साभार- दोपहर का सामना 19 07 2019
इस्लाम धर्म के पांच फ़राएज में से एक अहम फ़रीजे 'हज' की तैयारियां शुरू हो गई हैं। हज के अलावा इस्लाम के जो अन्य चार स्तंभ हैं, वो हैं- एकेश्वर की गवाही, नमाज़, रोज़ा और ज़कात यानि दान पुण्य। इस्लाम के ज्ञात पांच महत्वपूर्ण स्तंभ में हज का स्थान पांचवां है। इस साल हज यात्रा के लिए तीर्थयात्रियों का पहला जत्था सऊदी अरब के लिए पिछले सप्ताह रवाना होकर वहां पहुंच गया है और इबादत में लग चुका है। देश भर से हज यात्रियों के जत्थे के जत्थे रवाना हो रहे हैं। विदेशों से भी इस्लाम के लाखों अनुयायी सऊदी अरब पहुंच रहे हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के मुताबिक इस वर्ष देश भर के २१ हवाई अड्डों से ५०० से ज़्यादा हवाई उड़ानों के ज़रिए पहली बार रिकॉर्ड २ लाख भारतीय मुसलमान बिना किसी सब्सिडी के हज पर जाएंगे। इन हज यात्रियों में १ लाख ४० हजार हज यात्री हज कमेटी ऑफ इंडिया और ६० हजार हज यात्री हज ग्रुप ऑर्गनाइज़र के ज़रिये हज यात्रा पर जाएंगे। यह जानकारी ख़ास तौर पर महत्वपूर्ण है कि, भारत का हज कोटा पाकिस्तान से भी ज़्यादा है। इंडोनेशिया के बाद भारत का हज कोटा सबसे ज़्यादा रखा गया है। सऊदी अरब के हज मंत्रालय ने इस साल भारतीय मुसलमानों का हज कोटा २ लाख किए जाने का औपचारिक ऐलान किया है। ख़ास बात यह भी है कि भारत से जाने वाले २ लाख हज यात्रियों में लगभग ४८ प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं।
यहां यह जानना भी रोचक है कि इस साल बिना 'मेहरम' (पुरुष रिश्तेदार) के हज यात्रा पर जाने वाली महिलाओं की संख्या पिछले वर्ष के मुक़ाबले दोगुनी होगी। बिना मेहरम के इस वर्ष हज पर २३४० मुस्लिम महिलाएं शामिल होंगी। केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ४५ साल से अधिक की महिलाओं को इसकी अनुमति दे दी है। ४५ वर्ष की आयु से अधिक महिला को पुरुष साथी के बिना हज यात्रा करने की अनुमति देने का सुझाव केंद्र सरकार द्वारा हज यात्रा के बारे में नई पॉलिसी बनाने के लिए गठित अमानुल्लाह समिति का था, जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है। नई नीति के मुताबिक चार महिलाओं का एक समूह हज के लिए जा सकता है। सरकार का यह निर्णय विवादित और चर्चा में भी रहा। इस से पहले मेहरम पुरुष के साथ ही हज यात्रा पर जाने की अनुमति थी। शरीयत के अनुसार एक महिला ७८ किलोमीटर से अधिक की यात्रा अकेले नहीं कर सकती। अगर इससे अधिक दूरी की यात्रा करनी है तो महिला के साथ मेहरम पुरुष साथी का होना ज़रूरी है। मेहरम, यानी जिससे महिला का निकाह हराम माना जाता हो। मसलन- पिता, सगा भाई, बेटा और पौत्र-नवासा वगैरह। तीन तलाक़ या तलाक़-ए-बिद्दत और हज यात्रा में बिना मेहरम के महिलाओं को अनुमति देना केंद्र सरकार का वह निर्णय है जिस से मुसलमानों का एक तबका खुश है तो दूसरा तबका शरीयत में दख़ल के नाम पर इसका विरोध कर रहा है।
ख़ैर, बात करते हैं हज की। इस्लाम में हज सऊदी अरब के पवित्र शहर की तीर्थयात्रा है, जो प्रत्येक वयस्क मुस्लिम स्त्री या पुरुष को अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार ज़रूर करनी चाहिए। हर साल लगभग २० लाख लोग हज करते हैं। इस धार्मिक कृत्य में मुस्लिम समाज की विभिन्न पृष्ठभूमि के अनुयायियों के एक साथ आने के कारण, हज इस्लाम में एकजुट करने की शक्ति का काम करता है। एक बार तीर्थयात्रा करने के बाद व्यक्ति अपने नाम के साथ हाजी जोड़ सकता है। शारीरिक और वित्तीय रूप से समर्थ प्रत्येक मुसलमान के लिए हज ज़रूरी है, लेकिन उसकी अनुपस्थिति में उसके परिवार को परेशानी नहीं होनी चाहिए। हज पर जाने वाले के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी प्रत्येक ज़िम्मेदारियां निभाने में आर्थिक रूप से सक्षम हो। या फिर उसके पास इतनी रकम हो कि वह हज यात्रा से लौटकर भी अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन कर सके। क़र्ज़ इत्यादी लेकर हज पर जाने की मनाही है। काले धन से किया गया हज भी इस्लाम में स्वीकार्य नहीं है। हज दरअसल एक रूहानी सफ़र है जिसे केवल सऊदी अरब जाकर आने वाला साधारण सफ़र नहीं कहा जा सकता।
