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मूकदर्शक मुस्लिम समाज / सैयद सलमान
Friday, May 17, 2019 5:14:37 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 17 05 2019

लोकसभा चुनाव का केवल एक चरण बचा है और माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण में मुस्लिम फैक्टर ज्यादा असरदार नहीं है। इसलिए अब मुस्लिम मतों को लेकर राजनैतिक दलों की खींचतान में कमी दिखाई दे रही है। हालांकि, उत्तर प्रदेश की चंद सीटों पर मुसलमान निर्णायक तो नहीं, लेकिन सहायक की भूमिका में जरूर है। यानि वह किसी भी दल या उम्मीदवार की जीत में सहायक तो हो सकता है लेकिन निर्णायक नहीं होगा। पिछले ६ चरण के चुनाव का अगर जायजा लें तो सत्ता पक्ष, प्रमुख विपक्षी दल और तीसरे मोर्चे वाले महागठबंधन के बीच चली ध्रुवीकरण की राजनीति ने मुसलमानों को भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आप जैसी अपेक्षाकृत नई पार्टी ने तो खुलकर इस बात को स्वीकार भी किया कि मुस्लिम मतदाता इस बार पूरी तरह कन्फ्यूज रहा। राजनैतिक नजरिये से देखा जाए तो मुसलमानों का कन्फ्यूज रहना उनके हित में नहीं है। लेकिन मुसलमानों की समस्या यही है कि इस विषय पर गंभीरता से नहीं सोचते। मुस्लिम समाज को लेकर एक धारणा बनी थी कि पिछली ग़लतियों से वह कुछ सीख रहा है, लेकिन वह अब भी राजनैतिक रूप से काफ़ी अपरिपक्व है यह इस चुनाव ने साबित कर दिया है।

राजनैतिक रूप से भले ही मुसलमान ध्रुवीकरण का शिकार हुआ हो, लेकिन देखने में आया है कि अब सामाजिक रूप से वह काफ़ी मज़बूत हुआ है। अन्य धर्मावलम्बियों के साथ राजनैतिक कारणों से उसके रिश्ते अगर बिगड़े हैं तो सामाजिक स्तर पर उसमें ज़बरदस्त बदलाव आया है। देश में गाहे-बगाहे घटने वाली अनेक घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि मुस्लिम समाज बिरादरान-ए-वतन के साथ अपने पुराने रिश्तों को बरक़रार रखने की जो जद्दोजहद कर रहा है उसमें उसे कामयाबी मिलने लगी है। देश भर में अनेक ऐसी घटनाएं हुई हैं जिस से इस बात को बल मिलता है कि मुस्लिम समाज की स्वीकार्यता पुराने दिनों की तरह अपनी जड़ों को छू रही है। एक घटना है असम के लखीमपुर की। चुनावी मौसम में देश में हिंदू-मुस्लिम के नाम पर भले ही सियासत गर्म रही हो, लेकिन असम के लखीमपुर में दोनों कौमों के बीच भाईचारे की एक मिसाल सामने आई है। यहां पर एक हिंदू परिवार ने हिंदू-मुस्लिम एकता की नई इबारत लिखते हुए अपने पुरखों की ज़मीन का एक टुकड़ा मुस्लिम क़ब्रिस्तान बनाने के लिए दान में दे दिया। लखीमपुर के गोरेहागा गांव में करुणाकांत भुइयां के परिवार ने अपनी ज़मीन में से ०.८४ एकड़ क़ब्रिस्तान के लिए दान कर दी। दरअसल पुरानी क़ब्रिस्तान की ज़मीन लोगों को दफ़नाने के लिए कम पड़ने लगी थी, जिसके बाद भुइयां परिवार ने इस दिक्कत से मुसलमानों को निकालते हुए अपनी ज़मीन दान करने का फ़ैसला किया। कुछ दिनों पूर्व क़ब्रिस्तान कमेटी की एक बैठक के दौरान यह चर्चा चल रही थी कि क़ब्रिस्तान की ज़मीन को कैसे बढ़ाया जाए, इसी दौरान इस परिवार ने यह दान करने की घोषणा की। इस घटना के बाद से भुइयां परिवार की चारों तरफ़ प्रशंसा हो रही है। ख़ास बात यह भी है कि जो ज़मीन दान में दी गई है उस के बिल्कुल बग़ल में हिंदू श्मशान भूमि भी है। मुस्लिम समाज के ज़िम्मेदारों और क़ब्रिस्तान कमेटी ने अपने गांव के इन हिंदू भाइयों की इस पहल के लिए उनका आभार माना है। मुस्लिम समाज ने निर्णय लिया है कि भुइयां परिवार के सदस्यों को इस नेक कार्य के लिए सम्मानित किया जाएगा।

