साभार- दोपहर का सामना 12 07 2019
साड़ी, सिंदूर और मंगलसूत्र पहनकर संसद में शपथ लेने वाली तृणमूल कांग्रेस की सांसद नुसरत जहां के ख़िलाफ़ बयानों और फ़तवों का दौर थमा नहीं है। वे अब भी कट्टर मुस्लिम धर्मगुरुओं के निशाने पर हैं। ये बात समझ से परे है कि जब उन्हें इस्लाम से ख़ारिज कर ही दिया है तो मौलवी हज़रात उन पर चर्चा ही क्यों कर रहे हैं । मौलवी हज़रात का कहना है कि किसी भी मुस्लिम पुरुष अथवा महिला की शादी मुस्लिम से होनी चाहिए। नुसरत एक अभिनेत्री हैं और अब तक यही देखा गया है कि फ़िल्मों या मनोरंजन के अन्य क्षेत्रों से जुड़े कलाकार, अभिनेता-अभिनेत्री धर्म की फ़िक्र न करते हुए जो उनका मन करता है, वही करते हैं। नुसरत ने इसी का प्रदर्शन संसद में किया तो बावेला मचा दिया गया। सबसे पहले देवबंद से ही फ़तवा आया कि नुसरत को इस्लाम से ख़ारिज किया जाता है। न किसी मुस्लिम संगठन ने, न नुसरत के किसी रिश्तेदार ने, न ही किसी अन्य ने ऐसा फ़तवा मांगा था। लेकिन मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा करने वालों ने आख़िर उक्त फ़तवे को इस क़दर चर्चित कर दिया गया कि पूरा देश उसी चर्चा में शामिल हो गया। हालांकि, इस्लाम में फ़तवा इस्लामी क़ानूनों से जुड़े मसले पर किसी क़ाबिल मुस्लिम विद्वान या मुफ़्ती द्वारा दिया गया प्रामाणिक क़ानूनी मत होता है, जिसे मानने की बाध्यता नहीं होती है।
सिंदूर को लेकर इस से पहले अक्टूबर में देवबंद से ही एक फ़तवा आया था जिसमें पत्नी की मांग में सिंदूर भरने और पति के भगवा रंग का कपड़ा पहनने पर इस्लाम से ख़ारिज करने को ग़लत बताया गया था। मामला ग़ज़ियाबाद के आसिफ़ अली का है जिनको भगवा रंग बहुत पसंद है। लिहाज़ा वह हर साल ईद की नमाज़ भगवा रंग का कुर्ता पायजामा पहनकर पढ़ते आए हैं। ईद के अलावा वह शादी समारोह और अन्य कार्यक्रमों में भी भगवा रंग के कपड़े ही पहनकर जाते रहे हैं। आसिफ़ के अनुसार उनके अधिकांश मित्र हिंदू समाज से हैं और वह एक दूसरे से धार्मिक भेदभाव नहीं रखते। लेकिन उन्हीं के अपने कुछ लोग उनके लगातार भगवा रंग को इस्तेमाल करते रहने को ग़ैर इस्लामी बताते हुए विरोध करते थे। वहीं, आसिफ़ की पत्नी भी विवाह के बाद से ही मांग में सिंदूर भरती आई हैं। कुछ लोगों ने मांग में सिंदूर भरने और भगवा कपड़े पहनने की शिकायत स्थानीय उलेमा से कर दी। उन जनाब ने दंपती को इस्लाम विरोधी घोषित कर उन्हें इस्लाम से ख़ारिज कर दिया। इस आदेश के बाद धर्मभीरु आसिफ़ अली और उनकी पत्नी को इस्लाम से ख़ारिज होने का कई महीनों तक दंश झेलना पड़ा। यहां तक कि उनके अपने परिजनों ने भी उनसे किनारा कर लिया। लोगों ने बात करना तो दूर देखना तक बंद कर दिया। जब और कुछ नहीं सूझा तो इस परेशान दंपती ने अधिकृत फ़तवे के लिए सहारनपुर के देवबंद स्थित देश के प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्थान दारूल उलूम से लिखित फ़तवा मंगाया। आसिफ़ के सवाल के जवाब में दारूल उलूम ने फ़तवा जारी कर बताया कि मांग में सिंदूर भरने से कोई भी मुस्लिम महिला इस्लाम धर्म से ख़ारिज नहीं हो सकती और यदि भगवा रंग के कपड़े पाक-साफ़ हैं तो उन्हें पहनकर नमाज़ अदा करने की भी गुंजाइश है। यह फ़तवा दारूल उलूम के मुफ़्ती फ़ख़रुल इस्लाम ने जारी किया। यानि सिंदूर को लेकर मुस्लिम समाज के मुफ़्ती हज़रात भी एकमत नहीं हैं। यह सब केवल इसलिए है क्योंकि हर किसी ने इस्लाम की अपनी व्याख्या करने का ठेका जो ले रखा है।
