साभार- दोपहर का सामना 09 08 2019
ट्रिपल तलाक़ क़ानून के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने एक बड़ा क़दम उठाते हुए जम्मू कश्मीर को मिले विशेष राज्य के दर्जे को ख़त्म कर दिया है। इसी के साथ देश की राजनीति में भूचाल आ गया। सोशल मीडिया के शूरवीरों में उबाल आया। कुछ ने हताशा प्रकट की। कुछ ने इसे सरकार का सही कदम बताया तो कुछ का यह मानना रहा कि सरकार निरंकुश हो रही है। सबसे दुःखद बात यह रही कि अधकचरे ज्ञान से लबरेज़ सोशल मीडिया की देन से ज्ञानी बने लोगों ने इसे धार्मिक रंग भी दिया। इसे कहने में संकोच नहीं कि इसमें दोनों तरफ़ से आग लगाने की कोशिश हुई। लेकिन सलामत रहे मेरा देश, सलामत रहे मेरे देश के हमवतन भाई कि जिनकी वजह से यह बहस किसी प्रकार की धार्मिक उत्तेजना को बढ़ा नहीं पाई। जैसे ही जम्मू कश्मीर पर केंद्र सरकार का फ़ैसला आया कुछ लोगों ने वहां की मुस्लिम लड़कियों से जबरन विवाह करने, वहां प्लॉट खरीदने और न जाने कैसे-कैसे कश्मीर को लेकर अपने इच्छाएं प्रकट कीं। इसे मुसलमानों ने ख़ुद पर अत्याचार बताते हुए जवाबी हमले किये। पूरा दिन इसी में बीता कि अचानक बहुसंख्यक समुदाय से जुड़े लोगों ने अपने लोगों को लताड़ लगाने वाले संदेशों की झड़ी लगा दी जिसमें कश्मीर, कश्मीरी एवं और कश्मीरियत को भारतीयता की धरोहर बताकर नफ़रत भरे पोस्ट से दूर रहने की हिदायत कर डाली। यही इस देश की ख़ूबसूरती है। और अक्सर हम इन्हीं ख़ूबसूरत विचारों को सामने लाने की कोशिश करते रहे हैं।
इतिहास में क्या हुआ उस से सभी अख़बार पटे पड़े हैं। सारे टीवी मीडिया ने उस पर बहस चला रखी है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को संभालने की तरकीब में कोई हाथ नहीं बंटाना चाहता। मुस्लिम समाज को जितना दबाने का प्रचार बहुसंख्यक नहीं कर रहे उस से ज़्यादा ख़ुद मुस्लिम समाज अपने को बेचारा बनाने पर तुला हुआ है। वह भी उसी सरकार से लड़ने की बात करता है जिसके पास बहुमत है। जिसने यह फ़ैसला लिया है वह सत्ता में है। यह सरकार पिछली सरकारों की तरह न तो तुष्टिकरण में विश्वास कर रही है, न ही ऐसे लोगों को घास डाल रही है। ट्रिपल तलाक़ कानून लाकर इस सरकार ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी थी। अब इस फ़ैसले से बावेला मचाकर भी जब कुछ नहीं होना है यह जानते हुए भी आख़िर क्यों माहौल बिगाड़ने में लोग मदद कर रहे हैं, यह समझ से परे है। क्या लोग यह भूल गए कि सरकार को इस फ़ैसले के लिए कश्मीर के पाकिस्तान समर्थक आतंकी और अलगाववादी संघटनों ने न सिर्फ मजबूर किया कि वह यह क़दम उठाए, बल्कि उसकी राह खुद ही आसान कर दी। याद कीजिये कि हर लोकसभा चुनाव के दौरान जब भी बात जम्मू-कश्मीर की आती थी, तो भाजपा धारा ३७० और ३५-ए को हटाने का ज़िक्र ज़रूर करती थी। यही वो धाराएं थीं जो कश्मीर के लोगों को विशेष दर्जा देती थीं, जिसका पूरा फ़ायदा अलगावादी नेता वर्षों से उठाते रहे। इसके ज़रिए वह लोगों को भड़काने का काम भी करते थे। उनका बस यही मक़सद था कि कैसे कश्मीर को एक अलग देश बनाया जाए। पाकिस्तान का समर्थन करने वाले हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस, हिज्बुल मुजाहिदीन सहित अनेक अलगाववादी संगठन अक्सर ही पाकिस्तान के गुणगान करते और भारत को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर न छोड़ते। ऐसे में सरकार के पास धारा ३७० के ख़िलाफ़ क़दम उठाने के अलावा कोई चारा बचता भी क्या। सरकार बहुमत को यह समझाने में सफल रही कि देश को आतंकियों से बचाने के लिए ये ज़रूरी हो गया था कि कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया जाए।
