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फ़ितना फैलाना क़त्ल से भी बड़ा गुनाह है / सैयद सलमान
Friday, March 8, 2019 11:13:36 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 08 03 2019

क्या मुसलमान अपने वतन से प्यार नहीं करते? क्या मुसलमान देशद्रोही होते हैं? क्या इस्लाम में देशप्रेम जैसी कोई संकल्पना नहीं है? मुसलमानों की वतनपरस्ती को लेकर आज भी ऐसे कई सवाल अक्सर उठते हैं। मुस्लिम समाज के लिए हमेशा से यह चिंता की बात रही है। सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा, बालाकोट और अभिनंदन प्रकरण के बाद यह सवाल एक बार फिर से मुस्लिम समाज को कठघरे में खड़ा कर रहा है। देशप्रेम पर पवित्र वेद में आदेश है "हम अपने देश के जागृत पुरोहित बनें।" पवित्र क़ुरआन में निर्देशित किया गया है कि, 'इंसान जिस मुल्क में, समाज में रहता है वहां शांति और अमन के साथ रहे और वहां फ़ितना न फैलाए।' पवित्र क़ुरआन के अनुसार 'फ़ितना फैलाना क़त्ल से भी बड़ा गुनाह है।' (-अल-क़ुरआन- 2:191) चाणक्य की एक प्रसिद्ध उक्ति है, "देश की सीमा माँ के वस्त्रों की तरह होती है जिसकी हिफ़ाज़त करना उसके प्रत्येक बेटे का कर्तव्य है।" साफ़-साफ़ कहें तो यह बात दावे से कही जा सकती है कि इस्लाम की तालीम अपने वतन और हमवतनों से मोहब्बत करने, उसकी तरक़्क़ी के लिये जी तोड़ मेहनत करने और साहिबे-हुकूमत का अनुपालन करने की सीख देती है।

पैग़ंबर मोहम्मद साहब की हदीस है, 'यक़ीनन अल्लाह उस शख़्स को नापसंद करता है जो अपनी क़ौम पर हमला होने की सूरत में उनका प्रतिकार नहीं करता।' यहाँ क़ौम की मुराद मुसलमान या किसी समाज या पंथ से नहीं बल्कि अपने वतन से है। इसे और आसानी से समझना हो तो पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद साहब के एक उदहारण से समझा जा सकता है। नबी-ए-करीम हज़रत मोहम्मद साहब ने जब मक्का में फैले कुशासन और ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती का विरोध कर मानवहित की सलामती और इस्लाम अर्थात शांति स्थापित करने की बात की, तब मक्का वासियों ने उन पर जुल्म-ओ-सितम की इंतेहा कर दी। कष्ट असह्य हो जाने पर मोहम्मद साहब ने अपने चुनिंदा साथियों के साथ मक्का से हिजरत करने का फैसला किया। हज़रत मोहम्मद साहब मक्का छोड़कर जाते वक़्त बार-बार मुड़कर अपने वतन की तरफ देखते जाते थे। जब मक्का उनकी आंखों से ओझल होने को आया तो बेहद ग़मग़ीन होकर उन्होंने अपने वतन से मुख़ातिब होकर कहा, 'हे मक्का ! तू कितनी पवित्र धरती है, मेरी नज़र में तू कितनी प्यारी है, अगर मेरी क़ौम मुझे न निकालती तो मैं कभी तुझे छोड़कर न जाता।' हालाँकि मोहम्मद साहब के रिश्तेदारों, उनके क़बीले और उनकी क़ौम ने उनको, उनकी तालीम को, उनके संदेश को ठुकरा दिया था, इसके बाबजूद वह ईश्वर से हर वक़्त अपने वतन और अपने उम्मतियों की शांति और सलामती की दुआ करते रहे। यह बात पवित्र क़ुरआन और हदीसों से साबित होती है। मक्का से नबी का प्रेम क्या देशप्रेम नहीं कहा जाएगा? मक्का की सीमाओं को पार करते वक़्त की भावनाओं को नबी की कातर दुआओं से क्या महसूस नहीं किया जा सकता? तो फिर उनके उम्मती भारतवर्ष की सीमाओं को अपना वतन क्यों न मानें? क्या हिंदुस्तान का मुसलमान किसी अन्य ग्रह से आया है जो अपने नबी की सुन्नत से मुकर जाए?