दरअसल फ़तवा देने का अधिकार भी हर किसी को नहीं है। इस्लाम से जुड़े किसी मसले-मसायल पर क़ुरआन और हदीस की रोशनी में जो सलाह दी जाए, उसे ही फ़तवा कहा जाता है। फ़तवा कोई मुफ़्ती ही जारी कर सकता है। मुफ़्ती बनने के लिए शरिया क़ानून, क़ुरआन और हदीस का गहन अध्ययन और सनद ज़रूरी है। रात-दिन अख़बारों, टीवी चैनलों और ख़बरों में छाए रहने वाले कथित उलेमा के पास फ़तवा जारी करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन अमूमन यही 'पेड उलेमा' अपनी ज़ुबान से टीवी समाचारों की बहस में और अख़बारों में ऐसे बेतुके बयान दे जाते हैं जिसे कमअक़्ल एंकर और दर्शक फ़तवा मानकर मुस्लिम समाज की खिल्ली उड़ाने से बाज़ नहीं आते। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे मुल्क में इस्लामी क़ानून को लागू करवाने के लिए किसी तरह की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए फ़तवे बेमानी हैं। ज़्यादा से ज़्यादा उसे किसी मुफ़्ती की राय कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शरिया क़ानून से चलने वाले देशों में ही फ़तवे का लोगों की ज़िंदगी पर कोई असर हो सकता है क्योंकि वहाँ इसे क़ानूनन लागू कराया जा सकता है। फ़तवे मंगाने का एक कारण यह भी है कि सही इस्लाम की शिक्षा के आभाव में कई मुसलमानों को पता नहीं होता कि इस्लाम उन्हें क्या करने या क्या न करने को कहता है, इसलिए वे अपने सवालों का जवाब पाने के लिए इस्लामी विद्वानों या मुफ़्तियों की शरण में जाते हैं। मुफ़्ती उन्हें जवाब और सलाह देते हैं जिसे शब्दसंग्रह में फ़तवा के नाम से दर्ज कर लिया गया है। कई बार ऐसे फ़तवे दिए जाते हैं जिन्हें बर्बर, अमानवीय और इस्लाम को बदनाम करने वाला कहा जा सकता है। ऐसे फ़तवे मुसलमानों के लिए लोगों के मन में नकारात्मक भाव पैदा करते हैं।
पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया उसकी जो प्रामाणिक मिसालें हैं उन्हें हदीस कहते हैं। पवित्र क़ुरआन के बाद हदीसों को बड़ी मान्यता है ख़ासकर 'बुख़ारी शरीफ़' को सबसे प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है, जिन्हें मुस्लिम विद्वान मोहम्मद अल-बुख़ारी ने एकत्रित किया था। इस हदीस का संग्रह ईसवी सन ८४६/ यानि २३२ हिजरी के आसपास पूरा हुआ था। अर्थात पैग़ंबर मोहम्मद साहब के शरीर त्याग करने के लगभग सवा दो सौ साल बाद। लंबे अंतराल के कारण क़ुरआन और हदीस में विरोधाभास पाया जा सकता है। इसलिए इन हदीसों के संकलनकर्ता मोहम्मद अल-बुख़ारी ने ख़ुद कहा है कि अगर क़ुरआन और हदीस के बीच कहीं भी विरोधाभास पाया जाता है तो क़ुरआन को प्राथमिकता दें न कि हदीस को। लेकिन दुर्भाग्य यह भी है कि अक्सर उलेमा और आम मुसलमान क़ुरआन से ज्यादा हदीसों और मुस्लिम धर्मगुरुओं के बयानों को ज्यादा तरजीह देते हैं। जबकि देखा यह भी गया है कि विश्व भर के मुसलमानों ने हेब्रू बाइबिल की कथाओं, यहूदी संस्कृति की कई रस्म-रिवाज़ों तथा अंधविश्वासों को भी अपनाया है जिसे अक्सर मुफ़्ती साहेबान फ़तवा बताकर पेश कर देते हैं।
मुस्लिम समाज की ऐसी ही दकियानूसी सोच और कट्टरपंथी विचारधारा के कारण ही अधिकतर ग़ैर-मुस्लिमों में बहुमत ऐसे लोगों का है, जो यह मानते हैं कि कट्टरपंथी, ज़ुल्मी, इस्लाम की आलोचना करने वालों का हत्यारा, औरतों को जबरन बुर्क़ा पहनाने वाला, और बेतुके फ़तवे जारी करने वाला ही मुसलमान होता है। अगर मुस्लिम समाज को सचमुच तरक्की करनी है तो धर्म को निजी आस्था के दायरे में सीमित करना होगा। यह तय करना होगा कि फ़तवे की आड़ में किसी को भी किसी की ज़िंदगी में अराजकता फैलाने की इजाज़त न मिल सके। ख़ासकर महिलाओं के विषय में और भी जागरूक होने और समाज को जागरूक करने की ज़रुरत है। महिलाओं ने तो सामाजिक और धार्मिक दायरों में रहने का मानो अनुबंध करा रखा हो। महिलाओं के लिए पाबंदियों से भरे इस समाज में ऐसी सोच को ज़िंदा रखा जाता है कि वे पितृसत्तात्मक सत्ता को स्वीकार कर लें। भारतीय समाज की हर महिला को इस पीड़ा से गुज़रना पड़ता है। फिर पुरुष प्रधान समाज की और भी बेहतर तरीक़े से अक्कासी करते मुस्लिम समाज में तो इस बात का और भी कड़ी तरह से पालन होता है। सही इस्लाम की शिक्षा से मुसलमानों की दूरी ही अधिकांश समस्याओं की जड़ है, जिसे मुस्लिम समाज समझ तो रहा है लेकिन इस मकड़जाल से निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। ऐसे में मुफ़्तियों को बेतुके फ़तवे जारी करने से परहेज़ करना पड़ेगा। ख़ासकर तब, जब ऐसे फ़तवे समाज को बुद्धिहीन, महिला विरोधी और मज़ाक़ का पात्र बनाने के साथ ही निरंतर पिछड़ते जा रहे समाज को और भी पतन की ओर ले जा रहे हों।