साभार- दोपहर का सामना 27 12 2019
नसीम सिद्दीक़ी का एक शे'र है;
ज़ख़्म सुनते हैं लहू बोलता है,
चाक चुप है तो रफ़ू बोलता है.....
देश में आज इसी तरह की बेचैनी का आलम है। मुस्लिम समाज अजब कशमकश में है। एनआरसी, सीएबी, सीएए जैसे शब्दों के गूढ़ार्थ खोजते भ्रमित मुस्लिम समाज के सामने अचानक एनआरपी नाम का नया शगूफ़ा भी आ गया है। अविश्वास की इंतेहा यह है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के यह कहने के बावजूद कि, इस से किसी की नागरिकता ख़तरे में नहीं आएगी, कोई मानने को तैयार नहीं है। इसे राजनैतिक विरोध के रूप में कम, सरकार के प्रति अविश्वास भाव के रूप में ज़्यादा देखा जा रहा है। मुसलमानों में यह बात फैला दी गई है कि यह सभी क़ानून उनके ख़िलाफ़ है और मुसलमान भी यह मान ले रहा है, क्योंकि वह पहले से ही ख़ुद सरकार के साथ लाख कोशिश के बाद भी विश्वास का रिश्ता बना पाने में नाकाम रहा है। बीफ़ बैन, मॉब लिंचिंग, ट्रिपल तलाक़ जैसे मुद्दों से अभी ठीक से वह निकल पाता कि सीएए, एनआरसी जैसे मुद्दों में वह उलझ गया। देश भर में आंदोलनों का दौर जारी है। अब तो प्रति-आंदोलन भी शुरू हो गया है। यह स्थिति कब ठीक होगी कहा नहीं जा सकता। लेकिन एक बात तो सच है कि इन मुद्दों से भाजपा का कोई लाभ अभी तक तो नहीं हुआ है। इस गर्म माहौल में हुए झारखंड के चुनावी नतीजे इस बात का प्रमाण हैं।
मुस्लिम समाज को यह भय है कि उसके साथ दोहरी नीति अपनाई जा रही है। उसे दूसरे दर्जे का नागरिक बताया जा रहा है। वह अपने पूर्वजों का हवाला देकर अपनी राष्ट्रभक्ति साबित करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन सोशल मीडिया के दौर में यह मुमकिन नहीं हो पा रहा। इस क़दर नफ़रत का माहौल बन रहा है, जैसे सारे युद्ध सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर ही लड़े जाएंगे। मुस्लिम समाज को अजब-गजब संबोधनों से नवाज़ा जा रहा है। यही सोशल मीडिया की गंध समाज में पैर पसारती है। मुस्लिम समाज की कट्टरवादी छवि, उनका आक्रोश, उनकी हताशा, उनका दुःख अपने-अपने स्तर पर सामने आता है। वह राष्ट्रीयता, देशभक्ति और राष्ट्रनिर्माण में मुसलमानों की भूमिका को रखते-रखते थक जाता है, तब किसी भी ऐसे आंदोलन का हिस्सा बनने से ख़ुद को रोक नहीं पाता जहां उसे लगता है कि उसे अब विरोध करना चाहिए। यह भी सच है कि लगभग पूरे देश में हो रहा विरोध प्रदर्शन किसी एक दिशा में जाते नहीं दिख रहा और न ही कोई बड़ा मुस्लिम संगठन या मुस्लिम समाज का कोई बड़ा नाम इसका नेतृत्व करता दिख रहा है। फिर भी लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। ऐसे में हिंसा भी हुई है। अब तक १८ के क़रीब लोग इस आंदोलन की भेंट चढ़कर अपनी जान गंवा चुके हैं। लेकिन नतीजा अब भी सिफ़र है। हालांकि मुस्लिम रहनुमा, धर्मगुरु और बुद्धिजीवी वर्ग हिंसा को ग़लत ठहरा रहा है। लेकिन सवाल तो तब भी है कि, फिर यह हिंसा आख़िर हो कैसे रही है? जवाब की तह में जाने पर शायद जांच एजेंसियों के हाथ कोई ढंग का सुराग़ लगे।
यह तो सच है कि जंग-ए-आज़ादी में मुसलमानों ने अपना ख़ून बहाया था, बड़ी- बड़ी क़ुर्बानियां दी थीं। लंबे संघर्ष के बाद तब जाकर आज़ादी नसीब हुई। लेकिन मुसलमानों को हैरत इस बात की है, कि जिन मुसलमानों के पूर्वजों ने जंग-ए-आज़ादी में क़ुर्बानियां दीं, आज उन्हीं से बात-बात पर अपनी राष्ट्रीयता साबित करने के लिए कहा जा रहा है। उन्हें संदेह के नज़रिए से देखा जा रहा है। मुस्लिम समाज अपने लिए इसे दुर्भाग्यपूर्ण मानता है। मुसलमानों में इस भ्रम, आशंका और शक़ का निर्माण करने में उनकी ख़ुद की भी बड़ी भूमिका है। अशिक्षा और बेरोज़गारी की मार मुस्लिम समाज पर इस क़दर पड़ी है कि वह सामाजिक,आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर बुरी तरह पिछड़ गया है। बहैसियत एक मुसलमान और एक हिंदुस्तानी शहरी के, अक्सर मुसलमानों के दिलों में कहीं ना कहीं ये टीस उठती है कि, आख़िर मुजाहिदीन-ए-आज़ादी के नामों में उन अज़ीमुश्शान मुस्लिम मुजाहिदीन-ए-आज़ादी को क्यों शामिल नहीं किया जाता जिनकी जद्दोजहद के बग़ैर देश की आज़ादी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ब्रितानी हुकूमत के दौरान उन जेलनुमा अज़ाबख़ाने में सज़ायाफ़्ता उल्मा, फुज़्ला, मुफ़्तियों, मुस्लिम नवाबों और जागीरदारों ने कठोर सज़ाएं भुगतीं हैं। उन्होंने शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलीं हैं। लेकिन कभी उसका ज़िक्र नहीं किया जाता। धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों से ऐसी गर्वीली गाथाएं धूमिल पड़ती जा रही हैं।