दूसरी घटना मध्य प्रदेश के इटारसी ज़िले की है, जहां से ऐसी ही एक और ख़बर सामने आई जो पूरे देश के लिए धार्मिक सद्भाव का उदाहरण है। इटारसी के केसला में राजगीर और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वाले मुस्लिम पिता-पुत्र रहमान और रिज़वान ने बिना एक पैसा लिए एक मंदिर बनाने के लिए १०० दिन तक बड़ी मेहनत और लगन से काम किया। इसके बाद मंदिर बनवाने वाली महिला इन दोनों से इतना ख़ुश हो गई कि मजदूर पिता-पुत्र के नाम एक एकड़ ज़मीन ही कर दी। गौरतलब है कि इटारसी निवासी सावित्री की मां भागवती शिवलाल ने ३५ साल पहले गांव में मढ़िया बनाकर ईष्ट देवी सिद्धिदात्री की पत्थर की प्रतिमा स्थापित की थी। पेशे से अध्यापिका सावित्री उइके 'मदर्स डे' पर माता का मंदिर बनवाकर अपनी स्‍वर्गवासी मां की आख़िरी इच्छा पूरी करना चाहती थीं। उन्होंने मुस्लिम कारीगर पिता-पुत्र रहमान और रिज़वान को मंदिर बनाने का काम सौंपा था। वक़्त कम था और मंदिर समय पर बनकर तैयार होना ज़रूरी था। दोनों पिता पुत्र ने सावित्री के सपनों को १०० दिन में साकार कर उनका दिल जीत लिया। मदर्स डे पर जब मंदिर में प्रतिमा की स्थापना कराई गई तब इसी यज्ञशाला में ब्राह्मणों ने रहमान और रिज़वान का तिलक कर उन्हें सम्मानित किया।

यहां क़ाबिल-ए-ग़ौर बात यह भी है कि जहां एक तरफ़ क़ब्रिस्तान के लिए ज़मीन देकर हिंदू भाइयों ने 'मुस्लिम समाज' को सहारा दिया वहीं दो मज़दूरों को ज़मीन देकर 'व्यक्तिगत' लाभ पहुंचाया। यानि सामाजिक और व्यक्तिगत, दोनों स्तर पर मुसलमानों का लाभ हुआ इसे स्वीकार करना होगा। और शायद यह तभी हो सका जब मुसलमानों ने भी अपनी तरफ़ से हिंदू भाइयों का विश्वास जीता। मंदिर-मस्जिद की सियासत के बीच मंदिर निर्माण के लिए बिला मुआवज़ा अपनी सेवा देना किसी का भी दिल जीत सकता है। बार-बार इसी 'अख़लाक़' और 'भलमनसाहत' वाले स्वभाव पर इस्लाम ज़ोर देता रहा है। दरअसल यही इस देश की ख़ूबसूरत रवायत रही है कि सभी धर्म के लोग एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें। वर्तमान राजनैतिक परिवेश में ऐसे इक्का-दुक्का लेकिन सशक्त उदहारण इस बात की उम्मीद जगाते हैं कि हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ें गहरे तक एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। देखा गया है कि परस्पर शंका और अविश्वास के बढ़ने से अक्सर सामाजिक विभाजन इतना अधिक हो जाता है कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले अपनी बस्तियाँ एक दूसरे से अलग बसाने लगते हैं। यही अलगाव कई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक कारणों के साथ सांप्रदायिक अथवा जातीय विभाजन का कारण बनता है। धार्मिक-उन्माद में पड़कर समाज यह भूल जाता है कि भविष्य का निर्माण इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से नहीं होता। सामाजिक ताने-बाने को क़ायम रखने के लिए भुइयां परिवार और सावित्री जैसे विचारों की ज़रूरत होती है। मुस्लिम समाज जब यह कहता है कि वह अन्य मुस्लिम देशों के मुसलमानों की अपेक्षा हिंदुस्तान में अधिक सुखी है तो उस विश्वास के पीछे ऐसे ही सावित्री और भुइयां परिवार के विश्वास और प्रेम की शक्ति होती है।

