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नींद से जागो....! / सैयद सलमान
Friday, May 3, 2019 10:24:50 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 03 05 2019

लोकसभा आम चुनाव के चार चरण पूरे हो चुके हैं। चौथे चरण के मतदान के साथ ही मुंबई सहित महाराष्ट्र की सभी सीटों के चुनाव भी संपन्न हो गए। अंतिम चरण के चुनाव तक देश भर में जीत-हार की संभावनाओं और सरकार के बनने-बिगड़ने का मामला चर्चा में रहेगा। चार चरणों के चुनाव के बीच और उस से पहले भी मुस्लिम समाज का यही रोना रहा है कि लोकसभा में मुस्लिम सांसदों का प्रतिनिधित्व घट रहा है। उन्होंने तक़रीबन सभी दलों से ज़्यादा टिकट की गुहार लगाई थी लेकिन नाकामी हाथ लगी। २०११ की जनगणना के अनुसार, देश की मुस्लिम आबादी १७.२ करोड़ है। यह दुनिया के किसी भी देश में मुसलमानों की तीसरी सबसे ज़्यादा बड़ी आबादी है। लेकिन लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व १० प्रतिशत से भी कम है। यह मुद्दा चिंता का विषय इसलिए भी है, क्योंकि संसद देश के सामाजिक ताने-बाने और सभी समाज के योग्य प्रतिनिधित्व का केंद्र है। जहां उचित प्रतिनिधित्व की सूरत में समाज के हित की संभावना बनी रहती है। हालांकि मुस्लिम उम्मीदवारों के मामले में इस बार भी किसी दल ने बहुत बड़े दिल से काम नहीं लिया है। लेकिन क्या सिर्फ़ अधिक उम्मीदवारी देकर मुस्लिम समाज का भला हो सकता है? यह चिंतन का विषय भी है और बहस का मुद्दा भी। क्योंकि मुस्लिम समाज का अनुभव रहा है कि उसके समाज के प्रतिनिधि चुनाव जीतकर सदन का सदस्य बनते ही अपने-अपने दलों में, अपनी जगह बनाने में लग जाते हैं और समाज कहीं पीछे छूट जाता है। उनकी ऊर्जा, उनकी सोच और उनकी राजनीति अपने दल के बचाव और अपनी सीट सुरक्षित रखने तक महदूद हो जाती है।

मुस्लिम समाज के प्रति राजनैतिक दलों की उदासीनता का कारण मुस्लिम समाज के भीतर से उठती वह आवाज़ें हैं, जो ख़ुद को अल्पसंख्यकों का सरगना मानती हैं। पिछली सरकारों ने मुस्लिम मतों को साधने के लिए उनकी मुंह-भराई में कोई कमी नहीं की। तुष्टिकरण का लॉलीपॉप थमाकर मुस्लिम समाज को पंगु बना दिया गया। पहले की सरकारें हमेशा से ही मुसलमानों के प्रति दया भाव दिखाती नज़र आती थीं। हालाँकि यह मात्र दिखावा ही रहा क्योंकि असल में तो उनकी अनदेखी ही की गई। कांग्रेस की सरकारें भी मुसलमानों से भेदभाव में पीछे नहीं रहीं, ऐसा मानने वाले मुसलमानों की कमी नहीं है। लेकिन पर्याय न होने का रोना रोकर मुसलमान कांग्रेस सहित उन दलों से चिपके रहे जहाँ से उन्हें कथित सेक्युलरिज्म की चाशनी मिलती रही। उन्हें दक्षिणपंथी संगठनों और उसी विचारधारा के राजनैतिक दलों का भय दिखाया जाता रहा। सुरक्षा की आस में मुसलमानों ने इसीलिए कांग्रेस सहित अन्य कथित सेक्युलर दलों का दामन थामे रखा। ऐसी पार्टियों और सरकारों ने मुसलमानों के वोट उन्हें बराबरी, इंसाफ़ और विकास देने के नाम पर कभी नहीं माँगा। इन पार्टियों ने मुसलमानों को हमेशा उनके मज़हब के नाम पर भड़काया। उन्हें भड़का कर देश में तनाव का माहौल बनाया जाता था। ऐसे हालात में फिर ऐसी पार्टियां उन्हें यह भरोसा देकर वोट मांगती थीं, कि वो उनकी मज़हबी पहचान की रक्षा करेंगी। नतीजा यह हुआ कि इस दौरान मुस्लिम समाज का विकास ठप पड़ता गया। तालीम, नौकरी, सेहत और आधुनिकता के मोर्चों पर भारत के मुसलमान बाक़ी आबादी से पिछड़ते ही चले गए। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट इस बात की गवाह है।

