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शांति का स्थल बने, आह का ठिकाना नहीं / सैयद सलमान
Friday, May 24, 2019 4:34:06 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 24 05 2019

देश में जारी आम चुनाव के बीच सऊदी अरब से आई एक ख़बर दबकर रह गई जो मुस्लिम समाज से जुड़ी थी। ख़बर के मुताबिक़ सऊदी अरब ने अपने ही देश के ३७ लोगों के सिर क़लम कर दिए। रूढ़िवादी राजशाही में आम तौर पर मौत की सज़ा सिर क़लम करके ही दी जाती है। आतंकवादी और चरमपंथी विचारधारा अपनाने, सुरक्षा को अस्थिर करने, सरकार के विरोध में प्रदर्शन करने और आतंकवादी प्रकोष्ठ बनाने के आरोप में इन लोगों को मौत की सज़ा दी गई। ग़ौरतलब है कि सऊदी अरब में राजनीतिक असंतोष और इससे जुड़ी गतिविधियों को भी आतंकवाद की श्रेणी में रखा जाता है। इसकी सज़ा मौत ही मुक़र्रर है। उन्हें ये सज़ा रियाद, मक्का और मदीना, क़ासिम प्रांत और पूर्वी प्रांत में दी गई। सऊदी अरब का कहना है कि ये फ़ैसला सबूतों के आधार पर शाही आदेश और कोर्ट की सहमति से लिया गया। आतंकवाद और दंगे भड़काने जैसे आरोप अक्सर सुन्नी बहुल सऊदी अरब में शिया कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ लगाए जाते रहे हैं। मानवाधिकारों के लिए काम कर रही संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस बात की तरफ इशारा किया कि, जिन लोगों को मौत की सज़ा दी गई उन्हें फ़र्ज़ी मुक़दमों में फंसाया गया। उन्हें यातनाएं देकर उनसे बलपूर्वक लिए बयानों के आधार पर कार्रवाई की गई। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक़ यह कार्रवाई न सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय मानकों का उल्लंघन है बल्कि इससे पता चलता है कि सऊदी अरब किस तरह से शिया मुसलमानों का असंतोष दबाने के लिए मौत की सज़ा का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहा है।

आकंड़ों के अनुसार सऊदी अरब में इस साल की शुरुआत से लेकर अब तक कम से कम १०० लोगों को मौत की सज़ा दी जा चुकी है। अनेक शिया कार्यकर्ताओं को फांसी की सज़ा दी गई है। इस से पहले साल २०१६ में भी सऊदी ने आतंकवाद के जुर्म में ४७ लोगों को मौत की सज़ा दी थी। इसमें मशहूर शिया आलिम निम्र अल निम्र भी शामिल थे। इस पर ईरान ने सऊदी अरब को ख़ूब खरी-खरी सुनाई थी। दरअसल ईरान के साथ असहज रिश्तों की बुनियाद पर ख़ासकर शिया मुसलमानों को मौत की सज़ा देने के आरोप सऊदी अरब पर लगते रहे हैं। सऊदी अरब में प्रदर्शन करना या फिर राजनीतिक पार्टियों का गठन पूरी तरह से प्रतिबंधित है। पिछले कुछ सालों में दर्जनों मौलवी, बुद्धिजीवी, कई प्रदर्शनकारी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को मौत की सज़ा मिल चुकी है। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं जो रूढ़िवादी मुस्लिम देश में महिलाओं की ड्राइव के लिए अभियान चला रही थीं। सऊदी अरब में पूर्ण राजशाही शासन है। ऐसे में सऊदी अरब में एक मख़सूस तबक़े के लोगों को मौत की सज़ा देने पर सवाल उठना स्वाभाविक है। मुस्लिम समाज भी इस घटना से हतप्रभ है। दक्षिणपंथी समूहों के मुताबिक यह सब राजनीति से प्रेरित होता है। क्षेत्रीय दुश्मन और शिया ताक़त ईरान के साथ तनाव बढ़ने के नज़रिये से भी इसे देखा जा रहा है। शिया समुदाय के पक्ष में विश्व का कोई बड़ा मुल्क सऊदी अरब की मुख़ालिफ़त में खड़ा नहीं हुआ है, इस बात से भी शिया समुदाय में नाराज़गी है।

एक अनुमान के अनुसार, शियाओं की संख्या मुस्लिम आबादी की १० प्रतिशत यानी १२ से १७ करोड़ के बीच है। ईरान, इराक़, बहरीन, अज़रबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है। इसके अलावा, अफ़गानिस्तान, भारत, क़ुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, क़तर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ़ अमीरात में भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है। उन देशों में जहां सुन्नियों की सरकारें है, वहाँ शियाओं के प्रति भेदभाव आम बात है। कुछ चरमपंथी सुन्नी सिद्धांतों ने शियाओं के ख़िलाफ़ घृणा को बढ़ावा दिया है। साल १९७९ की ईरानी क्रांति से उग्र शिया इस्लामी एजेंडे की शुरुआत हुई। इसे सुन्नी सरकारों के लिए चुनौती के रूप में माना गया, ख़ासकर खाड़ी के देशों के लिए। ईरान ने अपनी सीमाओं के बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया जिसे खाड़ी के देशों ने चुनौती के रूप में लिया। खाड़ी देशों ने भी सुन्नी संगठनों को इसी तरह मजबूत किया जिससे सुन्नी सरकारों और विदेशों में सुन्नी आंदोलन से उनसे संपर्क और मज़बूत हुए। लेबनान में गृहयुद्ध के दौरान शियाओं ने हिज़्बुल्ला की सैन्य कार्रवाइयों के कारण राजनीतिक रूप में मज़बूती हासिल कर ली। पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी संगठन अक्सर शियाओं के धार्मिक स्थानों को निशाना बनाते रहे हैं। ईरान और इराक़ के बीच अस्सी के दशक में चली लंबी लड़ाई भी सुन्नी-शिया टकराव के तौर पर देखा जा सकता है।