मुसलमान ख़ुद को साबित करने की जद्दोजहद में है। उसका इतिहास उसके सामने है। साम्राजी हुकूमत के ख़िलाफ़ जेहाद का फ़तवा १८०६ में ही शाह अब्दुल अज़ीज़ ने दे दिया था। मौलाना क़ासिम नानौतवी, हाजी आबिद हुसैन, मौलाना रशीद अहमद गंगोही, मौलाना हुसैन अहमद मदनी जैसे उलेमा ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए लोगों में जागरूकता लाने का काम किया था। शिक्षा और तर्बियत के लिए दारुल उलूम देवबंद, जामिया क़ासमिया शाही मुरादाबाद, मज़ाहिर उल उलूम सहारनपुर वग़ैरह जैसे अज़ीमुश्शान तालीमी और तरबियती इदारों की बुनियाद रखी गई। मदरसों के ज़रिये जंग-ए-आज़ादी के लिए अवाम को बेदार किया गया। इन बुज़ुर्गों के नज़दीक साम्राजी हुकूमत के ख़िलाफ़ 'जिहाद' फ़र्ज़ था, जिसकी बुनियाद थी देशप्रेम। १९०४ में शेख़-उल-हिंद महमूद हसन ने 'रेशमी रुमाल' तहरीक शुरू की थी, जो १९१४ तक असरदार तहरीक बन गयी थी। लेकिन कुछ लोगों की ग़द्दारी की वजह से तहरीक नाकाम हो गई। तहरीक के रहबर मौलाना महमूद उल हसन और उनके दीगर बुज़ुर्ग साथियों को देश निकाला दे दिया गया। यही नहीं इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि लगभग ७० हज़ार उल्मा-ए-इकराम ने हंसते-हंसते अपनी जानें मुल्क-ए-अज़ीज़ पर न्योछावर कर दीं। मुसलमानों का मलाल यही है कि, आज अनेक सियासी और सत्ता पर क़ाबिज़ लोग मुस्लिम मुजाहिदीन-ए-आज़ादी की क़ुर्बानियों की अनदेखी कर रहे हैं। इतिहास के पन्नों में गुम हो चुके मुस्लिम क्रांतिकारियों को फिर से देशवासियों के सामने वापस लाकर देश को उनका बलिदान याद दिलाने की ज़रूरत है। यह तभी संभव होगा जब उनको साहित्य में शामिल किया जाए। यह तभी संभव होगा जब मुस्लिम समाज अपने हमवतन हिंदू भाइयों को साथ लेकर इस मक़सद से निकलेगा। मुस्लिम समाज संवाद का मार्ग खोले और हिंदुस्तानी भाइयों को यह समझाए कि मुसलमानों की देशभक्ति पर शक़ न करें। उन्हें समझाए कि हम अपने वतन से बेपनाह मुहब्बत करते हैं। हमें किसी के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं है। यह विश्वास अब भी हल्का-हल्का बरक़रार है, तभी तो सीएए और एनआरसी पर बड़ी संख्या में बहुसंख्यक समाज सड़कों पर उतर कर उनके साथ विरोध कर रहा है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि 'हिंदू-मुस्लिम भारत मां की दो आंखें हैं, एक में चोट लगी तो अंधे हो जाएंगे।' लेकिन बड़े अफ़सोस की बात है कुछ लोग उनकी कही बातों को भुला बैठे हैं। इन दोनों आँखों से अलग-अलग दिशा में देखने का माहौल बनाया जा रहा है। क्या यह मुमकिन है? क़त्तई नहीं। तो फिर भेद कहाँ है? क्या सच में हमने वतन के उन शहीदों को भुला दिया है, जिनकी क़ुर्बानियों के दम पर ही हमें आज़ादी नसीब हुई? शहीद अशफ़ाक़उल्लाह खान और रामप्रसाद बिस्मिल की दोस्ती हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल थी। क्या उनके आदर्शों को अपनाना समाज के लिए आज ज़रूरी नहीं हो गया है? हमें नफ़रतों को मिटाकर एकजुट होने से रोक कौन रहा है? दरअसल आती-जाती सरकारों और मुस्लिम समाज के साथ तुष्टिकरण करने वाली या उनके ख़िलाफ़ रही राजनैतिक पार्टियों ने मुसलमानों को उनको अधिकारों से वंचित रखने की हर कोशिश की, जिस से यह समाज राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ ही न पाए। आज उसका परिणाम सामने है। एनआरसी, सीएबी, सीएए और एनआरपी के नाम पर मुस्लिम समाज भ्रमजाल का शिकार बना, अपनी नागरिकता खो देने का डर पाले, समाज में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करता प्रतीत हो रहा है।