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एक उम्मीद 'मुस्लिम फ़ैमिली लॉ' / सैयद सलमान 
Friday, September 20, 2019 8:45:53 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 20 09 2019

ट्रिपल तलाक़ के ख़िलाफ़ क़ानून बन जाने के बाद अब मुस्लिम महिलाओं का एक समूह ‘मुस्लिम फ़ैमिली लॉ’ लाने की मांग में जुट गया है। इनकी मांग है कि हिन्दू और ईसाई कानूनों की तरह मुस्लिम महिलाओं के लिए भी बराबरी सुनिश्चित की जाए। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने क़ानून मंत्री को पत्र लिखकर इस मुद्दे को हवा दी है। दरअसल ये महिलाएं चाहती हैं कि हिंदू और ईसाई विवाह क़ानून की तरह इसे भी एक क़ानूनी रूप दिया जाए ताकि सभी के लिए स्पष्टता रहे। उनका तर्क है कि लैंगिक न्याय और लैंगिक समानता के लिए मुस्लिम फ़ैमिली लॉ होना ज़रूरी है। ग़ौरतलब है कि, हिन्दू मैरिज एक्ट और ईसाई मैरिज एक्ट, दोनों ही संसद की ओर से पास किए गए है और संशोधित भी किए गए हैं। लेकिन मुस्लिम महिलाओं को अभी तक क़ानूनी बराबरी हासिल नहीं हुई है। क़ुरआन में महिलाओं को मेहर, संपत्ति और तलाक़ के अधिकार दिए गए हैं, लेकिन इन अधिकारों के संरक्षण के लिए कोई क़ानून नहीं है। 

बात करते हैं संपत्ति अधिकार की। भारतीय संविधान का आर्टिकल १४ सभी नागरिकों को समानता का हक़ देता है। हमारे देश की संवैधिक संरचना में सामाजिक और क़ानूनी ताक़तों के बीच हिंदू, मुस्लिम और ईसाइयों के कुछ निजी क़ानून भी हैं, जिसमें संपत्ति के अधिकार भी शामिल हैं। लेकिन हिंदू और ईसाईयों की तरह मुसलमानों के संपत्ति अधिकार अभी तक सूचीबद्ध नहीं है। वैसे भी मुस्लिम समाज के कई फ़िरक़ों में उनकी अपनी मान्यता के अनुसार शरई क़ानून चलता है। ट्रिपल तलाक़ के मसले में इसका अनुभव किया जा चुका है। अधिकतर मुस्लिम क़ानून की दो अलग-अलग धाराएं शिया-सुन्नी विचारधारा से चलती हैं। भारत में बड़ी आबादी सुन्नी मुसलमानों की है। उसमें भी बड़ी संख्या में हनफ़ी मसलक के मुसलमान हैं। हनफ़ी मसलक सिर्फ़ उन रिश्तेदारों को वारिस मानता है जिनका पुरुष के माध्यम से मृतक से सीधा संबंध हो, जैसे कि बेटे की बेटी, बेटे का बेटा और माता-पिता इत्यादी। जबकि अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित कहे जाने वाले शिया विचारधारा में ऐसा कोई भेदभाव नहीं है। इसका मतलब है कि जिन वारिसों का मृतक से संबंध महिलाओं के ज़रिए है, उन्हें भी अपना लिया जाता है। 

बेटियों को लेकर मुस्लिम महिलाओं के लिए विरासत के कुछ सामान्य नियम-क़ानून हैं, जो काफ़ी सख़्त हैं। मुस्लिम समाज में महिलाओं को पुरुष का आधा अधिकार होता है, इसलिए बेटों को बेटी के हिस्से से दोगुना मिलता है। यानि बेटी को अगर एक हिस्सा मिलता है तो बेटों को दो हिस्सा मिलेगा। लेकिन बेटी को जो भी संपत्ति विरासत में मिलेगी, उस पर उसका पूर्ण अधिकार होगा। अगर कोई भाई नहीं है तो उसे आधा हिस्सा मिलेगा। वह अपनी मर्ज़ी से क़ानूनी तौर पर उसका प्रबंधन, नियंत्रण और निपटारा कर सकती है। वह उन लोगों से तोहफ़े अथवा गिफ़्ट्स भी ले सकती है, जिनसे उसे संपत्ति हासिल होगी। कुछ लोगों को यह बात खटकती है कि पुरुष के हिस्से का केवल एक-तिहाई हिस्सा प्राप्त कर सकने या ले लेने के बावजूद बिना किसी परेशानी के वह तोहफ़े भी ले सकती है जिसमें ज़मीन-जायदाद शामिल हैं। जब तक बेटी की शादी नहीं होती, उसे माता-पिता के घर में रहने और सहायता पाने का अधिकार भी होता है। लेकिन तलाक़ के मामले में इद्दत की अवधि, यानि तक़रीबन तीन महीने के बाद रख-रखाव का शुल्क उसके माता-पिता के पास वापस चला जाता है। लेकिन अगर महिला के बच्चे उसकी देखरेख करने की स्थिति में हैं तो ज़िम्मेदारी उन पर आ जाती है।

