लत व्याख्या कर बदनाम कर दिया है, जिसका ख़ामियाज़ा आम मुसलमानों को भुगतना पड़ता है। दरअसल इस्लाम वह है ही नहीं जो आज के मुसलमानों को देखकर समझा जाता है।
अगर मुस्लिम महिलाओं की बात की जाए तो शाहीन बाग़ और देश के अन्य हिस्सों से आने वाली ख़बरें बता रही हैं कि, अब मुस्लिम महिलाओं को भी यह आभास हुआ है कि उन्हें मुखर होना होगा। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि, पहली उम्मुल मोमिनीन हज़रत ख़दीजा का व्यापार के क्षेत्र में ख़ुद में एक बहुत बड़ा और सम्मानित नाम था। हज़रत आयशा ने जंग में हिस्सा लिया था। हज़रत बीबी फ़ातिमा को तो महिलाओं की सरदार का लक़ब मिला हुआ है। तो क्या यह सब इस्लाम से बाहर की थीं? नहीं, बल्कि यह सभी पैग़म्बर मोहम्मद साहब के बताए इस्लाम का अनुसरण करती थीं। लेकिन आज के मौलवी हज़रात ने इस्लाम की अपनी नई परिभाषा गढ़ ली है। क़ुरआन की ज़्यादातर आयतें महिला और पुरुष दोनों को संबोधित करते हुए हैं। क़ुरआन का दृष्टिकोण दोनों के लिए समान है और यह महिला और पुरुष में भेदभाव नहीं करता। क़ुरआन कहता है, 'हमने महिला और पुरुष दोनों को एक समान आत्मा दी है, दोनों की महत्ता एक समान है।' शायद मुस्लिम महिलाओं ने अब जाकर इन बातों को समझा है। हालांकि मुद्दा शुद्ध राजनैतिक हो सकता है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं का सीएए, एनआरसी, एनपीआर के मुद्दे पर शांतिपूर्ण आंदोलन में उतरना स्वागतयोग्य है। लेकिन इन महिलाओं से यह उम्मीद भी की जाती है, कि वे सामाजिक और धार्मिक मामलों में जारी ग़लत कर्मकांडों और कुरीतियों के ख़िलाफ़ भी सड़कों पर उतरने से न हिचकिचाएं। ज़ेहन में इस बात को बिठा लें कि ज़माना बड़े अचरज लेकिन आशाओं के साथ मुस्लिम महिलाओं की ओर देख रहा है। उनकी उम्मीदों पर खरा उतरना अब मुस्लिम महिलाओं की ज़िम्मेदारी है।