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दिल जीतने का 'मोदी' मंत्र / सैयद सलमान
Friday, June 28, 2019 9:45:28 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 28 06 2019

सरकार के अपने पिछले कार्यकाल में सत्तारूढ़ एनडीए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा दिया था। १७वीं लोकसभा के चुनाव ख़त्म होने के बाद इस नारे में इज़ाफ़ा करते हुए 'सबका विश्वास' भी उसमें जुड़ गया है। प्रधानमंत्री का संकेत साफ़ है कि देश सबका है। गाहे-ब-गाहे मुस्लिम समाज को लेकर कटु भाषण देने वाली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और अक्सर धमकी भरे लहजे में बात करने वाले गिरिराज सिंह को ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले दिनों आड़े हाथ लिया था। यह इस बात का सबूत है कि सरकार सबको साथ लेकर चलने के मामले में गंभीर है। दरअसल लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही बीजेपी और आरएसएस से जुड़े तमाम संगठनों द्वारा मुस्लिम समाज को साथ लेकर चलने की कोशिश की जा रही है। हाल ही में संघ प्रणित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के इंद्रेश कुमार ने इस्‍लामिक शिक्षा के एक प्रमुख बड़े केंद्र दारुल उलूम देवबंद के पदाधिकारियों से मुलाक़ात की। इस दौरान इंद्रेश कुमार ने भाईचारे का संदेश लाए जाने की बात कही, जबकि जवाब में दारुल उलूम के मोहतमिम मुफ़्ती अबुल क़ासिम नुमानी ने दारुल उलूम के दरवाज़े यहां आने वाले सभी लोगों के लिए खुले होने का ऐलान किया। वैसे यह भी एक तथ्य है, कि इंद्रेश कुमार इससे पहले भी २००४ में दारुल उलूम जा चुके हैं लेकिन तब कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका था।

इस से पहले मुस्लिम विरोध का प्रतीक बनकर उभरी नई नवेली सांसद साध्वी प्रज्ञा भोपाल में शहर क़ाज़ी के घर ईद पर मिठाई लेकर मुबारकबाद देने पहुंची थीं। हाल फ़िलहाल में गिरीराज सिंह जैसों का भी कोई विवादित बयान सामने नहीं आया है। पिछले दिनों उत्तरप्रदेश के कानपुर से जीते बीजेपी सांसद ने ईद मिलन का बड़ा आयोजन कर मुस्लिमों से गले मिलकर ईद की मुबारकबाद दी थी। मुस्लिम समाज की सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों के जानकार इस पहल को निश्चित ही सबका विश्वास जीतने की रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं। वादों और नारों से ऊब चुका मुस्लिम समाज शायद इस बार इन संदेशों को गंभीरता से ले। इंद्रेश कुमार का यह कहना क‍ि लोग अपनी पहचान धर्म के आधार पर नहीं बल्कि हिंदुस्‍तानी के रूप में बनाएं, शायद मुसलमानों पर अपना असर करे। मोदी की तर्ज़ पर ही इंद्रेश कुमार का भी मानना है कि कुछ मुस्लिम नेता मुसलमानों को डराने का काम कर रहे हैं।

यह सब अचानक नहीं हो रहा। आरएसएस ने इसके लिए पिछले कुछ वर्षों से लगातार प्रयास किये हैं। दारुल उलूम देवबंद और आरएसएस एक दूसरे के लिए लगभग अछूत से रहे हैं। दारुल उलूम देवबंद को अक्सर बीजेपी, आरएसएस और उनके सहयोगी संगठन आतंकियों की पनाहगाह और आतंक का ट्रेनिंग सेंटर कहते रहे हैं। लेकिन आरएसएस के सहायक संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संरक्षक इंद्रेश कुमार के दारुल उलूम जाने के कई अर्थ हैं। दारुल उलूम अब मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर है और उसे खूब-खरी खोटी सुनाई जा रही है। क्या यह सत्य नहीं है कि हिन्दुस्तान की कुछ सियासी जमातें वोट बैंक की राजनीति करती हैं? इसीलिए यहां आपसी भाईचारा कायम करने और मिलने की बातों में भी सियासत होने लगती है। लेकिन समाज का एक बड़ा तबका मानता है कि इंद्रेश कुमार का दारुल उलूम के मोहतमिम से मिलना, आने वाले दिनों में मुस्लिम समाज के लिए निर्णायक भूमिका निभा सकता है। मुस्लिम समाज के प्रमुख इदारे के ज़िम्मेदारों से आरएसएस के प्रतिनिधि की मुलाक़ात को सदभावना का संदेश देने और राष्ट्र निर्माण में सकारात्मक भूमिका निभाने वाला बड़ा बदलाव माना जा रहा है।

