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अपने नेताओं से क़ौम को नुक़सान / सैयद सलमान
Friday, March 22, 2019 10:16:30 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 22 03 2019

लोकसभा चुनाव की तारीख़ों के ऐलान के बाद से तमाम राजनैतिक पार्टियां दूसरे दलों से राजनैतिक फ़ायदे नुक़सान का ख्याल रखते हुए गठबंधन करने, नए साथी ढूंढने, पुराने साथियों को मनाने में व्यस्त हैं। दूसरे दलों में तोड़फोड़ करने से लेकर एक दूसरे से बरतरी हासिल करने की जुगत लगाकर सभी दल कमर कसकर बैठे हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए हर प्रयत्न हो रहा है। देशभर में चर्चा इस बात पर हो रही है कि नतीजा क्या आ सकता है और नतीजों का देश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा। मतदाताओं का रुझान जानने के प्रयास हो रहे है। चर्चा इस बात पर भी हो रही है इस देश का अन्नदाता किसान क्या सोचता है, देश की रक्षा के लिए तैनात देश का जवान क्या सोचता है, देश की महिलाएं क्या सोचती हैं, छात्र क्या सोचता है। और चर्चा इस बात पर भी हो रही है कि इस देश का मुसलमान इस चुनाव में क्या रुख़ अपनाएगा और किस पार्टी के साथ जाएगा।

जब कोई धर्म, संप्रदाय, जाति, बिरादरी या समाज चुनावों में किसी ख़ास दल का साथ देता है तो उसकी कुछ उम्मीदें होती हैं। उन उम्मीदों को पूरा कराने के लिए राजनैतिक दलों के इर्द गिर्द इकठ्ठा होने और भीड़ बनने की मशक़्क़त ही अब लोकतंत्र का अहम हिस्सा बन गई है। ऐसे में एक सवाल तो उठता ही है कि देश के चुनाव को लेकर मुसलमान क्या सोचता है? वो किस बुनियाद पर ये फ़ैसला करेगा कि किसका साथ दे? आख़िर मुस्लिम समाज को क्या चाहिए? इन सवालों का ठीक-ठाक कोई जवाब नहीं मिल पाता। अव्वल तो इसलिए कि, मुस्लिम समाज पूरी तरह से बंटा हुआ है। उसका राष्ट्रीय स्तर का कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं है, जिसके पीछे चलकर वह अपनी बात रख सके या उनकी रखी बातों से सहमत हो सके। जितने मुस्लिम नेता, उतने उनके अपने एजेंडे। कम पढ़े लिखे मुसलमानों को भावनात्मक और इस्लाम खतरे में जैसे विवादित मुद्दों में इस क़दर उलझा दिया गया है कि वह बुनियादी मसलों पर सोच ही नहीं पा रहा। लेकिन अगर बात इस्लाम पर कथित ख़तरे की हो, तो सड़कों पर लाखों की संख्या में उतर आते हैं। कभी-कभार तो आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों की भी नहीं सुनते और हंगामा कर बैठते हैं।

उदहारण के तौर पर आज़ाद मैदान में इकठ्ठा हुए मुसलमानों का हवाला दिया जा सकता है। बता दें कि ११ अगस्त २०१२ को असम और म्यांमार में जारी सांप्रदायिक दंगों का निषेध करने के लिए आज़ाद मैदान में मुस्लिम समाज के चंद संगठनों ने सभा का आयोजन किया गया था। सभा के समाप्त होते ही कुछ लोगों ने आज़ाद मैदान और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस इलाक़े में हिंसा और तोड़फोड़ शुरू कर दी थी। इस दौरान ९२ लोग ज़ख़्मी हुए जिसमें ७६ पुलिसकर्मी शामिल थे। इस हिंसा में २ लोगों की मौत हो गई थी। लगभग पौने तीन करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया था। हिंसा की इस वारदात के दौरान महिला पुलिसकर्मियों के साथ बदसलूक़ी करने के साथ-साथ कुछ दंगाइयों ने क़रीब के ‘अमर जवान ज्योति’ स्मारक को क्षतिग्रस्त कर दिया था। इसके अलावा पुलिसकर्मियों के दो एसएलआर, एक पिस्तौल और कई कारतूस छीनकर हवा में फ़ायरिंग की थी। आख़िर इस आंदोलन का लाभ क्या था? मुस्लिम समाज को आख़िर इस आंदोलन से क्या आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक लाभ मिलना था? इस आंदोलन के आयोजक और शामिल हुए मुस्लिम समाज के पास शायद ही इसका जवाब हो। भावनात्मक मुद्दों पर भीड़ इकठ्ठा कर लेना और बात है, जबकि उसे नियंत्रित करना बिलकुल अलग बात।

