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हमें सोचना होगा.... आचरण में कहाँ कमी रह गई / सैयद सलमान
Friday, January 25, 2019 8:59:43 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 25 01 2019

"अंकल......" आवाज़ सुनते ही मैं अपनी स्कूटी की रफ़्तार धीमी कर देता हूँ। एक किनारे स्कूटी रोक कर पीछे देखता हूं तो तक़रीबन आठ-नौ साल का एक बच्चा मेरी तरफ़ तेज़ क़दमों से आता हुआ नज़र आता है। मेरे निकट पहुंचते ही वह बेझिझक कहता है, "अंकल मुझे बामन दाया पाड़ा छोड़ो न?" इस बाल सुलभ निवेदन पर मैं भी मुस्कुरा देता हूँ और इशारे से उसे बैठने को कहता हूँ। मैं स्कूटी स्टार्ट कर आगे बढ़ता हूँ और उससे पूछता हूँ, "क्या तुम मुझे जानते हो?" वह साफ़ कहता है, "नहीं"। मैं उस से सवाल करता हूँ, "फिर किसी अनजान से इस तरह लिफ़्ट मांगना क्या अच्छी बात है?" वह कहता है, "आप भी उसी तरफ़ जा रहे थे जिस तरफ़ मेरा घर है इसलिए मैंने आप को आवाज़ दी।" मैंने पूछा, "यहां कहां से आ रहे हो?" उसने जवाब दिया, "यहां ट्यूशन पढ़ता हूं।" मैंने पुछा, "कोई छोड़ने-लाने आता नहीं?" उसने संक्षिप्त उत्तर दिया, "नहीं मैं अकेला आता-जाता हूं।"

बच्चे की मासूमियत और उसका अंदाज़-ए-गुफ़्तगू मुझे रोचक लगा। मैंने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?" उसने बताया, "गणेश, लेकिन मेरे दोस्त मुझे गण्या कहकर बुलाते हैं।" तुरंत उसने पूछा, "अंकल, आपका क्या नाम है?" मैंने कहा "अंकल"। उसने हँसते हुए कहा, "अंकल भी कोई नाम होता है क्या?" मैंने कहा, "क्यों नहीं, जब तुमने अंकल बुलाया तो मेरा नाम अंकल ही होगा।" वह हंस देता है। अचानक सामने से मेरे परिचित तबरेज़ खान आते हुए दिखे। वह बाइक पर थे। हम दोनों ने दूर से एक दूसरे को देख कर अपने-अपने वाहन की रफ़्तार धीमी कर दी। खान साहब के मेरे पास आते-आते मैंने तेज़ आवाज़ में सलाम किया। उन्होंने जवाब दिया, "वालैकुम अस्सलाम।" बच्चे को देखकर उन्होंने पूछा, "यह कौन है?" मैंने बताया, पड़ोस का बच्चा है लिफ़्ट ली है। हम रस्मन सलाम-दुआ कर अपनी-अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गए। न जाने अचानक बच्चे को क्या सूझा और उसने पूछा, "अंकल, आप मुसलमान हैं?" मैं चौंक पड़ा। आख़िर एक मासूम बच्चे के मुंह से यह कैसा सवाल हुआ? मैंने जवाब में पलटकर उस से ही सवाल किया, "तुम्हें क्या लगता है?" उसके जवाब ने मुझे और चैंकाया। उसने कहा, "आपने मुसलमान लोगों का नमस्ते किया न इसलिए पूछा।" उसकी बुद्धिमत्ता पर मैंने स्वीकार किया, "हां बेटा मैं मुसलमान हूँ। " फिर उसका सवाल कि, "फिर आपका नाम क्या है?" मैंने कहा, "सलमान।" वह खिलखिलाया। कहने लगा, "आप झूठ बोलते हैं, क्या आप सलमान खान हैं?" उसके भोलेपन पर मैंने जवाब