यह कहना भी सही नहीं होगा कि पूरे कश्मीर की अवाम आतंकी घटना में शामिल रही है। याद होगा कश्मीरी शहीद फ़ौजी औरंगजज़ेब जिनकी आतंकियों ने हत्या कर दी थी, वो देश के प्रति अपने फ़र्ज को निभा रहे थे। उनकी शहादत के बाद उनके दो भाइयों ने भी फ़ौज को चुना अपनी ज़िम्मेदारी को समझकर, देशप्रेम की भावना के साथ, आतंकियों को ख़त्म करने के प्रण के साथ। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। लेकिन कश्मीर के ही ऐसे भी लोग हैं, जो हमारी सेना पर हमला करते हैं। भले ही उन्हें बरग़लाने उकसाने वाले सीमा पार के क्यों ना हों, लेकिन जनता का इस तरह विरोध प्रदर्शन किसी भी तरह से कैसे जायज़ ठहराया जा सकता है। वहां कुछ नौजवान आतंकियों का साथ देते हैं। बुरहान वानी और अफ़ज़ल गुरु की मौत पर घाटी की जनता सड़कों पर उतरती है, शोक मनाती है, मातम करती है और हिंसा तक की घटनाओं को अंजाम देती है। ऐसी घटनाओं के दौरान पत्थरबाजी करने वाले नौजवानों को भटका हुआ बताकर परिजन, अलगाववादी संगठन और अनेक राजनैतिक दल के नेता उनको समर्थन देते हैं, उनका बचाव करते हैं। इसलिए यह कहना वाजिब होगा कि कश्मीर के लोगों ने भी धारा ३७० को हटाने की लिए ज़मीन बनाने में पूरा योगदान दिया। और यह कैसे भूला जा सकता है कि सरकार के एजेंडे में यह प्रस्ताव काफ़ी पहले से था।
एक बात ग़ौर करने की है, कि क्या कश्मीर केवल धर्म और विचारधारा है, या वहां इंसान भी बसते हैं। माना कि घाटी मुस्लिम बहुल है, लेकिन उनकी बुनियादी ज़रूरतें भी तो अन्य देशवासियों की तरह ही होंगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार जैसे मुद्दे उनके भी तो हैं। फिर केवल पाकिस्तानपरस्तों के बहकावे में कश्मीर हित की बात करते-करते देशद्रोह की बातें करने लगना कैसे जायज़ हो सकता है? और कश्मीर प्रेम को जब धर्म विशेष से जोड़ दिया जाता है तो स्थिति और भयावह हो जाती है। दरअसल कश्मीर आंदोलन ने धर्म विशेष की पनाह लेकर देश भर को ध्रुवीकरण का मौक़ा दिया। इसलिए आज ३७० हटाए जाने पर अधिकांश वही लोग कश्मीरी मुसलमानों पर फ़ब्तियां कस रहे हैं जो विशेष विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। और इनका विरोध कर रहे लोग भी धर्म की आड़ में आंसू बहा रहे हैं। यह घड़ी धार्मिक ध्रुवीकरण की नहीं, देश को मज़बूती देने की है। मुस्लिम समाज को 'सेलेक्टिव एप्रोच' से बाहर निकलकर सोचने की ज़रुरत है। हमारा मानना है कि असहमति भी लोकतंत्र का ही हिस्सा है और उसके लिए संवैधानिक दरवाज़े हमेशा खुले होते हैं। तो आख़िर कश्मीर, कश्मीरी और कश्मीरियत के लिए बजाय मुस्लिम कार्ड का इस्तेमाल करने के, संवैधानिक रास्ते अपनाने पर ज़ोर क्यों नहीं दिया जाता। मुस्लिम समाज को इस दिशा में भी सोचने की ज़रूरत है। कश्मीर से जुड़े मुद्दे पर धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक बिखराव से बचने के लिए सभी राजनीतिक दलों को, धार्मिक संगठनों सहित मुस्लिम समाज को भी एकजुट होना होगा और एक साथ मिलकर इस समस्या का समाधान निकालते हुए कश्मीर के लोगों का दिल जीतना होगा। कश्मीर को अब तक पाकिस्तान की खिलाई गई नफ़रत की अफ़ीम का इलाज कर, राष्ट्रनिर्माण की औषधि खिलाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।