बुनियादी तौर पर यह बात सच है कि मुसलमान अब भी अतीत में ही उलझा हुआ है या उलझा दिया गया है। देश की तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को सुरक्षा के नाम पर वोट देकर उनके हाथों ब्लैकमेल होते रहने में ही शायद मुसलमानों को मज़ा आता है। आख़िर ऐसा क्यों है कि लाउडस्पीकर पर अज़ान, बीफ़ की दुकान, मदरसों में मुसलमान, बाबरी पर घमासान के सिवा मुस्लिम समाज को कुछ नहीं चाहिए? शिक्षा, रोज़गार, अस्पताल, बिजली, पानी और और दीगर मूलभूत सुविधाओं के साथ ही नई युनिवर्सिटी, स्कूल या कॉलेज की मांग को लेकर सड़क पर उतरकर उसे आंदोलन करने से आख़िर किसने रोका है। लेकिन नहीं, ऐसे आंदोलन क्यों करेंगे जिसमें बड़े राजनैतिक लाभ की गुंजाइश कम नज़र आती हो? वजह साफ़ है, क्योंकि आम मुसलमान ज़्यादातर अपने धर्म से आगे कुछ सोचते ही नहीं हैं। और यही उनकी ग़रीबी, पिछड़ेपन और जिहालत का वास्तविक कारण है। जिसपर ग़ौर किया नहीं जाता। और जो ग़ौर करने की बात करता है उसे गंभीरता से लेने के बजाय हाशिए पर कर दिया जाता है। संविधान के तहत मुसलमान हो या कोई अन्य समाज सबको शिक्षा, रोज़गार, सड़क, पानी, बिजली, सुरक्षा का प्रावधान एक सामान है। लेकिन 'विभाजित करो और राज करो' की नीति को नहीं छोड़ने वाले रहनुमाओं से मुसलमान किनारा कशी करे तब न उसकी आँख खुले। कट्टरपंथी मुसलमानों का संकीर्ण मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाना भी एक बड़ी समस्या है। मुस्लिम समुदाय कुछ विशेष दलों के हाथ की कठपुतली जब बना था तब शायद वैसा करना उसकी मजबूरी रही हो, लेकिन अब शिक्षित और प्रगतिशील विचारों वाले मुस्लिम नौजवानों में जागरूकता की कसमसाहट महसूस की जा रही है। ऐसे मुसलमानों को मुखर स्वर देकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े प्रश्नों पर अब काम करने का वक़्त आ गया है।

एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि आख़िर क्यों आज़ादी के ७२ साल बाद भी धार्मिक कट्टरता कम होने की जगह बढ़ती जा रही है? देश में हर आतंकवादी घटना को एक समुदाय विशेष से जोड़कर पूरी क़ौम को अछूत बनाया जाता रहा है। सबसे अफसोसनाक यह है कि देश का पढ़ा-लिखा तबका भी सामाजिक समस्याओं पर नकारात्मक नज़रिए से ही सोच रहा है। और तब भी मुस्लिम समाज की आँखों पर बंधी पट्टी नहीं खुल रही है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि आज के मुसलमान की पहचान या तो दंगाई के नाम से होती है या आतकंवाद के नाम से। अफ़सोस करने का मक़ाम है कि आज मुस्लिम क़ौम का जितना नुक़सान राजनीति ने किया है उससे ज़्यादा नुक़सान उन लोगों ने भी किया है जो इस क़ौम के नेता बने फिरते हैं। मस्जिदों में अज़ान देना मुसलमानों के लिए ज़रुरी है इस से किसी को इंकार नहीं, क्योंकि वह नमाज़ का एक अहम हिस्सा है। लेकिन क्या ब-आवाज़-ए-बुलंद उन बातों को नहीं उठाना चाहिए जो मुस्लिम समाज के जीवन यापन के लिए भी ज़रूरी हैं? मुस्लिम समाज को क्या एक हो कर यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि उनका शोषण क्यों होता है? और कौन लोग हैं जो उनको सिर्फ़ वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं और करते रहना चाहते हैं?

दरअसल किसी भी इंसान की ज़िंदगी में उसका धर्म एक सशक्त मौजूदगी रखता है और जब किसी भी समुदाय की पहचान उसकी भाषा, साहित्य, संस्कृति और खान-पान न होकर धर्म हो जाए तो आधुनिक परिवेश में उस समाज को दिक़्क़तें तो पेश आएंगी ही। यही मुस्लिम समाज के साथ हो रहा है। मुस्लिम समाज के उलेमा और रहनुमाओं को ईमानदारी से इस प्रश्न का जवाब ढूँढना होगा कि मुसलमानों को दर-हक़ीक़त चाहिए क्या। मुस्लिम समाज को चाहिए तालीम। और तालीम के साथ-साथ अब मुसलमानों के लिए ज़रुरी हो गया है कि वह भी आधुनिक, सभ्य, शिक्षित और विकासोन्मुखी समाज के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चले। जब तक मुसलमान पूर्णतया शिक्षा के दामन को नहीं थामेगा यूं ही परेशान रहेगा।

शिक्षा और सुरक्षा के साथ सामाजिक बुनियादी समस्याओं जैसे कुछ गंभीर मुद्दे हैं, जिनपर विचार कर अगर मुस्लिम समाज वोट देने की अपनी रणनीति तय करता है तो वह देश की आँखों का न सिर्फ तारा बनेगा बल्कि अपने हमवतन भाइयों के दिलों से अपने धर्म के प्रति फैली ग़लतफ़हमियों को भी दूर कर सकेगा। याद रहे, एक-एक वोट अगर क़ीमती है तो उसे भेड़चाल का हिस्सा न बनाते हुए, न ही किसी बनी बनाई परिपाटी का पालन करते हुए, न ही किसी के बहकावे में आए उसका सही इस्तेमाल करना होगा। अच्छा होगा मुस्लिम समाज अपने आने वाले बेहतर कल और देश के उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखकर निर्णय ले। मुसलमान यदि अपनी धर्मांधता को छोड़ अपने को आधुनिकता में लाए, जहाँ पर सबका सब एक हो जाता है तो निःसंदेह उनकी भी प्रगति होगी।