मुस्लिम समाज में पत्नी को लेकर संपत्ति के बंटवारे का शरई ऐतबार से भी बाक़ायदा कुछ सख़्त नियम और क़ानून हैं। पति की मृत्यु के मामले में विधवा को और अगर उसके बच्चे हैं तो एक हिस्से का आठवां हिस्सा मिलेगा। अगर बच्चे नहीं हैं तो एक चौथाई हिस्सा मिलेगा। वहीं अगर मृतक की एक से ज़्यादा पत्नियां हैं तो हिस्सा एक के सोलहवें हिस्से तक घट जाता है। शरीयत में बेटी और पत्नी के अलावा मां की भी हिस्सेदारी तय की गई है। अगर बच्चे अपने पैरों पर खड़ें हैं तो मुस्लिम माता को उनसे विरासत पाने का हक़ है। अगर बेटे की मौत हो जाए और उसके बच्चे भी हैं तो मृतक की मां को उसकी संपत्ति का एक में छठवां हिस्सा मिलेगा। लेकिन अगर पोते-पोतियां नहीं हैं तो महिला को एक-तिहाई हिस्सा मिलेगा। क़ानून में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जिसमें मुस्लिम महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित की गई है जिनमें तलाक़शुदा महिलाओं को मिलने वाली मेहर की रक़म भी है। यह वो पैसा या संपत्ति होती है, जो शादी के वक़्त पत्नी अपने पति से पाने की हक़दार होती है। मेहर दो तरह की होती है, एक जो तुरंत अदा कर दी जाए या फिर दूसरा तरीक़ा यह है कि शौहर उसे बाद में अदा करे। पहले मामले में पत्नी को शादी के तुरंत बाद तयशुदा रक़म या संपत्ति दे दी जाती है। अक्सर दूसरे मामले में शादी ख़त्म होने के बाद मेहर की रकम या संपत्ति मिलती है, चाहे वह तलाक़ के कारण हो या पति की मौत की वजह से। 

मुस्लिम महिलाओं को वसीयत के ज़रिए भी धन या संपत्ति मिलती है। हालांकि शरीयत के मुताबिक़ कोई भी मुस्लिम पुरुष या महिला कुल संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा ही वसीयत के ज़रिए दे सकते हैं। अगर संपत्ति में कोई वारिस नहीं है तो पत्नी को वसीयत के ज़रिए ज़्यादा राशि मिल सकती है। मुस्लिम समाज में 'हिबा' के द्वारा भी मुस्लिम महिलाओं को धन या संपत्ति मिलती है। मुस्लिम कानून में हिबा के तहत किसी भी तरह की संपत्ति को तोहफ़े के तौर पर दिया जा सकता है। सबसे बड़ी बात मुस्लिमजनों को हिबानामा यानि उपहार में दी या ली गई भूमि के दस्तावेज़ पर स्टैंप ड्यूटी भी नहीं देनी होती। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष २०११ में जारी एक आदेश के अनुसार हिबानामा चाहे लिखित हो या मौखिक उस पर स्टॉम्प ड्यूटी नहीं ली जा सकती और उसे पंजीकृत कराना भी आवश्यक नहीं होता। बस शर्त इतनी है कि तोहफ़े या गिफ्ट को वैध बनाने के लिए उसे तोहफ़ा बताने की घोषणा होनी चाहिए और रिसीवर द्वारा उसे स्वीकार किया जाना चाहिए।

पवित्र क़ुरआन और हदीस में बेशक़ महिलाओं को बहुत सम्मान दिया गया है, लेकिन यथार्थ के धरातल पर ऐसा नहीं है। चंद मौलवियों ने कुतर्कों के आधार पर मुस्लिम महिलाओं को वह सम्मान नहीं लेने दिया, जिसकी वह सचमुच क़ुरआन और हदीस की रौशनी में हक़दार हैं। ऐसे ही मौलवियों के मनगढंत तर्कों को आम मुसलमानों ने भी अपना लिया। अब मुस्लिम महिलाएं चाहती हैं कि उन्हें भी वह सब क़ानूनी हक़ मिलना चाहिए जो संविधान के अंतर्गत आता है और इस्लाम के दायरे में भी। मुस्लिमों के लिए सिर्फ़ १९३७ का शरिया क़ानून है जो अंग्रेज़ों के समय का है। आश्चर्यजनक रूप से उस क़ानून में संसद ने आज तक कभी सुधार नहीं किया। उस क़ानून में विवाह, तलाक़ और उत्तराधिकार को लेकर दिए गए क़ानूनों में असमानता है और उनका एक स्पष्ट क़ानूनी रूप नहीं है। ज़मीनी स्तर पर मुस्लिम समाज दकियानूसी मौलवियों के बताए अनुसार अपनी-अपनी मान्यताओं और सहूलियत के हिसाब से उनके मतलब निकाल लेता है। इससे महिलाओं को न्याय मिल पाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में ‘मुस्लिम फ़ैमिली लॉ’ के सहारे मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिलने की उम्मीद है।