दिया,"नहीं बेटा मेरा नाम सलमान ही है।" बच्चा शांत हुआ। मैंने स्कूटी की रफ़्तार जानबूझकर धीमी कर दी थी। न जाने क्यों मैं इस बच्चे से बात करते रहना चाह रहा था। मैंने कहा, "बेटा यह हिंदू मुसलमान तुम्हें किसने सिखाया?" उसने कहा, "मेरे दोस्त लोग कहते हैं मुसलमान अच्छे नहीं होते।" मैंने उसे समझाते हुए कहा, "बेटा, मुसलमान या हिंदू बुरे नहीं होते। बुरा कोई भी इंसान हो सकता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो। क्या मैं तुम्हें बुरा लगता हूँ?" उसने फ़ौरन जवाब दिया, "नहीं अंकल, आप तो बहुत अच्छे हैं।" मैंने फिर पूछा, "मैं अच्छा कैसे हुआ, मैं भी तो मुसलमान हूँ।" उसने कहा, "नहीं अंकल, आपने तो मुझे लिफ़्ट भी दी है।" मैंने कहा, "क्या तुम किसी मुसलमान से नहीं मिले?" उसने फ़ौरन जवाब दिया, "नहीं मेरे मुसलमान दोस्त हैं। मैं तो फ़रहान के साथ खेलता भी हूं। वह मेरे बाजू में रहता है। वह भी अच्छा है। मैंने कहा, "फिर तुम किन दोस्तों की बात कर रहे हो?" उसने उदास होते हुए कहा, "हैं कुछ दोस्त।" मैंने कहा, "बेटा ऐसे दोस्तों को भी समझाओ, हिंदू-मुसलमान जैसा कुछ नहीं होता। हम सब इंसान हैं और एक देश के वासी है। एक दूसरे के हमदर्द, एक दूसरे के पड़ोसी। एक दूसरे के सुख-दुख के साथी।" कहते-कहते मैं बामन दाया पाड़ा के मुहाने पर पहुंच गया था। उसने कहा, "अंकल यहीं रोक दो।" मैं स्कूटी खड़ी कर उसके चेहरे को ग़ौर से देखना चाहता था। मैं उसके भाव पढ़ना चाहता था। मैं उसके साथ हुए अपने वार्तालाप के बाद की स्थिति को समझना चाहता था। मैंने देखा बच्चा मुस्कुरा रहा है। ऐसा लगा जैसे वह मेरा साथ नहीं छोड़ना चाहता। मैंने फिर उस से पूछा, "क्या तुम्हारे घर तक स्कूटी जा सकती है?" उसने कहा, "नहीं बहुत पतली गली है, मैं चला जाऊंगा।" मैंने उसे छेड़ा, "चाय पिलाओगे?" उसने उछलकर कहा, "हाँ घर चलो पिलाता हूं।" मैंने हंस कर उसके सर पर हाथ फेरा और कहा, "बेटा फिर कभी।" वह मुस्कुराया। सड़क पार करने के लिए वह खड़ा था। मैं उसे देख रहा था। सामने से बस आ रही थी। रोड क्रॉस करने से पहले वह फिर मेरे पास आया। उसने कहा, "अंकल आप तो बहुत अच्छे हैं। मैं मेरे दोस्तों से कहूंगा, मुझे मेरे एक मुसलमान अंकल ने लिफ्ट दी थी।" मैंने कहा, "बेटा मैंने तुम्हें लिफ्ट नहीं दी। यह स्कूटी तुम्हारी ही तो है। हम दोनों आज से दोस्त हैं।" उसने पूछा, "आप यहां से रोज़ आते हैं?" मैंने कहा, "कभी-कभी, लेकिन जब कभी आऊंगा तो तुम मुझे पहचान लेना या जहां देखना मेरे पास आ जाना।" मैंने उसे इशारा किया, रास्ता पार कर लो वरना गाड़ी आ जाएगी। वह भोली मुस्कान के साथ हाथ हिलाता हुआ रोड क्रॉस करता चला गया। धीरे-धीरे वह एक गली की तरफ मुड़ा। गली के छोर से उसने फिर मुझे हाथ दिखाया और फिर उस गली में कहीं खो गया।