हिंदुस्तान सूफ़ी संतों का देश है। सूफ़ियाना मिज़ाज के हज़रत अमीर ख़ुसरो के बारे में कहा जाता है कि वो ऐसे राष्ट्रवादी मुसलमान थे जिनके मन में भारतभूमि के प्रति अपार श्रद्धा थी। 'नूहे-सिफ़र' नामक उनके महाकाव्य में हिंदुस्तान के प्रति उनकी भक्ति-भावना साफ़ झलकती है। उनकी रचनाएं बताती हैं कि कम से कम उनके समय तक हिंदुस्तान दुनिया के देशों का सिरमौर था। ख़ुसरो ने ख़ुरासान, तुर्की, बसरा, चीन, समरकंद, मिस्र, कंधार इन सबको भारतभूमि की तुलना में कमतर बताया है। फिर अपने काव्य में ख़ुसरो ने यह भी लिखा है कि 'कोई मुझसे ये पूछ सकता है कि तू मुसलमान होकर हिंदुस्तान की बड़ाई क्यों करता है तो मेरा जवाब होगा, क्योंकि हिंद मेरी जन्मभूमि है और मेरे रसूल का ये हुक्म है कि 'हुब्बुल वतनी निस्फ़ुल ईमान' यानि 'वतनपरस्ती आधा ईमान है।' हज़रत अमीर ख़ुसरो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शागिर्द थे। 'छाप तिलक सब छीनी', 'आज रंग है री माँ' जैसी कालजयी और विशुद्ध हिंदुस्तानी रचना उन्हीं की देन है। अगर वतनपरस्ती की बात करें तो हिंदुस्तान से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले मुसलमानों में अमीर ख़ुसरो का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। ऐसे में अगर कोई वतनपरस्ती को कुफ़्र कहे तो फिर हज़रत अमीर ख़ुसरो से बड़ा काफ़िर कोई नहीं। लेकिन ठहरिए, अब इस काफ़िर का क्या मक़ाम है इस उदाहरण से समझ लीजिए। हज़रत निजामुद्दीन औलिया ने एक बार कहा था, "क़यामत के रोज़ खुदा अगर मुझसे पूछेगा कि निज़ामुद्दीन तू तोहफ़े में मेरे लिए क्या लेकर आया है तो मैं अमीर ख़ुसरो को पेश कर दूंगा।" अगर वतनपरस्ती कुफ़्र है तो क्या आला दर्जे के सूफ़ी-संत निज़ामुद्दीन औलिया, अल्लाह को बतौर तोहफ़ा एक नाफ़रमान को पेश करेंगे?

