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आशूरा विशेष: इमाम हुसैन की शहादत को याद करने का दिन 'आशूरा' / सैयद सलमान और जावेद अहमद
Tuesday, September 10, 2019 2:16:47 PM - By सैयद सलमान और जावेद अहमद 

क्या जलवा कर्बला में दिखाया हुसैन ने, सजदे में जा कर सर कटाया हुसैन ने…
क्या जलवा कर्बला में दिखाया हुसैन ने,
सजदे में जाके सर कटाया हुसैन ने,
नेज़े पे सिर था और ज़ुबां पर आयतें,
क़ुरआन कुछ इस तरह सुनाया हुसैन ने....

इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम महीने की पहली तारीख को नया साल हिजरी शुरू होता है। मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का वह महीना है, जिसे इस्लाम के पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। मुहर्रम का पूरा महीना सत्य, इंसाफ़ और नेक राह पर चलने वाले हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद दिलाता है। ख़ासकर आशूरा का दिन हमें इंसानियत की रक्षा के लिए स्वयं और स्वजनों तक के बलिदान देने के उच्चतम आदर्शों की शिक्षा भी देता है। मुहर्रम के 10वें दिन को आशूरा कहा जाता है। यह दिन इमाम हुसैन, हजरत अली के बेटे और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब के नाती की शहादत के शोक के रूप में जाना जाता है। यह महीना न्याय और मानवीयता के लिए संघर्षरत हज़रत मुहम्मद के नवासे हज़रत हुसैन इब्न अली की कर्बला की जंग में उनके 72 परिजनों और दोस्तों के साथ हुई शहादत को याद करने का दिन होता है। सब कुछ लुटाकर भी कर्बला में इमाम हुसैन ने सत्य के पक्ष में अदम्य साहस की जो रौशनी फैलाई, उस रौशनी से आज तक दुनिया रौशन हो रही है। गौरतलब है कि मुहर्रम हर साल बदलता रहता है, क्योंकि इस्लामिक कैलेंडर चंद्रमा के चरणों के अनुसार चलता है। हज़रत हुसैन इराक़ के शहर कर्बला में वहां के तत्कालीन विवादित ख़लीफ़ा यज़ीद की फ़ौज से लड़ते वक़्त शहीद हुए थे।

अनेक मुस्लिम इतिहासकारों के मुतबिक़ यज़ीद जब शासक बना तो उसमें तमाम तरह के अवगुण मौजूद थे। वह चाहता था कि इमाम हुसैन उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि करें और उनके हाथों पर बैत ले लें। लेकिन इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के वारिसों ने उसे इस्लामी शासक मानने से साफ़ इनकार कर दिया था। ऐसे में इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर अपने परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक़ जा रहे थे। इमाम हुसैन जब कर्बला पहुंचे तो वहां उनको यजीद के लश्कर ने घेर लिया। यज़ीद के सेनापति उमर इब्ने साद ने इमाम हुसैन से कहा कि अगर वह यज़ीद की बात नहीं मानेंगे तो उनके बच्चों, दोस्तों, रिश्तेदारों सबको क़त्ल कर दिया जाएगा। लेकिन इमाम हुसैन ने यज़ीद नकी शर्तों को मानने से इनकार कर दिया। यह घटना एक मुहर्रम की बताई जाती है। 7 मुहर्रम तक इमाम हुसैन और उनके अनुयायियों के पास मौजूद खाना-पानी ख़त्म हो गया। बच्चे और औरतें तीन दिन तक गर्मी व प्यास से तड़पते रहे। इसमें इमाम हुसैन का 6 महीने का मासूम बच्चा अली असगर भी शामिल था। भूख-प्यास से एक मां के सीने का दूध खुश्क हो गया। इसके बाद 7 से 10 मुहर्रम तक हुसैन व उनके साथी भूखे-प्यासे रहे थे। इस तपते रेगिस्तान में पानी का एकमात्रस स्त्रोत फ़रात नदी थी। इस नदी पर यज़ीद की फौज़ ने पहरा बिठा दिया। यहाँ तक कि इमाम हुसैन के काफ़िले का पानी तक रोक दिया गया था। दस मुहर्रम यानि आशूरा के दिन तक इमाम हुसैन ने अपने 72 साथियों को हक़ पर क़ुर्बान कर दिया, लेकिन ज़ुल्म के आगे नहीं झुके। इमाम हुसैन ने एक दिन में 72 लाशें उठाईं। यह यज़ीदी लश्कर के ज़ुल्म की इंतेहा ही कही जाएगी जब इमाम हुसैन के महज 6 महीने के मासूम बेटे अली असग़र, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे क़ासिम (हसन के बेटे) को भी बड़ी बेरहमी से शहीद कर दिया गया। ज़ुल्म यहीं नहीं रुका बल्कि यज़ीद की फ़ौज ने पैग़म्बर मोहम्मद के प्यारे नवासे इमाम हुसैन को नमाज़ पढ़ते वक़्त सजदे में ही बड़ी बेहरमी से क़त्ल कर दिया।यूँ ही नहीं जहाँ में है चर्चा हुसैन का,

कुछ देख कर हुआ था ज़माना हुसैन का,
सर दे के दो जहाँ की हुकूमत खरीद ली,
महंगा पड़ा याजिद को सौदा हुसैन का.... 

जंग में इमाम हुसैन अल्लाह के नाम पर क़ुर्बान तो हो गए लेकिन उन्होंने अपने नाना पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब द्वारा सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त कर ली।इमाम हुसैन और यज़ीद के बीच हुई जंग में इमाम हुसैन ने मात्र 72 लोगों के साथ मिलकर 8000 सैनिकों का सामना किया था। मोहर्रम में मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन की इसी शहादत को याद करते हैं। हज़रत इमाम हुसैन का मक़बरा इराक़ के शहर कर्बला में उसी जगह है जहां ये जंग हुई थी। ये जगह इराक़ की राजधानी बग़दाद से क़रीब 120 किलोमीटर दूर है जिसे बेहद पवित्र और सम्मानित स्थान माना जाता है।कौन भूलेगा वो सजदा हुसैन का,

ख़ंजरों तले भी सर ना झुका था हुसैन का…
मिट गयी नस्ल-ए-यज़ीद करबला की ख़ाक में,
क़यामत तक रहेगा ज़माना हुसैन का….