मैंने स्कूटी स्टार्ट की और घर की तरफ बढ़ गया। मेरे मन में एक झंझावात चल रहा था। आख़िर हम किस मुक़ाम पर पहुंच गए हैं। आठ-नौ साल का बच्चा किस तरह की बातें कर रहा है? कहां से सीखते हैं यह बच्चे? कैसे हिंदू मुसलमान के भेद में पड़ गए हैं जबकि उसका अपना दोस्त भी मुसलमान है। मेरे अख़लाक़ से प्रभावित होकर उसने कह तो दिया कि आप अच्छे हैं लेकिन क्या वह मासूम बच्चा आगे भी यही धारणा कायम रख पाएगा? आख़िर क्यों एक बच्चे के मन में उसी के हम उम्र बच्चों की यह बात घर कर गई है कि मुसलमान अच्छे नहीं होते। यह तालीम उसे किसी स्कूल से तो नहीं मिली होगी। उसके अभिभावकों ने तो क़त्तई नहीं सिखाई होगी। जिस मासूम बच्चे ने मेरे मित्र के साथ हुए सलाम दुआ के अल्फ़ाज़ों को पकड़कर बड़ी मासूमियत से 'सलाम' को मुसलमानों का 'नमस्ते' बताया उससे यह आभास भी हुआ कि उसका मन साफ़ है। बच्चों का मन साफ़ होता भी है। जिन बच्चों ने उसे समझाया होगा कि मुसलमान अच्छे नहीं होते वह बच्चे भी साफ़ दिल होंगे लेकिन ग़लत संगत का असर उनके सर चढ़कर बोल रहा होगा। या फिर चंद मुसलमानों ने कुछ ऐसे गैर अख़लाक़ी कार्य किए होंगे जिससे इन बच्चों के मन में यह भाव आया होगा। क्या पता अपने से बड़ों की बातें सुनकर वह इस बात को मन में बैठा चुके हों। आख़िर यह कैसी तालीम है? यह कैसी शिक्षा है जो बच्चों के भीतर ज़हर भर रही है? मेरे साथ हुई इस घटना पर मैं अब तक बेचैन हूँ। अपने आचरण से मैं एक मासूम बच्चे के मन से उसका भ्रम कुछ हद तक दूर कर सका या नहीं यह तो नहीं जानता लेकिन मुझे सुकून है कि वह बच्चा जितनी देर भी मेरे साथ रहा मुस्कुराता रहा। मुझसे बिछड़ते वक़्त भी मुस्कुराता रहा और फिर मिलने का वादा भी तो किया है उसने।

अख़लाक़, आचरण, स्वभाव किसी इंसान की सबसे बड़ी पहचान होता है। वह इंसान अगर अपने धर्म का पाबंद है और उसका आचरण अच्छा है तो लोग उसका सम्मान करते हैं। कोई इंसान बेहद धार्मिक है लेकिन उसका आचरण अच्छा नहीं है तो लोग उसे पसंद नहीं करते। पैग़ंबर मोहम्मद साहब का स्वाभाव ऐसा था कि लोग उनकी तरफ़ खिंचे चले आते थे। क्या आम मुसलमानों ने अपने नबी की इस तालीम को अपनाया है? क्या वे लोगों के साथ मोहब्बत के साथ पेश आते हैं? यह देश नानक, गौतम और चिश्ती जैसे सूफ़ी-संतों का है जिन्होंने अपने अख़लाक़ और अपने बेहतरीन आचरण से लोगों को अपना बनाया। एक मासूम बच्चे के मन में अगर मुसलमानों के लिए बचपन से ही शंका के बीज पनपने लगे हैं तो मुसलमानों को सोचना होगा कि उनके आचरण में कहाँ कमी रह गई है। केवल दूसरों को दोष देकर ख़ुद को बेहतर नहीं बताया जा सकता। ख़ुद अपना और अपनी क़ौम का जायज़ा लेना ज़रूरी है ताकि ग़लतफहमियों को दूर किया जा सके। यह काम जितनी जल्दी शुरू हो उतना अच्छा।