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हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल / सैयद सलमान
Friday, December 7, 2018 10:01:54 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 0712 2108

उत्तर प्रदेश का बुलंदशहर इन दिनों चर्चा में है। गोकशी के आरोप, फिर भीड़ का आंदोलन और उसके बाद एक पुलिस अधिकारी की मौत से वहां का माहौल और भी गर्म है। लेकिन जिस एक ख़बर को महत्व मिलना चाहिए था वह नकारात्मक ख़बरों में दब कर रह गई। ऐसे वक़्त में जब कुछ ताक़तें दो संप्रदायों में नफ़रत पैदा करने की कोशिशों में जुटी हैं, बुलंदशहर जिले के जैनपुर में ग्रामीणों ने सांप्रदायिक सौहार्द की अद्भुत मिसाल क़ायम कर दी। बुलंदशहर के दरियापुर में आयोजित इज्तेमा में जा रहे मुस्लिम समाज के लोग जब ट्रैफिक जाम में फंस गए तब स्थानीय ग्रामीणों ने प्राचीन शिव मंदिर परिसर में ज़ोहर की नमाज़ अदा कराने की व्यवस्था कराकर हिंदू मुस्लिम एकता की नई मिसाल कायम कर आपसी सौहार्द का संदेश दिया। नमाज़ के दौरान कोई परेशानी न हो, इसके लिए उनका पूरा ख़्याल रखा गया। नमाज़ के बाद सभी को जलपान कराकर उन्हें इज्तमा के लिए ख़ुशी-ख़ुशी रवाना किया गया।

बता दें कि बुलंदशहर के दरियापुर में तीन दिवसीय आलमी तब्लीग़ी इज्तेमा चल रहा था। प्रदेश के विभिन्न जिलों से इज्तमा में लोग पहुँच रहे थे। इसके अलावा आसपास के गांवों के लोग भी ट्रैक्टर और ट्रॉलियों के साथ ही अपने-अपने वाहनों से इज्तमा में शरीक होने के लिए पहुँच रहे थे। बुलंदशहर कोतवाली देहात क्षेत्र के गांव जैनपुर के पास ट्रैफिक जाम में काफी लोग फंसे हुए थे और उसी दौरान ज़ोहर की नमाज का वक़्त हो गया। बताया गया कि कुछ लोगों ने सड़क स्थित शिव मंदिर के बाहर नमाज़ पढ़नी शुरू कर दी थी। जैनपुर के ग्रामीणों ने जब लोगों को सड़क पर नमाज़ अदा करते देखा तो उन्हें प्राचीन शिव मंदिर के प्रांगण में नमाज़ पढ़ने के लिए कहा। स्थानीय हमवतन हिंदू भाइयों का सहयोग मिलने के बाद क़रीब १५० मुसलमानों ने परंपरागत वुज़ू करके मंदिर प्रांगण में ज़ोहर की नमाज़ अदा की। नमाज़ियों को कोई परेशानी न हो इस बात का ध्यान रखते हुए काफी हिंदू भाई मंदिर प्रांगण के बाहर ही खड़े रहे और शांतिपूर्वक नमाज़ अदा कराने में सहयोग किया।

