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आतंकवाद मुसलमानों का धर्म नहीं हो सकता /सैयद सलमान
Friday, December 14, 2018 9:16:13 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 14 12 2018

‘मेरे बेटे, तुम कहते थे कि जन्नत अम्मी-अब्बू के पैरों में है, इसलिए आ जाओ और फिर से हमारे साथ रहो'। इस एक भावुक अपील का असर यह हुआ कि पिछले दिनों आतंकवाद की राह पर निकल चुके एक मुस्लिम नौजवान की घर वापसी हो सकी। परिवार की अपील के बाद युवक ने घर लौटने का फ़ैसला लिया। एहतेशाम बिलाल नमक यह युवक दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के शारदा यूनिवर्सिटी का छात्र था और ख़बरों के मुताबिक़ वह प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट ऑफ़ जम्मू कश्मीर में शामिल हो गया था। सोशल मीडिया के ज़रिये सामने आई तस्वीरों में एहतेशाम काली पगड़ी और काला पठानी सूट पहने दिखाई दे रहा था। पीछे इस्लामिक स्टेट का झंडा भी नजर आ रहा था। प्राथमिक जांच में पाया गया कि उसने आतंकवाद की राह पकड़ ली है। इस ख़बर के बाद एहतेशाम बिलाल के परिवार के सदस्यों की तस्वीरें स्थानीय अख़बारों में प्रकाशित हुईं जिसमें एहतेशाम से ‘‘कम से कम अपने माता-पिता के शव को कंधा'' देने के लिए घर लौटने की अपील की गई थी। माता-पिता ने लिखा था कि, ‘वह पूरे सोफी कबीले में उनका इकलौता बेटा है और उसे अपने परिवार के पास लौटने दिया जाए'। वैसे आतंकवादियों से जुड़े मामले जब तब अख़बारों की सुर्ख़ियां बनते रहते हैं। लेकिन एहतेशाम का लौट आना अपने आप में बड़ी बात है।

आख़िर एहतेशाम पर आतंकवाद का यह जादू चढ़ा कैसे? ऐसा कौन सा नशा है जो इन नौजवानों के सर चढ़कर बोलता है? ये नौजवान आख़िर हिंसा की राह को कैसे अपना लेते हैं जबकि उनके ऊपर अपने परिजनों को संभालने की बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। दरअसल यह नशा उन पर सोशल मीडिया और अन्य ऐसे ही प्लेटफ़ॉर्म पर परोसी जा रही कट्टरवादी सोच का नतीजा है जिनके बहकावे में आम ही नहीं बल्कि पढ़ा लिखा मुसलमान भी आ जा रहा है। मुसलमानों में शिक्षा का स्तर आज भी काफ़ी कम है। जहाँ शिक्षा है भी तो वहां अक्सर मुस्लिम युवा अपनी सोच के दायरे को कट्टरवादी सोच से बाहर नहीं निकाल पा रहा क्योंकि मुस्लिम मोहल्लों में ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि मुसलमान इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक हैं। ऐसी भावनाओं को कट्टरवादी सोच के नेता और उलेमा हवा भी देते हैं। नतीजतन मुस्लिम युवा ख़ुद को राष्ट्र की मुख्यधारा से काटकर बाग़ी तेवर अख़्तियार कर लेता है। इस प्रकार की सोच को जब और भी खाद पानी मिलने लगता है तो तो वह आतंकवाद की राह पकड़ लेता है। उसकी मानसिक दशा को समझते हुए कट्टरवादी संगठन उन्हें दंगों की पुरानी तस्वीरें और वीडियो दिखाकर और भी बरग़लाते हैं। अशिक्षा के कारण मुस्लिम युवाओं में बेरोज़गारी भी अधिक है। इस कारण भी युवाओं में हताशा व असंतोष है। ऐसे में इंटरनेट और साहित्य के माध्यम से मुस्लिम युवाओं को बरग़लाना आसान हो जाता है। आतंकवादी समूह ऐसे असंतुष्ट लोगों को जमा करते हैं और उनमें ऐसा ज़हर भरते हैं कि वे नौजवान इस्लाम के नाम पर मरने-मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। धर्म का इस्तेमाल ऐसे सुविधाजनक तर्क गढ़ने के लिए किया जाने लगता है जिस से आतंकवादियों के हिंसक कार्यों को जायज़ ठहराया जा सके।

इस बात को समझना होगा कि आतंकवाद का जन्म सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असंतोष से होता है और आतंकी संगठन इस असंतोष को हवा देने का काम करते हैं। आए दिन ख़बरों में आता रहता है कि फ़लां मुल्क में मुस्लिम महिला का हिजाब खींच लिया गया या उनकी चेकिंग की गई या फिर एयरपोर्ट पर मुस्लिम को रोक लिया गया। जब किसी मुस्लिम के साथ ऐसा किया जाता है तो यही कट्टरवादी संगठन ऐसे मामलो को तूल देकर मुसलमानों में ज़हर घोलने का काम करने में लग जाते हैं। मुस्लिम नौजवानों के मन में समाज के प्रति घृणा पैदा हो जाती है। दिमाग़ी रूप से मज़बूत इंसान तो ऐसी परिस्थिति में संभल जाता है लेकिन मानसिक विकार से ग्रस्‍त लोग आतंकवाद के जाल में फंस जाते हैं। ऐसे में कट्टरवादी मुस्लिम युवकों का ब्रेनवाश कर आतंकवादी बनाया जाता है और अपने ही देश को नुकसान पहुँचाने के लिये तैयार किया जाता है। इस समस्या से केवल ग़ैर-मुस्लिम देश ही नहीं बल्कि मुस्लिम देश भी परेशान हैं।