यह तो सर्वविदित है कि हिंसा का किसी धर्म में कोई स्थान नहीं है और दुनिया का कोई भी धर्म घृणा नहीं सिखाता है। जो लोग धर्म को हिंसा, अलगाववाद और भेदभाव के लिए इस्तेमाल करते हैं वे अपने धर्म के प्रति सच्चे वफ़ादार कैसे हो सकते हैं। मुस्लिम नामधारी आतंकी संगठन इसकी ज़िंदा मिसाल हैं जिनके कुकर्मों से पूरी दुनिया का मुसलमान परेशान है। वह सिर्फ़ और सिर्फ़ इन आतंकी गुटों की करतूतों के कारण शक़ के दायरे में है, उसके ख़िलाफ़ सख़्ती हो रही है और वह अनेक देशों में सरकारी तंत्र के ज़ुल्म सह रहा है। इसलिए मुस्लिम समाज को यह ध्यान में रखना चाहिए कि धर्म-संप्रदाय की राजनीति के अगुवा असल में शोषणकारी व्यवस्था से अपना निहित स्वार्थ साध रहे होते हैं। मुस्लिम समाज के अधिकांश पूंजीपति, पुराने नवाबज़ादे, नौकरशाह और नये-नये सत्ताधीश सत्ता के दलाल बने बैठे हैं। मुस्लिम समाज के प्रबुद्ध वर्ग से यह उम्मीद की जाती है कि वह मुस्लिम समाज की अशिक्षा, कुरीतियों, कट्टरपंथ और समाज को तोड़ने वाली दुष्प्रवृत्तियों का विरोध करेगा। लेकिन यह वर्ग आज की उपभोक्ता संस्कृति का शिकार होकर मूकदर्शक बना हुआ है। वह अपने दायित्वों का निर्वाह करना भूल गया है। मुस्लिम राजनेताओं और कठमुल्लेपन की आड़ में इस्लाम की ग़लत व्याख्या करने वालों को जब तक मुसलमान नहीं पहचानेगा, यूँ ही वह अलग-थलग पड़ता जाएगा। कई ऐसे भुइयां परिवार और सावित्री जैसी सोच के लोग आज भी मानवता की मशाल जलाए हुए हैं जिसे बढ़कर थामने की ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज की है। वक़्त आ गया है कि मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध और बुद्धिजीवी वर्ग अपने समाज के भीतर बढ़ती विघटनकारी प्रवृत्तियों का गहराई से अध्ययन करे और कट्टरवाद के ज़हर को रोके। हिंदुस्तान में आपसी प्रेम और सौहार्द की गंगा-जमनी धारा सतत बहती रहे, इसके लिए अब मुस्लिम समाज की ओर से गंभीर प्रयास करने की ज़रूरत है।


@सैयद सलमान