साभार- दोपहर का सामना 14 06 2019
लगभग १७ महीने पहले जनवरी २०१८ में जम्मू के कठुआ में ८ साल की एक बच्ची के साथ की गई बर्बरता की कहानी इतनी दर्दनाक थी कि उसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। उस मासूम का यौन शोषण किया जाता है फिर उसके बाद ईंट से उसका सिर फोड़कर जान से मार दिया जाता है। उस बच्ची का नाम आसिफ़ा था यानि बच्ची मुस्लिम समुदाय से थी। और इस घिनौने अपराध के लिए जो लोग आरोपी थे वे हिंदू समुदाय से थे। इस घटना को हिंदू बनाम मुस्लिम का रंग देना आसान था और वही किया गया। अब अलीगढ़ में जो कुछ हुआ उसमें पीड़ित एक हिंदू लड़की है, जिसकी उम्र करीब ३ साल है। आसिफ़ा मामले से उलट इस अपराध के आरोपी मुसलमान हैं। इस बार आसिफ़ा के समर्थन में उतरने वाले लोग नज़र तो नहीं आए लेकिन वे लोग उतर कर आए जिन्होंने लड़की के हिंदू होने के नाते उसका पक्ष लिया। इस बच्ची का नाम ट्विंकल है। आसिफ़ा और ट्विंकल समाज की मासूम बच्चियां न होकर हिंदू-मुसलमान हो गईं। खैर, कठुआ गैंगरेप और मर्डर केस का फ़ैसला तो आ गया है। सेशन कोर्ट ने ७ में से ६ आरोपियों को दोषी करार देते हुए तीन को उम्रक़ैद की सज़ा और एक-एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। वहीं, सबूतों से छेड़छाड़ करने वाले तीन अन्य दोषी पुलिसकर्मियों को कोर्ट ने ५-५ साल की सज़ा के साथ-साथ ५०-५० हज़ार रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है। उम्मीद है ट्विंकल का मामला भी उसी अंजाम को ज़रूर पहुंचेगा। रोचक तथ्य यह है कि तब इन दोषियों के समर्थन में उतरने वाले लोग अब ख़ामोश हैं।
अलीगढ़ की ट्विंकल और कठुआ की आसिफ़ा जैसी बच्चियों के साथ जो घिनौने कांड हुए उनसे रूह का कांप कांप उठना स्वाभाविक है। हालांकि ये पहले या आख़िरी कांड नहीं हैं। दिल्ली की निर्भया से लेकर जेसिका लाल तक कितनी तरह के कांड सामने आते रहे हैं। मोमबतियां जला कर देश भर में न जाने कितनी बार प्रदर्शन किए गए हैं। लेकिन महिलाओं के उत्पीड़न, शोषण और उनके प्रति दुर्भावना के मामलों में कमी आ ही नहीं रही। मामला तब और बिगड़ जाता है जब कोढ़ में खाज हो जाए, यानि एक तो अपराध और उस पर भी धार्मिक भेद। सवाल यह उठता है कि आसिफ़ा और ट्विंकल में फ़र्क़ क्या है? आख़िर हैं तो दोनों मासूम बच्चियां ही न? अगर वाक़ई में हमारा समाज लड़कियों को लेकर इतना संवेदनशील है तो फिर धर्म के नाम पर बंट क्यों जाता है? आसिफ़ा और ट्विंकल पहले बेटियां हैं, उसके बाद क्रमशः मुसलमान और हिंदू। तो क्या यह मान लिया जाए कि आज धर्म के आगे मानवता दम तोड़ रही है? आख़िर ये धर्म की नुमाइंदगी करने वाले लोग कब तक इस तरह अपने दोहरे चरित्र का प्रदर्शन करते रहेंगे और अपराधियों को समर्थन और पनाह देते रहेंगे? दरअसल दो मासूम बच्चियों के बहाने धार्मिक ध्रुवीकरण और कुंठित मानसिकता का प्रदर्शन समाज के गिरते स्तर की अक्कासी करता है। एक बात नोटिस करने वाली है, बुद्धिजीवी मुसलमानों की तरफ़ से यह आवाज़ उठी है कि बलात्कर जैसी घटनाओं पर हिंदू-मुस्लिम ना करके सख़्त सज़ा की मांग की जानी चाहिए। याद रहे, सही इस्लाम, क़ुरआन और पैग़ंबर मोहम्मद साहब का यही फरमान है कि 'एक बेगुनाह की हत्या पूरी इंसानियत की हत्या होती है' तो सोचिए इन मासूमों पर जुल्म के जो पहाड़ तोड़े जाते हैं क्या उन पर कोई सच्चा मुसलमान राज़ी होगा? मुस्लिम समाज के रहनुमाओं को खुलकर मुस्लिम समाज से आह्वान करना चाहिए कि निकलिए घरों से बाहर और इंसाफ़ मांगिए।
छोटे से छोटे और बड़े से बड़े सामाजिक या अन्य अपराध का बोझ किसी भी धर्म या मज़हब पर तब तक नहीं डाला जा सकता जब तक सामूहिक रूप से, व्यवस्थित तरीक़ों से, पूरी तरह योजना बनाकर ऐसी घटनाओं को बृहद स्तर पर अंजाम न दिया जा रहा हो। जैसा कि आईएसआईएस का तरीक़ा-ए-कार है। आईएसआईएस के आतंकवादी भी योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम बच्चियों, युवतियों और महिलाओं को उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार तक करते हैं। उसकी पीड़ा जितनी मुस्लिम परिवारों को होती है क्या वही पीड़ा मासूम ट्विंकल के परिजनों को न हो रही होगी। एक मासूम की हत्या करने वाला क़ुरआन की दृष्टि से मुसलमान ही नहीं हो सकता। एक बात और, इस बात को भी गांठ मार लेना चाहिए कि बलात्कार या बेक़सूरों की मौतों पर किसी भी धर्म या राष्ट्र की धार्मिक किताब या संविधान की सहमति नहीं होती है। लेकिन जो लोग आसिफ़ा बनाम ट्विंकल का छद्म युद्ध लड़ रहे हैं वह सही मायने में कहीं न कहीं इस खेल को और वीभत्स बना रहे हैं।