दरअसल मुस्लिम समाज पर शक़-ओ-शुबहात के दुर्भाग्य की काली छाया तबसे पड़नी शुरु हुई जब मज़हब को अपनी राजनीति के रुप में इस्तेमाल करने वालों ने मुसलमानों के मन में ये बात डालनी शुरु कर दी कि 'मुसलमान किसी देश की सीमा से बंधे नहीं होते। सारा विश्व उनका है, इसलिये उनकी निष्ठा केवल एक मुल्क के प्रति नहीं होनी चाहिये।' हिंदुस्तान में भी अंग्रेजों से आज़ादी मिलने के पूर्व ही इस्लामिक मुल्क का ख़ाका बन गया था। मज़हब के नाम पर पाकिस्तान बना लेकिन मुसलमानों की बड़ी आबादी ने इस्लामी मुल्क पाकिस्तान के बजाय हिंदू बहुल हिंदुस्तान को अपने वतन के रुप में प्राथमिकता दी और उसे अपनी पसंद से चुना। यह अपने हिंदुस्तान से मुहब्बत की इंतेहा थी। हालाँकि चंद ग़द्दार पाकिस्तान के प्रति अपनी निष्ठा और प्रेम पर क़ायम रहे। उनके इस कृत्य पर आम मुसलमान, उलेमा और मुस्लिम बुद्धिजीवी न जाने क्यों ख़ामोश रहे। ऐसे में हमवतनों के एक बड़े तबक़े की नज़र में अधिकांश भारतीय मुसलमानों की निष्ठा संदिग्ध, संदेहास्पद और विवादित हो गई। ऐसे तबक़े का मानना था कि पाकिस्तान के अलग होने के बाद भी यहाँ के मुसलमान इस देश के प्रति पूर्ण रुप से वफ़ादार नहीं हैं। मुसलमानों के बारे में ऐसी सोच को बदलने के लिए मुसलमानों को ही प्रयास करना होगा। इन बातों को क्या लड़कर मनवाया जा सकता है? वतन से मोहब्बत का जज़्बा मुस्लिम समाज के व्यवहार में, आचरण में, चरित्र में परिलक्षित होना चाहिए। मुस्लिम समाज के लिए यह ज़रूरी हो गया है कि वह अपने हमवतन भाइयों को यह बताए कि उनके मन में भी अपने महान पूर्वजों को लेकर वही सम्मान भाव है जो किसी आम हिंदू के हैं। अपने जज़्बे और जूनून से यह बताना होगा कि वतन पर आया संकट उनका अपना संकट है। यह संकट उनकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेता है। वह भी अपने मुल्क की हिफ़ाज़त करते हुए अपने सीने पर गोलिया खाने का माद्दा रखते हैं। अपने हमवतनों को यह विश्वास भी दिलाना होगा कि उन्हें भी इस मुल्क के निज़ाम और क़ानून पर उतना ही भरोसा है जितना किसी अन्य को। अफ़सोस इसी बात का है कि आज भी चंद ग़द्दारों के कारण आम मुसलमान भी अविश्वास की इस दीवार को लाख प्रयासों के बावजूद नहीं गिरा पा रहा है।

दुनिया का कोई इस्लामी मुल्क क्या अपने वतन को किसी दूसरे इस्लामी मुल्क से कमतर मानने को तैयार है? क़त्तई नहीं। हर इस्लामी मुल्क के लिये उनकी पहली प्राथमिकता अपने वतन की हिफ़ाज़त, उसकी तरक़्क़ी और अपने देशवावासियों की ख़ुशहाली है। तस्वीर के दूसरे रुख़ पर अगर ग़ौर करें तो पाएंगे कि यह वतनपरस्ती का भाव ही तो है, कि सऊदी अरब या गल्फ़ के इस्लामी देशों का कोई मुसलमान किसी पाकिस्तानी को अपने वतन में आकर पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे नहीं लगाने देता। या फिर कोई पाकिस्तानी ही किसी अन्य मुस्लिम राष्ट्र के नागरिक को पाकिस्तान आकर उस राष्ट्र के ज़िंदाबाद का नारा लगाने देगा? अगर मुस्लिम मुल्कों के लिये इस्लाम ही सब कुछ होता तो आज खाड़ी देश बांग्लादेशी मुसलमानों को अपने मुल्क से निकल जाने का हुक्म न देते। मुस्लिम समाज को इस्लामी तालीम के अनुसार इस भाव को आत्मसात करना होगा कि 'अगर वतन है तो हम हैं और वतन नहीं तो हम भी नहीं।' वतनपरस्ती कभी भी इस्लाम प्रेम में बाधा नहीं बन सकती। मुस्लिम समाज को समझना होगा कि हमारी पूजा-पद्धति कोई भी हो, धर्मग्रंथ कोई भी हो पर हमारी निष्ठा का केंद्र यही हो कि यह 'मेरा अपना वतन' है। मेरे वतन के सभी महापुरुष मेरे अपने हैं। उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना देशभक्ति है। सही इस्लाम की शिक्षा और हिंदुस्तानी रवायत के अनुसार इबादत के साथ वतनपरस्ती 'निस्फ़' ईमान को 'मुकम्मल' बनाती है, न कि कम करती है।