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फ़िरक़ों में बंटे मुसलमान / सैयद सलमान
Friday, December 21, 2018 2:14:13 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 21 12 2018

मौत हर हाल में बरहक़ है और हर किसी को आनी है। पवित्र धर्मग्रंथ क़ुरआन की एक आयत का तर्जुमा कुछ यूँ है कि, 'हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है' (अल-कुरआन ३:१८५) और यह भी सत्य है कि जिस व्यक्ति की मौत हो जाए उसके शरीर को किसी न किसी प्रकार मिट्टी में मिलना है। यह प्रक्रिया मृत शरीर के साथ सदियों से होती आई है। प्रत्येक धर्म की मान्यतानुसार शरीर को ज़मीन में किसी न किसी प्रकार मिलना ही नियति का खेल है। मुस्लिम समाज में शव को दफ़नाया जाता है। जहाँ शव दफ़न किए जाते हैं उस स्थान को क़ब्रिस्तान कहा जाता है। मुस्लिम समाज में क़ब्रिस्तान के लिए अलग से जगह आबंटित होती है जिसकी देखभाल स्थानीय स्तर पर कमिटी बनाकर की जाती है। अधिकतर क़ब्रिस्तान में योग्य उपलब्ध जगह के अनुसार छोटी या बड़ी मस्जिद भी बनाई जाती है ताकि मृतक के परिजन अगर मृतक के घर के आस-पास से नमाज़-ए-जनाज़ा न पढ़कर आए हों तो कब्रिस्तान की मस्जिद के बाहर जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई जा सके। क़ब्रिस्तान में मस्जिद होने का एक फ़ायदा यह भी होता है कि क़ब्रिस्तान पर फ़ातिहा पढ़ने के लिए आने वाले नफ़िल नमाज़ों को क़ब्रिस्तान की मस्जिद में आसानी से अदा कर सकें। और जब मस्जिद बन ही जाती है तो पांचों वक़्त की नमाज़ भी मामूल से पढ़ाई जाती है साथ ही जुमा और ईदैन की नमाज़ें भी उस मस्जिद में पढ़ी जा सकती हैं। निज़ाम तो अच्छा है मगर अब मुस्लिम समाज में फ़िरक़ापरस्ती ने इस क़दर घर कर लिया है कि अब शवों को दफ़नाने के मामले में भी विवाद होने लगा है जो चिंता का विषय तो है ही मुस्लिम समाज के लिए शर्मनाक भी है।

ताज़ा मामला उदयपुर का है जहाँ दूसरे फ़िरक़े के शख़्स को मुस्लिम क़ब्रिस्तान में दफ़नाने से मना करने पर विवाद हो गया। शहर के सविना में रहने वाले अलग विचारधारा के एक मुस्लिम वृद्ध की मौत के बाद उनकी लाश को दफ़नाने के मुद्दे ने पहले मुसलमानों का आपसी मसलकी और फिर सांप्रदायिक तनाव का रूप ले लिया। दरअसल उदयपुर स्थित मुर्शीद नगर सविना निवासी शेरखान की बीमारी के चलते मौत हो गई थी। शेरखान का तअल्लुक़ देवबंदी विचाराधारा से था, इसी कारण उनकी मौत होने के बाद उन्हें सविना स्थित क़ब्रिस्तान में दफ़नाने से अन्य फ़िरक़े वालों ने इंकार कर दिया। काफ़ी जद्दोजहद के बाद शेरखान के परिजन शव को मेहताजी की बाड़ी नामक स्थान पर लेकर चले गए और वहीं पर दफ़नाने की तैयारी शुरू कर दी। इधर जैसे ही इस बारे में लोगों को पता चला तो सोशल मीडिया पर मैसेज शेयर होने शुरू हो गए। इस दौरान किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। इस सूचना पर मौक़े पर शहर के अधिकांश थानों के थानािधकारियों के साथ-साथ डिप्टी और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक, अतिरिक्त ज़िला कलेक्टर सहित स्थानीय ग्रामीण भी पहुंच गए। इसके साथ ही स्थानीय हिंदू संगठनों के पदाधिकारी भी पहुंच गए जिन्होंने क़ब्रिस्तान के इतर अन्य जमीन पर शव को दफ़नाने का विरोध किया। उनका तर्क था कि किसी मुस्लिम शख़्स को आख़िर क़ब्रिस्तान के अलावा कहीं अन्य क्यों दफ़न किया जा रहा है। तर्क वाजिब भी था। शेरखान के शव को दफ़नाने के मुद्दे पर दोनों पक्ष आमने- सामने हो गए। मामला मुसलमानों की फ़िरक़ेबाज़ी का था लेकिन अब यह मामला सांप्रदायिक विवाद का कारण बन गया था। इस दौरान पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने समझदारी का परिचय देते हुए दोनों पक्षों को तनाव बढ़ाने से रोका। मृतक के परिजनों के पास हाईकोर्ट के वे आदेश भी थे, जिसमें शव को किसी भी क़ब्रिस्तान में दफ़नाने से नहीं रोका जा सकता था। लेकिन मामला संवेदनशील हो चुका था। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने बातचीत कर पहले विभिन्न संगठनों को वहां से रवाना किया। इसके साथ ही वहां पर मौजूद मृतक के परिजनों को भी समझाया। करीब तीन से चार घंटे तक चली इस मशक्कत के बाद मृतक के परिजन माने और शव को निम्बाहेड़ा में दफ़नाने का निर्णय लिया।