हमारी सभ्यता और संस्कृति के मुताबिक हमारे यहां महिलाओं और बच्चियों के साथ होने वाले अपराध के प्रति हमारा समाज काफी संवेदनशील माना जाता है और इसके ख़िलाफ़ मुखर होकर आवाज़ भी उठाता है। लेकिन विडंबना यह है कि धर्म की पहचान करने के बाद उस अपराध के खिलाफ यही समाज अपनी सुविधानुसार आवाज़ उठाता है। यह एक प्रकार की हैवानियत है जो उसी समाज में होती है जहां विभिन्न धर्म, भाषा, प्रांत या अलग-अलग तबक़े के लोग रहते हैं। ऐसे में अपने समाज की तरफ़दारी कहीं न कहीं अपराध को अंजाम देने वाले लोगों को पनाह देती नज़र आती है। ऐसे लोग एक पक्ष का समर्थन पाकर अपने नापाक चेहरे को छुपाने में कामयाब रहते हैं। कठुआ मामले में हम यह देख चुके हैं। अपराध को समर्थन किसी भी नज़रिए से उचित नहीं है। मुसलमानों को अब खुलकर इस विषय पर बोलने का वक़्त आ गया है। इस बात को अब समझना होगा कि मज़हबी दंगों का बोझ अब हिंदू या मुसलमान नहीं उठा सकते। यह काम अब सियासत के बहकावे में आने वाले चंद लोगों के ज़िम्मे ही बचा है। आसिफ़ा और ट्विंकल के साथ हुई घटना से धर्मांध हो चुकी जनता के लिए अब अन्य मूलभूत या अन्य भावनात्मक मुद्दों का ज्वार पैदा नहीं किया जा सकता। भूख, बेरोज़गारी, अशिक्षा जैसे मुद्दे उठाने वाले कम मिलेंगे लेकिन आसिफ़ा या ट्विंकल की मौत पर धार्मिक विद्वेष फैलाने वाले ज़्यादा। ऐसे लोगों को पहचानना वक़्त की ज़रूरत है। हम विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के क़रीब पुहंच रहे हैं और उलझे हैं धार्मिक मतभेद में। 'डिजिटल भारत' और 'न्यू इंडिया' जैसे स्लोगन तब तक सफलता की कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते जब तक आसिफ़ा और ट्विंकल जैसी मासूम बच्चियां अपराधियों का निशाना बनेंगी। हम विश्वगुरु तब तक नहीं बन सकते जब तक मासूम बच्चियों के बलात्कारियों और हत्यारों का पक्ष धार्मिक आधार पर लेते रहेंगे। होना तो यह चाहिए कि धर्म से परे हर एक आरोपी को दरिंदगी की सिर्फ़ एक सज़ा मिलनी चाहिए, सज़ा-ए-मौत। फिर चाहे आरोपी कोई मौलवी हो या पुजारी।
चुनावी घमासान और सरकार के बन जाने के बाद यह लगने लगा था कि देश पुनः पटरी पर चल निकला है। लेकिन महसूस किया जा रहा है कि देश के वातावरण में अब भी विषैली हवाएं बह रही हैं। चारों तरफ अपने-अपने हित साधने के नाम पर ध्रुवीकरण का खेल चल रहा है। अख़बारों और टीवी माध्यम के साथ ही सोशल मीडिया के रणबांकुरों ने युद्ध छेड़ रखा है। पहले तो जानवर, फल और सब्ज़ियों को रंगों में बांट कर उसका धर्म बताया जाने लगा और अब तो यहाँ तक बात पहुँच गई कि अपराध भी जाति और धर्म के आधार पर आंका जाने लगा है। सुधिजन थोड़ा सोच विचार कर बताएं क्या यह उचित है? न्याय की मांग सबके लिए समान होनी चाहिए। एक बात और याद रखें, जैसे दरिंदगी का कोई धर्म नहीं होता बिलकुल उसी तरह इंसाफ़ का भी कोई धर्म नही होता। मुस्लिम समाज को अब यह फ़ैसला ले लेना चाहिए कि मासूमों के बलात्कारियों और हत्यारों का वे न सिर्फ़ कभी समर्थन नहीं करेंगे बल्कि उनका सामाजिक बहिष्कार भी करेंगे। मज़लूम के साथ खड़ा होना भी जिहाद है। यह जिहाद बेशक आईएसआईएस का नकली और छद्म जिहाद नहीं बल्कि मानवता के लिए, मानवीय मूल्यों के लिए खड़ा रहने वाला जिहाद होगा, जिसकी शिक्षा पवित्र क़ुरआन शरीफ़ से भी दी जाती रही है। मुसलमानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हर मुसलमान के घर में मां, बहन, बीवी, बेटी सहित अनेक रूपों में आसिफ़ा और उसी जैसी ट्विंकल रहती हैं। उनकी रक्षा करना, उनके हक में आवाज़ उठाना हर मुसलमान का अहम फ़रीज़ा है। और इस फ़रीज़े को अपने हमवतन भाइयों के साथ पूरा करना भी अल्लाह की नज़र में जिहाद ही माना जाएगा, इंशाअल्लाह....!!