मध्य-पूर्व में दो बड़ी ताक़तें हैं, ईरान और सऊदी अरब। इन दोनों के आपसी रिश्ते काफ़ी कटु हैं, और दोनों ही पूरे क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करने में जुटे हैं इसलिए बार-बार टकराव की स्थितियाँ पैदा होती हैं। सऊदी अरब कट्टरपंथी सुन्नी वहाबी इस्लाम का गढ़ है, हालांकि क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने कई सामाजिक और आर्थिक सुधाराें काे लागू कर विश्व भर को बदलाव का संकेत दिया है। जबकि ईरान शिया बहुल देश है। दोनों ही देशों की राजनीति और कूटनीति में धर्म ही केंद्र में है। पूरी दुनिया में सऊदी अरब ख़ुद को सुन्नी मुसलमानों का रहनुमा मानता है, तो ईरान ख़ुद को शिया मुसलमानों का झंडाबरदार मानता है। सऊदी अरब ख़ुद को इस धार्मिक आधार पर मुस्लिम देशों का अगुआ मानता है कि मक्का-मदीना उनके यहाँ है। एक आधार और भी है कि उसके पास पूरी दुनिया का सबसे बड़ा तेल भंडार है और वह अमरीका का दोस्त है। ईरान के संबंध न तो अमेरिका से ठीक रहे हैं, न ही सऊदी अरब से। सऊदी अरब को डर है कि ईरान मध्य-पूर्व पर हावी होना चाहता है, इसीलिए वह शिया नेतृत्व में बढ़ती भागीदारी और प्रभाव वाले क्षेत्र की शक्ति का विरोध करता है। ये भी समझने की बात है कि एक ही क्षेत्र में रहने के बावजूद सांस्कृतिक तौर पर अरब और ईरानी काफ़ी अलग रहे हैं।

ईरान और सऊदी अरब के बीच अविश्वास में एक बड़ा फ़ैक्टर अमरीका है। सऊदी अरब अमरीकी हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदारों में है। सुरक्षा सहित अपनी कई ज़रूरतों के लिए सऊदी अरब अमरीका पर निर्भर है, जबकि ईरान और अमरीका के बीच राजनयिक संबंध नहीं हैं। दूसरी ओर ईरान बहुत सारे मामलों में आत्मनिर्भर रहा है और उसने तमाम प्रतिबंधों और दबावों के बीच स्वतंत्र रूप से अपना परमाणु कार्यक्रम भी चलाए रखा है। सऊदी अरब और ईरान के बीच अगर टकराव बढ़ता रहा तो ज़ाहिर है कि इसके कई दूरगामी परिणाम होंगे। अमरीका की पुश्तपनाही ने सऊदी अरब को और निरंकुश किया है। जब इस्लामी मुल्कों में एकता की बात की जाती है तब ईरान के बिना इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में केवल ईरान को दबाने के लिए शिया मुसलमानों को एक के बाद अलग-अलग आरोप लगाकर सऊदी अरब में मौत के घाट उतारना ग़लत है। मुस्लिम विश्व को इस विषय पर सऊदी अरब से दो टूक बात करने की ज़रूरत है। अमेरिका का पिट्ठू बनकर रहने से सऊदी अरब को लाभ कम, हानि ज़्यादा हो रही है। इस बुनियाद पर एक दिन मुस्लिम मुमालिक का यह मुखिया अपनी विश्वसनीयता खो देगा।

एक बात और, धर्म की व्याख्या करने का अधिकार अगर सुन्नियों को है तो शिया समुदाय को भी उतना ही हक़ है। बहुमत और राजशाही के नाम पर शिया बिरादरी पर ज़ुल्म कहीं से जायज़ नहीं है। अगर वह सुन्नी बहुल देश में कमजोर और मज़लूम हैं तो इसकी ज़िम्मेदार वहां की सरकारें और राजशाही घराने हैं। और याद रहे, इस्लाम में कमज़ोर पर ज़ुल्म करना सख़्त गुनाह है। पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने ज़ालिम के लिए सख़्त अज़ाब की पेशनगोई की है। क्या पैग़ंबर मोहम्मद साहब की जन्मस्थली पर ज़ुल्म और अन्याय के लिए कोई जगह हो सकती है? क़त्तई नहीं। राजनैतिक मुद्दों को फ़िरक़ावाराना रंग देते रहने से एक दिन सऊदी अरब ख़ुद ही अलग-थलग पड़ जाएगा। इस बात से सऊदी अरब को भी वाक़िफ़ होना चाहिए। राजनैतिक स्वार्थ के लिए शिया समुदाय के सर क़लम करने का सिलसिला रोक कर सच्चे इस्लामी मुल्क होने का सबूत सऊदी अरब को ही देने की ज़रूरत है, क्योंकि मक्का-मदीना जैसे इस्लामी पवित्र तीर्थस्थल और पैग़ंबर मोहम्मद साहब की यह जन्मस्थली सबके लिए प्रेम और सौहार्द का सबसे बड़ा प्रतीक है। इसलिए इस्लामी नज़रिए से सऊदी अरब को शांति का स्थल होना चाहिए न कि मज़लूमों की आहों का ठिकाना।