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अयोध्या- इतिहास की नई इबारत / सैयद सलमान
Friday, November 15, 2019 9:36:39 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना  15 11 2019 

चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से अयोध्या विवाद पर पिछले शनिवार, ९ नवंबर को अपना फ़ैसला सुना दिया। संविधान पीठ द्वारा ४५ मिनट तक पढ़े गए १०४५ पन्नों के फैसले ने देश के इतिहास के सबसे अहम और एक सदी से ज़्यादा पुराने विवाद का अंत कर दिया। ६ अगस्त २०१९ से सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर लगातार ४० दिन तक सुनवाई हुई। फ़ैसले के मुताबिक़ अयोध्या की २.७७ एकड़ की पूरी विवादित ज़मीन राम मंदिर निर्माण के लिए दे दी गई। शीर्ष अदालत ने कहा कि मंदिर निर्माण के लिए ३ महीने में ट्रस्ट बने और इसकी योजना तैयार की जाए। चीफ़ जस्टिस ने मस्जिद बनाने के लिए मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ वैकल्पिक ज़मीन दिए जाने का फ़ैसला सुनाया यानि विवादित ज़मीन का क़रीब दोगुना। चीफ जस्टिस के अनुसार ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है और हिंदुओं की यह आस्था निर्विवादित है। हिंदू संगठनों ने १८१३ में पहली बार बाबरी मस्जिद पर दावा किया था और उनका दावा था कि अयोध्या में बाबर ने १५२८ में राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई थी। इसके ७२ साल बाद यह मामला पहली बार किसी अदालत में पहुंचा था। महंत रघुबर दास ने १८८५ में राम चबूतरे पर छतरी लगाने की याचिका लगाई थी, जिसे फ़ैज़ाबाद की ज़िला अदालत ने ठुकरा दिया था। १३४ साल से तीन अदालतों में इस विवाद से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। भले ही फ़ैसला आने में वर्षों लग गए लेकिन फ़ैसले के बाद देश भर से एक सुर में यह आवाज़ उठी कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के संबंध में आम सहमति से दिए गए इस ऐतिहासिक फ़ैसले का सभी को सम्मान करना चाहिए। हिन्दू-मुस्लिम नेताओं, धर्मगुरुओं, बुद्धिजीवियों ने एक सुर में कहा कि यह फ़ैसला किसी की जीत और हार का नहीं है और सभी को शांति बनाए रखनी चाहिए।

फ़ैसले के तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने एक तरफ़ कहा कि, 'मीर बक़ी ने बाबरी मस्जिद बनवाई। धर्मशास्त्र में प्रवेश करना अदालत के लिए उचित नहीं होगा। बाबरी मस्जिद ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। मस्जिद के नीचे जो ढांचा था, वह इस्लामिक ढांचा नहीं था।' तो दूसरी तरफ़ यह भी कहा कि, 'अदालत अगर उन मुस्लिमों के दावे को नज़रअंदाज़ कर देती है, जिन्हें मस्जिद के ढांचे से पृथक कर दिया गया तो न्याय की जीत नहीं होगी। इसे क़ानून के हिसाब से चलने के लिए प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष देश में लागू नहीं किया जा सकता। ग़लती को सुधारने के लिए केंद्र पवित्र अयोध्या की अहम जगह पर मस्जिद के निर्माण के लिए 5 एकड़ ज़मीन दे।' इन दो पहलुओं के अलावा धर्म और आस्था पर भी कोर्ट की टिप्पणी मायने रखती है जिसमें कहा गया कि, 'अदालत को धर्म और श्रद्धालुओं की आस्था को स्वीकार करना चाहिए। अदालत को संतुलन बनाए रखना चाहिए। हिंदू इस स्थान को भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं। मुस्लिम भी विवादित जगह के बारे में यही कहते हैं। प्राचीन यात्रियों द्वारा लिखी किताबें और प्राचीन ग्रंथ दर्शाते हैं कि अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है। ऐतिहासिक उद्धरणों से संकेत मिलते हैं कि हिंदुओं की आस्था में अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है।' ऐसे में यह साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलों को गंभीरता से लिया और फ़ैसला भी उसी के आधार पर दिया। फ़ैसले में महत्वपूर्ण रही आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) की रिपोर्ट जिसके अनुसार मस्जिद के नीचे जो ढांचा था, वह इस्लामिक ढांचा नहीं था। ढहाए गए ढांचे के नीचे एक मंदिर था। कोर्ट ने कहा भी कि, पुरातात्विक प्रमाणों को महज़ एक ओपिनियन क़रार दे देना एएसआई का अपमान होगा।' हालांकि, एएसआई ने यह तथ्य स्थापित नहीं किया कि मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाई गई। लेकिन तथ्य तब भी वही थे कि मस्जिद ख़ाली जगह पर नहीं बनी थी।