मुसलमानों की हमेशा से यह मांग रही है कि उनके बीच से निकल कर आने वाले नेताओं को टिकट देकर लोकसभा में भेजने का इंतज़ाम किया जाए। विभिन्न दलों से कुछ तेज़-तर्रार नेताओं को टिकट मिले भी, वे जीते भी, मंत्री भी बने लेकिन मुसलमानों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। तो क्या मुसलमानों को नए सिरे से यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्हें दरअसल राजनैतिक दलों के सामने मांग क्या रखनी चाहिए? क्या अधिक टिकट मांगकर उनकी समस्याएं दूर हो गई हैं? क्या एकाध अपवाद छोड़कर कोई ऐसा मुस्लिम राजनैतिक रहनुमा है जिसने पार्टी और निजी फ़ायदे के बजाय मुसलमानों के उत्थान को महत्व दिया हो? बैंक बैलेंस उनके बढ़े, झोलियाँ उनकी भरीं, लेकिन आम मुसलमानों की जेबें खाली रहीं। कोठी-बंगले उनके बने और आम मुसलमान अपनी छत और कुटिया को तरसता रहा। न तो मुसलमानों की शिक्षा की ओर ध्यान दिया गया, न उनके उद्योग-धंधों को किसी प्रकार की मदद मुहैया कराई गई। क्या ऐसे मुसलमानों को टिकट दिलाने, उनकी जय-जयकार करने और उनका बंधुआ मजदूर और उनकी भीड़ बनने का नाम ही चुनाव होता है? नहीं, चुनाव सबको बराबरी का हक़ देता है। अपनी समस्याओं को प्रशासन तक पहुंचा कर उसका समाधान निकालने का सामर्थ्य रखने वाले को चुनकर लाने का नाम चुनाव होता है। धार्मिक, सांप्रदायिक, प्रांतीय, भाषाई और कस्बाई ध्रुवीकरण का नाम तो चुनाव कत्तई नहीं होता। लेकिन मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि उसके शुभचिंतक मुस्लिम राजनेता और कथित सेक्युलर दल के नेता उन्हें इसी ध्रुवीकरण के खेल का मोहरा बनाकर अब तक रखे हुए हैं और मुसलमान 'उफ़्फ़' तक करने की स्थिति में नहीं है। वह भीड़ बनकर 'मुसलमानों को ज़्यादा टिकट दो' के नारे लगाता मिल जाएगा, लेकिन कहीं यूनिवर्सिटी, अस्पताल, हाईटेक मदरसों की मांग लेकर नहीं उतरेगा। ज़रा सोचिये, क्या यह मुसलमानों के हित में है?

सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण हमारी राजनीति की ख़तरनाक सच्चाई है और इस बात से आज के दौर में कोई इंकार नहीं कर सकता। तो क्या हम उसका मोहरा बनते रहेंगे? इन विचारों के सामने डट कर खड़े होने की ज़रूरत है। मुसलमानों को सिर्फ़ एक धार्मिक-सांस्कृतिक समूह के तौर पर देखने का नज़रिया बदलने के लिए खुद मुसलमानों को आगे आना होगा। हिंदू हो या मुसलमान, सबको शिक्षा, रोज़गार, सड़क, पानी, बिजली, सुरक्षा की दरकार है। क्या पूरे चुनावी प्रचार के दौरान किसी मुस्लिम रहनुमा के मुंह से इन मुद्दों का ज़िक्र सुना है? क्या किसी मुस्लिम रहनुमा ने मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों, सकारात्मक सोच के उलेमा या शिक्षाविदों से कभी इस विषय पर मश्वरा कर अपनी मांगों का ब्यौरा तैयार किया है? या अपनी तरफ़ से बनाये जाने वाले घोषणापत्र में मुस्लिम समाज की प्रगति के लिए किये जाने वाले मुद्दों का ज़िक्र किया है? नहीं किया है। नहीं इसलिये किया है, क्योंकि इन मुद्दों को लेकर मतदाताओं से वोट मांगने में छोटेपन का एहसास होता है। लच्छेदार भाषा, भावनात्मक मुद्दे और आक्रामक भाषण शैली से जब 'इस्लाम और मुसलमान ख़तरे में है' जैसी घोषणा करते हुए चुनावी माहौल बनाया जा सकता है, तो फिर मूल समस्याओं को उठाने की भला क्या ज़रूरत है? मुस्लिम समाज की सबसे पड़ी परेशानी उनकी मानसिकता को लेकर है। जब तक मुस्लिम समाज अपनी मानसिकता को बदलने के लिए ख़ुद से तैयार नहीं होता, तब तक कोई उनका भला नहीं कर सकता। और अगर मुस्लिम समाज जागृत नहीं होता, तो यह तय है कि तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक पार्टियां उसे यूँ ही बेवक़ूफ़ बनाती रहेंगी।

मुस्लिम समाज को अब यह निर्णय ले लेना चाहिए कि वह सभी दलों के सम्मुख अपनी शिक्षा, रोजगार, सड़क, पानी, बिजली, सुरक्षा जैसे मुलभुत मुद्दों को उठाएगा। राजनैतिक दल जो भी हो, अगर उसे पूरा करता है तो उसके साथ जाने में हर्ज क्या है। राजनैतिक विरोध अपनी जगह, लेकिन किसी भी दल को अस्पृश्य बनाकर उस दल से ख़ुद को काट लेने का ख़ामियाज़ा आज मुसलमान भुगत रहा है। जिन दलों को अस्पृश्य समझा, वह तो अब मुसलमानों के बिना अपनी पार्टी की सफलता की रणनीति बनाते हैं और जिनके पीछे दुमछल्ले बने मुसलमान घूमता है, वह भी अब घास नहीं डालते। उदहारण मुंबई में हुए चुनाव हैं जहाँ ६ सीट में से एक सीट की मांग को लेकर मुसलमानों के कई प्रतिनितिधि मंडल ने कांग्रेस आलाकमान से बात की। कई प्रायोजित बैठकें कर किसी एक मुस्लिम उम्मीदवार को उतारने की गुहार लगाई गई, लेकिन कांग्रेस टस से मस नहीं हुई और टका सा जवाब देकर मुसलमानों को उनकी औक़ात बता दी गई। लेकिन मुसलमान नहीं सुधरेंगे। वह उन्हीं नेताओं के चक्कर काटेगा, उन्हीं की जी हुजूरी करेगा, उन्हीं के जूते उठाएगा, उन्हीं की गालियां सुनेगा। आख़िर क्यों न सुने, उसके ये रहनुमा भी तो यही करते हैं। आख़िर वह भी तो अपनी पार्टी आलाकमान के और उनके निकटस्थ चमचों के चाटुकार हैं। ऐसे में वह अपनी पार्टी की सुनेंगे या अवाम की? अपनी कुर्सी उन्हें प्यारी है, समाज की अवस्था बदतर होती रहे तो उनकी बला से। अगर मुसलमानों को अपनी आने वाली नस्लों की तरक़्क़ी की फ़िक्र है, वह चाहते हैं कि नई पीढ़ी ध्रुवीकरण के जंजाल से निकलकर राष्ट्र की मुख्यधारा का हिस्सा बने, तो मुसलमानों को नींद से जागने और अब तक की बनी-बनाई बेड़ियों को तोड़ने की ज़रूरत है।