जब प्राचीन शिव मंदिर परिसर में मुस्लिम भाई ज़ोहर की नमाज़ अदा कर रहे थे तब शायद सभी लोगों की ज़ुबां पर यही बात रही होगी कि "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।" इस एक वाक़ये की बुनियाद पर कहा जा सकता है कि समझदारी और भाईचारगी से बड़े से बड़े मसले का हल ढूंढा जा सकता है। इस से पहले इसी तरह की ख़बरों ने तब आकर्षित किया था जब यह पता चला था कि इस वर्ष अमरनाथ यात्रा पर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से केवल हिंदू नहीं बल्कि बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोग भी गए थे। इसमें कुछ श्रद्धालु पहले भी यात्रा का हिस्सा बनकर बर्फ़ानी बाबा की छवि देख चुके थे। ऐसा ही एक उदहारण है अज़ीमाबाद के मुंशी खान की अनूठी इबादत का। रोज़ाना पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ने और शाम को बजरंगबली का स्मरण करने वाले मुंशी खान की दूर-दूर तक ख्याति है। पेशे से दिहाड़ी मजदूर मुंशी बताते हैं कि एक रोज़ नमाज़ पढ़कर लौटे तो आंख लग गई। स्वप्न में हनुमानजी आए तो मुंशी जी ने पूछा कि "मैं मुसलमान हूं तुम मेरे पास क्यों आए हो?" इसके बाद सपने में हनुमानजी बोले कि मैंने तो सबको इंसान बनाया है, बांटने का काम तो तुम लोगों ने ख़ुद किया। उसके बाद मुंशी शहर से बजरंगबली की मूर्ति लेकर आए और अपने घर के पास मूर्ति स्थापना करा दी। तब से उनकी हर सांझ मूर्ति के समक्ष दीया जलाने के साथ ही रौशन होती है। वे बजरंगबली को समय-समय पर चोला भी चढ़ाते हैं।

कुछ यही हाल है ब्रज क्षेत्र के गांव राधानगरी का है जहाँ सांप्रदायिक सौहार्द की गाथा गर्व से बताई जाती है। मुस्लिम बहुल इस गांव में होली का त्योहार सभी मिलकर मनाते हैं। गांव की गलियों में चौपाई गाते हैं, एक-दूसरे को गुलाल लगाते हैं और फिर गुझिया की मिठास से भाईचारे की मोहब्बत भरी इबारत लिखी जाती है। गांव के मुसलमान भाई इस बात पर गर्व महसूस करते हैं कि जहां एक ओर देश-विदेश के लोग राधा-कृष्ण के नाम के पीछे ब्रजभूमि आते हैं, उस नाम के गांव में उनका जन्म सौभाग्य की बात है। इसी तरह एक वक़्त था जब मुज़फ़्फ़रनगर भले ही दंगे की आग में सुलग रहा था लेकिन तब श्रीराम, लक्षमण, जानकी, हनुमान, कुंभकरण, मेघनाद और रावण के पुतलों के निर्माण में जुटे मेरठ के हिंदू और मुस्लिम कारीगर देश में भाईचारे और सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश दे रहे थे। दंगे का दंश झेल चुके उसी मुज़फ़्फ़रनगर में सांप्रदायिक सौहार्द की एक और नायाब मिसाल पेश की गई। इंसानियत और मोहब्बत का पैगाम देने के लिए दंगों के बाद एक ही मंडप में हिंदू और मुस्लिम बेटियों का विवाह कराया गया। शहर के ज़िम्मेदार लोग उस अनोखे विवाह समारोह में बाराती बनकर आए। दहेज का सामान भी सजा। निकाह और विवाह की रस्म का आग़ाज़ किया गया तो क़ुरआन शरीफ़ की आयतें और वेदों के मंत्रोच्चार गूंजने लगे।

ऐसे ही एक सज्जन हैं हकीम नूर मोहम्मद, जो हैं तो धर्म से मुस्लिम फिर भी हिंदू धर्म के प्रति मन में अगाध श्रद्धा है। वे मंदिर नहीं जाते, लेकिन हिंदू देवी-देवताओं के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति किसी भी हिंदू से कम नहीं है। यही कारण है कि वे देखते ही देखते पानी में देवी-देवताओं की हूबहू प्रतिकृति बना देते हैं। पानी में रंगोली के ज़रिए देवी-देवताओं और देश की प्रतिकृति बनाने के इस जुनून ने उन्हें देश भर में एक अलग पहचान दिलाई है। देश में एक ऐसी मस्जिद भी है जहां सांप्रदायिक सौहार्द की अद्भुत मिसाल देखने को मिलती है। असम के काचर जिले में स्थित जामा मस्जिद के दूसरे मंज़िले पर एक दर्जन अलमारियां हैं। इसमें हिंदू, ईसाई और इस्‍लाम धर्म पर लगभग ३०० किताबें हैं। ये सभी पुस्‍तकें बांग्‍ला भाषा में हैं। मस्जिद के भीतर पढ़ने के लिए कमरा और लाइब्रेरी का होना बहुत दुर्लभ है लेकिन यहां ये दोनों ही चीजें उपलब्‍ध हैं। इस लाइब्रेरी में क़ुरआन, इस्‍लाम धर्म पर आधारित अन्‍य पुस्‍तकों के अलावा ईसाई दर्शन, वेद, उपनिषद, रामकृष्‍ण परमहंस तथा विवेकानंद का जीवन परिचय और रविंद्रनाथ टैगोर तथा शरद चंद्र चट्टोपाध्‍याय के उपन्‍यास मौजूद हैं।