अब मुस्लिम समाज को चाहिए कि वह आरएसएस और दारुल उलूम के प्रतिनिधियों की मुलाक़ात को महज़ शिष्‍टाचार मुलाकात कहकर न तो ख़ारिज करे और न ही बचाव की मुद्रा अपनाए। इस मुलाक़ात के बाद मुस्लिम समाज को संवाद के हर दरवाज़े को खोल देने की ज़रूरत है। मुस्लिम समाज इन मुलाकातों के आधार पर अपनी समस्याएं सरकार तक भी पहुंचा सकते हैं और देश के बहुसंख्यकों के मन में उपजी ग़लतफ़हमियों को दूर करने का ज़रिया बना सकते हैं। अब मुस्लिम समाज को अपने बुद्धिजीवी मध्यस्थों के माध्यम से यह मांग रखनी चाहिए कि सरकार उनके लिए शिक्षा और तरक़्क़ी का रास्‍ता बनाए, जिससे आम मुसलमान अपने बहुसंख्यक भाइयों के साथ आपस में शांति और भाईचारे के साथ रहे सके। यह तो सभी मानते हैं कि देश की तरक़्क़ी के लिए हिंदू-मुस्लिम रहनुमाओं का एक मंच पर आना ज़रूरी है, लेकिन सार्थक पहल से न जाने क्यों पीछे हट जाते हैं। आख़िर इसी तरह की मुलाक़ात और संवाद के द्वार खुलने के बाद ही तो इंद्रेश कुमार ने मुसलमानों को लेकर सकारात्मक बयान दिए। मुस्लिम समाज की तरफ़ से भी अगर सकारात्मक संदेश जाता है तो बिरादरान-ए-वतन भी अपने लोगों को समझाएंगे कि वे भी अपने धर्म पर चलते हुए ऐसा कोई कार्य न करें, जिससे दूसरे की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचे। याद कीजिये, जब इस पहल से पहले एक क़दम आगे बढ़कर संघ प्रमुख मोहन भगवत ने मुस्लिमों के बिना हिंदुत्व की अवधारणा को ही खारिज कर दिया था। क्या यह सब मुसलमानों के लिए सकारात्मक संदेश नहीं है?

एक बात तो तय है कि दारुल उलूम सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता लेकिन देश का बहुत बड़ा तबक़ा उनकी बात को सुनता और मानता है। मुस्लिम समाज से जुड़े अधिकांश फ़तवे भी इसी इदारे से आते हैं। अब और मुस्लिम संघटनों को भी आगे आना होगा। मुस्लिम समाज को क़रीब लाने की सकारात्मक शुरुआत करने की काफ़ी दिनों से ज़रुरत थी। मुस्लिमों के बीच जाकर हिंदुत्व, सरकार, संघ और बीजेपी के बारे में उनके मन में पनप रही भ्रांतियों को दूर करने की ज़रुरत महसूस की जा रही थी जिसे अब जाकर गति मिल रही है। इस काम के लिए हिंदू समाज की तरफ़ से मुस्लिमों का विश्वास जीतने के लिए जागरूकता अभियान अगर चलाया जाए तो गलतफहमियों को दूर करने में मदद मिलेगी। अनेक मुस्लिम विद्वानों और मुस्लिम उलेमा ने माना है कि दारुल उलूम और संघ प्रतिनिधि की यह मुलाक़ात बहुत सकारात्मक है। यह अच्छी पहल है। इतना ही नहीं, इससे आगे आने वाले समय में दोनों पक्षों में विचारों का अदान-प्रदान भी होगा। प्रयास यही हो कि समय-समय पर ऐसी मुलाक़ातें होती रहें।

एक बात और। पिछले कुछ दिनों से तबरेज़ अंसारी का नाम मीडिया में छाया हुआ है। इस घटना ने इस क़दर तूल पकड़ लिया है कि एक बार फिर मॉब लिंचिंग का मुद्दा गरमा गया है। अख़बार, टीवी समाचार, सोशल मीडिया, गली-मोहल्लों, ट्रेन और बसों में भी एक बार फिर से पहलू ख़ान, मोहम्मद अख़लाक़ और मॉब लिंचिंग की ख़बरें चर्चा का केंद्र बन गई हैं। मई महीने में भरत यादव नमक एक युवक की भी मॉब लिंचिंग में ही मौत हुई थी। दोनों मामले में धार्मिक रंग है। दोनों, बल्कि इस तरह की हर घटना अमानवीय और निंदनीय है। लेकिन क्या इन जैसे मुद्दों को निपटा पाने में समाज सफल हो पा रहा है? नहीं, बिलकुल नहीं। समाज में जाहे जिन भी कारणों से हों, भेद इस क़दर बढ़ता जा रहा है कि मामूली व्यक्तिगत विवाद भी सांप्रदायिक रंग लेने लगा है। ऐसे में कल्पना कीजिये कि जब बड़े हिंदू-मुस्लिम इदारे संवाद साधेंगे और एक दूसरे के ग़म को समझेंगे, एक दूसरे की ग़लतफ़हमियों को दूर करेंगे तो आख़िर क्या कारण बचता है कि आम हिंदुस्तानी उनकी बात को नहीं मानेगा? क्या तब मॉब लिंचिंग के लिए समाज में कोई जगह बचेगी? सच्चाई भी यही है कि, देश कट्टरपंथ से नहीं बल्कि प्यार, मोहब्बत और आपसी सौहार्द से चलेगा। सच्चा मुस्लमान वही है जो क्रोध से दूर और शांति के क़रीब रहे। क़ुरआन ने नबी को आधार बनाकर मुस्लिम की पहचान बताई है कि, ‘‘जो अपने क्रोध पर क़ाबू रखते हैं।’’ (अल-क़ुरआन- ३:१३४) मुस्लिम समाज यह क्यों भूल जाता है कि पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने भी यहूद-ओ-नसारा के धर्मगुरुओं के साथ अपनी मस्जिदों में बैठकर अवाम के अम्न-ओ-अमान की ख़ातिर चर्चा की है। सुलह हुदैबिया का वाक़या भी यह बतलाता है कि मसलहत से काम लेना भी नबी की सुन्नत है। जब देश भर में नफ़रत का माहौल बन रहा हो तो क्या मुस्लिम इदारों और और उलेमा हज़रात की यह ज़िम्मेदारी नहीं कि वे आगे आकर संवाद कायम करें? जब बिरादरान-ए-वतन का बहुमत भी हिंसा के पक्ष में नहीं है तो आख़िर आम मुसलमान नफ़रत वाली राजनीति की भेंट क्यों चढ़े?