आतंकवाद ने सबसे ज़्यादा इस्लाम को नुकसान पहुँचाया है लेकिन यही बात मुस्लिम समाज समझने को शायद तैयार नहीं है। जब मुस्लिम समाज ही यह बात समझ नहीं पा रहा है तो ये उम्मीद भी फ़िज़ूल है कि वो दूसरों को अपनी बात समझा पाने में सफल होगा। वास्तव में मुस्लिम देशों में बढ़ रही कट्टरता को मुस्लिम समाज रोक पाने में असमर्थ है जिसके कारण आतंकवादी न केवल ग़ैर-इस्लामिक देशों में बल्कि इस्लामिक देशों में भी हमले करवा रहे हैं जिसकी क़ीमत निर्दोष मुस्लिम भुगत रहे हैं। धार्मिक कट्टरता की बुनियाद पर ही आतंकवाद का महल खड़ा होता आया है और इसी आतंकवाद ने मुसलमानों को पूरी दुनिया में अलग-थलग कर दिया है। मुस्लिम समाज जब तक आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्ती से खड़ा नहीं होगा तब तक उस पर आतंकवाद को पनाह देने का आरोप लगता रहेगा। मुसलमानों का आतंकवाद के ख़िलाफ़ बोलना ही मुसलमानों को बर्बादी से बचा सकता है। मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने धर्मगुरुओं से कहें कि धर्म को दोबारा समझकर उसकी सही व्यख्या करें। इतना तो तय है कि इस्लाम सहित कोई भी धर्म ये नहीं सिखाता कि जिस मिट्टी का अन्न खाओं उसी को बदनाम करो। अपने देश से ग़द्दारी करने वाला धार्मिक हो ही नहीं सकता। इसलिए मुस्लिम नौजवानों तक मुस्लिम धर्मगुरु यह संदेश पहुंचाएं कि न केवल अपने देश में आतंकवादी घटनाएं करना घातक है बल्कि दूसरे देश को निशाना बनाना भी गुनाह है। क्योंकि इससे देश और धर्म की बदनामी होती है। वैसे भी बेक़सूरों के कत्ल को इस्लाम ने हराम करार दिया है।

दुनिया में कितने ही धर्म और संप्रदाय हैं जिन्होंने अपने हक़ के लिये आवाज उठाई है और कहीं-कहीं हथियार भी उठाया है। लेकिन जब भी मुस्लिम समाज के लोग हथियार उठाते हैं तो उसे आतंकवाद से जोड़ दिया जाता है। इसका कारण है कि मुस्लिम समाज अपने अधिकारों की लड़ाई में ज़बरदस्ती धर्म को लेकर आ जाता है जिससे उनका संघर्ष मात्र संघर्ष न होकर जिहाद बन जाता है। अपनी उग्रता और हिंसा के कारण मुसलमानों का संघर्ष अपने रास्ते से भटक जाता है। आतंकवाद को पनपने देने में यही हिंसक मुस्लिम नौजवान काम आते हैं। आतंकवाद उन्हें आकर्षित करता है। कुंठित होकर जीने से कथित शहीद होना ऐसे भटके हुए नौजवानों को ज्यादा मुफ़ीद लगता है। इसीलिए वह आतंकवादियों के झांसे में जल्दी आ भी जाता है। कभी कभार कोई एहतेशाम वापस अपने परिजनों के पास लौट आता है वरना अधिकतर तो वह विभिन्न देशों की सुरक्षा एजेंसियों द्वारा मार दिया जाता है। फिर भले ही वह इसे शहादत माने लेकिन यह हिंसा की वकालत हुई और कहीं से कहीं तक शहादत नहीं कहलाएगी। इस बात को मुस्लिम नौजवानों को समझाना जरुरी हो गया है।

मुस्लिम समाज में आज भी विभिन्न तरह की समस्या मुंह बाए खड़ी हैं। इन समस्याओं की जड़ में अशिक्षा है। देश के विकास में मुसलमानों का भी उतना ही योगदान है जितना अन्य का है। अशिक्षा व बेरोज़गारी के कारण कुछ युवा भटकाव की स्थिति में ज़रूर आ जाते हैं। कई युवा अशिक्षा व बेरोज़गारी में यूं ही समय काटते हैं। जबकि मुस्लिम युवा अगर वही समय शिक्षा ग्रहण करने तथा सामाजिक जागरूकता में लगाए तो मुस्लिम समाज में भी जल्द ही ख़ुशहाली आ सकती है। मुस्लिम समाज को इस बात को समझना होगा कि केवल शिक्षा के माध्यम से ही जीवन स्तर को उंचा उठाया जा सकता है। अब समय आ गया है कि मुस्लिम युवा अपनी जड़ता को दूर करने के लिए स्वयं आगे आएं। एक एहतेशाम नहीं बल्कि आतंकवाद की राह पर चल पड़े सभी नौजवानों को अपनी भावुक अपील से वापस राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़ने का काम करें। लेकिन अगर आतंकवाद को ही धर्म मान लिया गया हो तो ध्यान रहे वह मुसलमान तो क़त्तई नहीं हो सकता और फिर सैन्य बलों द्वारा उनके ख़िलाफ़ की गई कार्रवाई किसी मुसलमान के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि आतंकवादी के ख़िलाफ़ ही मानी जाएगी। इस सत्य को समझना अब बेहद ज़रुरी हो गया है।