इन धार्मिक या सामाजिक उदाहरणों के अलावा एक और उदहारण भी बताते चलें जब धर्म की दीवारें बिखेर दी गईं। इसी वर्ष ईद-उल-फ़ित्र के एक दिन पहले नोएडा के जेपी हॉस्पिटल में दोस्ती और भाईचारे की एक अनूठी मिसाल सामने आई जहाँ के डाॅक्टरों ने एक हिंदू और एक मुस्लिम मरीज का किडनी ट्रांसप्लांट कर उन दोनों को नई ज़िंदगी दी। हिंदू मरीज़ की पत्नी का ब्लड ग्रुप मुस्लिम मरीज़ के साथ और मुस्लिम मरीज़ की पत्नी का ब्लड ग्रुप हिंदू मरीज़ के साथ मैच हो रहा था, ऐसे में डाॅक्टरों ने इन्हें एक दूसरे को किडनी देने का सुझाव देकर एक बेहतर भाईचारे की मिसाल पेश की। दोनों परिवारों को डॉक्टर्स ने समझाया कि एक मरीज़ की पत्नी दूसरे मरीज़ को किडनी देकर उनकी जान बचा सकती है। और उन परिवारों ने ऐसा कर सांप्रदायिक सद्भाव का अद्भुत उदहारण पेश किया।

देश के कई इलाक़ों से सांप्रदायिक हिंसा की ख़बरें अक्‍सर आती रहती हैं। इस तरह की हिंसा में जहां सामाजिक तानाबाना बिगड़ता है वहीं जानमाल का भी काफ़ी नुकसान होता है। दरअसल यह उदाहरण बताते हैं कि हमारा देश एक ऐसा प्राचीन देश है जहाँ अलग-अलग धर्म के लोग एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करते हैं। ऐसे अनेकों क़िस्से और वाक़यात स्थानीय अख़बारों के आतंरिक पन्नों में खो जाते हैं। मुस्लिम समाज को चाहिए कि ऐसे नायाब उदाहरणों को उर्दू अख़बारों के ज़रिये भी आम मुसलमानों तक पहुंचाएं। सोशल मीडिया को सिर्फ़ नफ़रत भरे मैसेज भेजने का अड्डा बनाने के बजाय ऐसे प्रेरक प्रसंग भेजने का साधन बनाएं। देश बड़े नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। सब्र और हमवतन भाइयों का विश्वास ही वो ताक़त है जिसके बल पर मुस्लिम समाज शान से खड़ा रह सकता है। नफ़रत फैलाने वाली ताक़तों के बहकावे में आना मुस्लिम समाज के लिए ही घातक होगा। क्या मुस्लिम रहनुमा इस हिकमतअमली पर ग़ौर करेंगे? या अपनी सियासी दुकान चमकाने के लिए मुसलमानों को बलि का बकरा बनाते रहेंगे? इसी बात को आम मुसलामानों को भी सोचना होगा कि क्या वे राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होना चाहेंगे या वोटबैंक बनकर ज़िल्लत की ज़िंदगी जीते रहेंगे।