मुस्लिम समाज ने इस फ़ैसले पर नपी-तुली लेकिन सकारात्मक प्रतिक्रियाएं दीं। एकाध राजनैतिक संगठनों को छोड़कर सभी ने फ़ैसले का एहतेराम किया और उसे सहर्ष स्वीकार कर हर तरह के विवाद को समाप्त कर दिया। वैसे भी मुस्लिम समाज की ज़िम्मेदार संस्थाएं और बुद्धिजीवी वर्ग शुरू से कहता आ रहा था कि सुप्रीम कोर्ट का जो भी फ़ैसला आएगा, वह उसे स्वीकार होगा। यूँ भी इस्लाम की मान्यता के अनुसार क़ब्ज़े की ज़मीन पर किसी मस्जिद की तामीर नहीं की जा सकती। यह शरई ऐतबार से ग़लत है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से मुसलमानों में भी यह पैग़ाम गया कि अगर ज़मीन का टाइटल ही ग़लत है तो मस्जिद का निर्माण भी भूल ही कहा जाएगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसी ज़मीन पर वर्षों तक नमाज़ पढ़ने की बुनियाद पर मस्जिद के लिए अयोध्या के भीतर ही वैकल्पिक ज़मीन देने की बात कहकर मुस्लिम समाज की भावनाओं का भी ख़्याल रखा। यही इस देश की ख़ूबसूरती है। यही इस देश के संस्कार हैं। उन्हीं संस्कारों का अक्स सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में नज़र आया जिसे मुसलमानों ने तहे दिल से स्वीकार भी किया। बातें तो यहाँ तक होने लगीं कि इस फ़ैसले के बाद हिंदुओं को मस्जिद बनाने में योगदान देना चाहिए और इसी तरह मुस्लिमों को भी राम मंदिर के निर्माण में योगदान देना चाहिए। यानी सुप्रीम कोर्ट का यह एक फ़ैसला देश की गंगा-जमनी तहज़ीब वाले मुल्क में ऐतिहासिक मौक़ा बन सकता है, जिसका फ़ायदा उठाते हुए हिंदू-मुस्लिम अपने बीच की वर्षों पुरानी कड़वाहट को भूलकर एक हो सकते हैं। एक बात और ध्यान देने की है कि अयोध्या में रह रहे बड़ी संख्या में मुसलमान बहुत पहले से दर्जनों मंदिरों से जुड़े हुए हैं और जिनके जीवनयापन का मुख्य ज़रिया उन छोटे कारोबार से पैदा होता है जो श्रद्धालुओं और स्थानीय हिंदुओं से जुड़ा हुआ है। सिर्फ़ अयोध्या में ही नहीं बल्कि देश भर में कई ऐसे कारोबार और काम-धंधे हैं जो हिंदुओं से जुड़े हैं। 

शुरू में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से संतुष्ट नहीं था, लेकिन बाद में उसने भी तय किया कि वह इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटिशन नहीं डालेगा। यहां तक कि मामले के सबसे महत्वपूर्ण पक्षकार इक़बाल अंसारी भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से ख़ुश हैं। ये वही इक़बाल अंसारी हैं जिनके पिता हाशिम अंसारी ने ७० साल तक इस मामले में मुक़दमा लड़ा, जिनकी ३ साल पहले ही मौत हो गई। उनके बाद इक़बाल अंसारी इस मामले के पक्षकार बने। वैसे इस फ़ैसले का एक पहलू यह भी है, कि ख़ुद मुस्लिम समुदाय इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाकर अपने लिए किसी प्रकार का विवाद नहीं बढ़ाना चाहता। मुस्लिम समाज इस बात को समझ रहा है कि कोर्ट-कचहरी में फंसे रहने और हिंदू-मुस्लिम की लड़ाई से कुछ हासिल नहीं होगा। वैसे भी पहले से ही अयोध्या मामला मुस्लिम समाज के जीवन में मुसीबत की तरह रच-बस गया है। देश के किसी भी विवाद में अगर हिंदू-मुस्लिम रंग देने की कोशिश होती है, तो हर बार यही मामला तूल पकड़ता रहा है। अब मुस्लिम समाज इन सब विवादों और भेदभाव से उकता गया है। अयोध्या विवाद ख़ुद उनके गले की हड्डी बना हुआ था। फ़ैसले के बाद अब मुस्लिम समाज के लिए भी इस विवाद से निकलकर रचनात्मक भविष्य बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ है। फ़ैसले से हिंदू-मुस्लिम एकता के इतिहास की नई इबारत लिखने का स्वर्णिम मौक़ा है और कोई भी मुसलमान इस मौक़े को गंवाना नहीं चाहता। ख़ासकर नई पीढ़ी के लिए यह फ़ैसला उनके लिए अतीत की कटुता भुलाकर और धार्मिक भेद से ऊपर उठकर राष्ट्रनिर्माण का अवसर लाया है। अब मुस्लिम समाज इस अध्याय को बंद कर वैचारिक और भावनात्मक रूप से रचनात्मक कार्यों में अपनी ऊर्जा लगाए तो बेहतर है। आख़िर कब तक कथित मुस्लिम रहनुमा और कथित सेक्युलर राजनेता उनकी भावनाओं के रथ पर अपनी सत्ता की सवारी का जुगाड़ करते रहेंगे।