इस घटना से अगर तनाव बढ़ता तो भारी अनिष्ट होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मुस्लिम समाज की यह जाहिलाना हरकत सांप्रदायिक दंगे का कारण बन सकती थी जिसका ख़ामियाज़ा बेक़सूर हिंदू-मुसलमानों को भुगतना पड़ता। इस पूरे विवाद का कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्लिम समाज है। जब मुसलमानों के पास क़ब्रिस्तान की जगह हो और आपसी विचारधारा की लड़ाई में किसी शव को दफ़नाने न दिया जाए तो किसी और को आख़िर कैसे दोष दिया जा सकता है। शेरखान की लाश को क़ब्रिस्तान में केवल इसलिए दफ़नाने नहीं दिया जा रहा था कि उनका तअल्लुक़ दूसरे फ़िरक़े से था। आश्चर्य की बात तो यह है कि इतनी शर्मनाक और जाहिलाना हरकत के बाद भी मुस्लिम समाज इस घिनौनी हरकत पर चुप्पी साधे बैठा रहा। इस चुप्पी से एक बात तो साबित होती है कि मुस्लिम समाज को इस्लाम के बजाय फ़िरक़ों पर ज़्यादा यक़ीन है। इतनी बर्बर और निंदनीय हरकत के बाद भी अगर कोई ख़ुद को मुसलमान कहे तो कोई कैसे यक़ीन करे। बात सिर्फ़ इतनी भर ही नहीं है, फ़िरक़ों की कटुता का आलम यह है कि किसी दूसरे फ़िरक़े के व्यक्ति द्वारा अन्य फ़िरक़े की मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के बाद उस मस्जिद को बाक़ायदा धुलवाया जाता है। मस्जिदों के बाहर नोटिस बोर्ड पर दूसरे फ़िरक़े के व्यक्ति को नमाज़ के लिए न आने की चेतावनी लिखी होती है। ऐसी तमाम घटनाओं को देख कर लगता है कि देश में शिया, सुन्नी, बरेलवी, अहले हदीस, देवबंदी, खोजा, बोहरा वग़ैरह तो हैं, लेकिन मुसलमान नहीं रह गए हैं। अब यहां जलसे, इज्तेमा और तबलीग़ के आयोजन भी इस्लाम की शिक्षा के लिए नहीं बल्कि अपने-अपने फ़िरक़े को बढ़ाने के लिए किए जाते हैं। इस बात से मुस्लिम समाज को कितनी हानि हो रही है, यह विषय चिंता और चिंतन का है।

मसला केवल शेरखान का नहीं है। ऐसे मसले देश के अनेक हिस्सों में देखने और सुनने को मिलते हैं। अब तक शिया-सुन्नी वगैरह के बीच इस तरह के विवाद आम बात थी। शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए बहुत पहले ही शिया-सुन्नी-खोजा-बोहरा के लिए अलग-अलग क़ब्रिस्तान की व्यवस्था अमल में लाई गई होगी। लेकिन अब तो हनफ़ी मसलक के मानने वालों में ही आपसी इख़्तेलाफ़ इस क़दर बढ़ गया है कि लाशों की तदफ़ीन को लेकर आमने-सामने आने की नौबत आ गई है। इस्लाम में लाशों की बेहुरमती को गुनाह बताया गया है। इस्लाम को श्रेष्ठ बताने वाले उलेमा हज़रात से पूछा जाना चाहिए कि क्या यही इस्लाम है जिसमें एक मुर्दा शख़्स को क़ब्रिस्तान में दफ़नाने पर भी पाबंदी है जबकि क़ुरआन कहता है, 'इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन' अर्थात 'यक़ीनन हम तो अल्लाह के हैं और उसी की तरफ़ लौट कर जाने वाले हैं'- (अल-कुरआन २:१५६) फिर आख़िर ये कौन लोग हैं जो अल्लाह की किताब से भी ऊपर हो गए हैं और किसी की तदफ़ीन को अपनी अना का मसला बना लेते हैं? मुस्लिम समुदाय की मान्यतानुसार लाश का मिट्टी में मिलना एक प्रक्रिया भर है जिसे नमाज़-ए-जनाज़ा के साथ पूरा किया जाता है, और फिर फ़ैसला अल्लाह पाक पर छोड़ दिया जाता है। तो फिर आख़िर वो कौन लोग हैं जो हश्र के मैदान में अल्लाह पाक के ज़रिये होने वाले फैसले का दावा तो करते हैं लेकिन ज़मीन पर अपने फ़ैसलों को आम मुसलमानों पर थोपते हैं? क्या इन्हें नहीं पता कि अल्लाह को अहंकार, घमंड, तकब्बुर जैसी आदतें सख्त नापसंद हैं? कहाँ है मुसलमानों के भीतर का इस्लामी जज्बा? मुस्लिम उलेमा तो इस देश के दूसरे समाजों में फैली जाति, वर्ण इत्यादि व्यवस्था का उदहारण पेश कर मुसलमानों को इस्लाम की महानता समझाते फिरते हैं। देश की अनेक सियासी तंजीमों को नस्लवादी, मनुवादी, ब्राह्मणवादी, जातिवादी और न जाने क्या-क्या बताने वाले उलेमा क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि फिरकों में बंटे मुसलमान किस श्रेणी में आते हैं? अगर मुसलमान ऐसे ही होते हैं तो शर्म और लानत है ऐसे मुसलमान होने पर जो लाशों की तदफीन को भी फिरकों की आड़ में विवाद का कारण बनाएं।