इस बीच देखा गया है कि हज पर जाने वाले चंद लोग हज यात्रा से पहले और बाद में इस पवित्र यात्रा के नाम पर ख़ुद ही ढिंढोरा पीटते हैं। हज पर जाने से पहले और आने के बाद अपनी शोहरत के लिए लिए बड़ी-बड़ी दावतें करना, फ़ोटो व वीडियो ग्राफ़ी कराना, हाजियों का जुलूस की शक्ल में आना और जाना, इस दौरान फूल मालाओं का पहनना, हज यात्रियों को रस्मन तोहफ़े देना और मक्का व मदीना में कबूतरों को दाना खिलाने के लिए पैसे देना जैसी रिवायतों को बढ़ावा दिया जाता है। मुस्लिम समाज को इस पर ग़ौर करना चाहिए कि क्या इस तरह की रस्में शरई ऐतबार से दुरुस्त हैं? हालाँकि कुछ अजीब-ओ-ग़रीब फ़तवों पर तो मुस्लिम समाज आसमान सर पर उठा लेता है लेकिन इस इस महत्वपूर्ण फ़र्ज़ अदायगी के दौरान दिखावे पर आये फ़तवे को नज़रअंदाज़ करता है। दारुल उलूम देवबंद से संबंधित इफ़्ता विभाग के मुफ़्तियों की खंडपीठ ने फ़तवा जारी कर साफ़ किया है कि इस तरह की रस्मों की इस्लाम में कोई जगह नहीं है। फ़तवे में कहा गया है कि पवित्र हज का इस्लाम मज़हब की बड़ी इबादतों में शुमार होता है। फ़तवे के मुताबिक हज का इरादा करने से पहले इंसान को अपने तमाम गुनाहों और बुराइयों से तौबा कर लेनी चाहिए और साफ़ सुथरी जिंदगी गुज़ारने का अज़्म कर लेना चाहिए। फ़तवे में कहा गया है कि फ़ोटो और वीडियोग्राफ़ी कराना, दिखावे के लिए बसों में भर कर हाजी को छोड़ने और लेने जाना, नारेबाज़ी करना, फूलों के हार डालना, बदले की उम्मीद से तोहफ़े देना बड़ा गुनाह है। इसके साथ ही मक्का-मदीना में कबूतरों के दाने के लिए रुपये आदि देना भी जायज़ नहीं है। सुन्नत के मुताबिक़ घर से एयरपोर्ट तक एक दो लोगों के आने जाने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन नारों, शोर शराबे और गाजे-बाजे की शरई अहमियत नहीं है। हाजी के स्वागत या हज पर जाते समय ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिसकी इस्लाम इजाज़त नहीं देता। हाजी को झूठ, फ़रेब और बदज़ुबानी से बचना चाहिए और शोहरत के लिए दावत वग़ैरह नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस्लाम में दिखावे को मना किया गया है और इस्लामी शिक्षा के अनुसार अल्लाह दिखावे को पसंद नहीं करता।
मुस्लिम समाज को समझना चाहिए कि उनकी इसी दिखावे और अन्य गैर-ज़रूरी रिवायतों की बढ़ोत्तरी की वजह से इस्लाम के मूल रूप में परिवर्तन होने लगता है जो बाद में इस्लाम का महत्वपूर्ण अंग बन जाता है। ऐसी अनगिनत रिवायतें हैं जिनका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है, लेकिन उस परंपरा को शुरू कर इस्लाम का अंग बना देने से उसे मुसलमानों ने ज़रूरी समझ लिया है। कई उलेमा और मुफ़्ती हज़रात ऐसी परंपराओं को बढ़ावा देकर और भी जटिल बना देते हैं। मुसलमानों को समझना होगा कि शान-ओ-शौक़त के लिए किया गया हज क़ुबूल नहीं होता। हाजियों को चाहिए कि वह इस्लाम के ज़रूरी अरकान से अलग बनाई गई सभी रस्मों और रिवाजों को छोड़ते हुए बेहद सादगी के साथ हज के लिए जाएं और उतनी ही सादगी से वापस आएं। मुफ़्तियाने किराम की नसीहत है कि, आज़मीन-ए-हज को सफ़र के दौरान हर छोटी से छोटी बात का ध्यान रखना ज़रूरी है जिससे उसके हज के सभी अरकान व आदाब पूरे हो सकें। दरअसल हज एक ऐसा अमल है, जिसमें हर बंदा अल्लाह के घर में ख़ुद को अपने रब के हवाले कर देता है। हज का मक़सद अपने अंदर परहेज़गारी लाना है। इस्लाम के मुताबिक़ हज के बाद बंदा गुनाहों से पाक हो जाता है। हज करने वालों को हज के बाद भी इबादत और दूसरे के नेक अमल को बेहतर ढंग से करना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि अल्लाह हाजियों की दुआएं क़ुबूल करता है, इसलिए हर हाजी को चाहिए कि वह अपने परिजन, मुहल्लेवासी, शहर वासी, राज्य और अपने देश की खुशहाली के लिए बिला-तफ़रीक़ दुआ करे। सच्चा हज तो यही है बाक़ी सब तो दिखावा है। और दिखावे की इस्लाम में कोई हैसियत नहीं है।