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मुसलमानों को आरक्षण नहीं विकास चाहिए / सैयद सलमान
Friday, November 30, 2018 1:32:58 PM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 30 11 2018

महाराष्ट्र में मुसलमानों को आरक्षण देने के नाम पर एक बार फिर से सियासत गरमा गई है। राज्य सरकार द्वारा मराठा समाज को आरक्षण देने का ऐलान किए जाने के बाद राज्य के मुस्लिम समाज ने भी आरक्षण की मांग तेज़ कर दी है। राज्य विधानमंडल के शीतकालीन सत्र में मुस्लिम विधायकों ने २०१४ में कांग्रेस सरकार द्वारा मुसलमानों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में दिए गए ५ प्रतिशत आरक्षण को लौटाने की मांग सरकार से की है। विधानसभा सत्र के दौरान सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए सदन और सदन के बाहर कांग्रेस, एसपी और एमआईएम के मुस्लिम विधायकों ने आरक्षण की मांग के समर्थन में आवाज़ उठाई। कांग्रेस का तर्क है कि वह सरकार से नया आरक्षण नहीं मांग रहे बल्कि सरकार ने जो आरक्षण निरस्त किया है उसे वापस मांग रहे हैं। बताते चलें कि कांग्रेस सरकार ने २०१४ में मुसलमानों को विशेष पिछड़ा वर्ग के तहत ५ प्रतिशत आरक्षण दिया था। कांग्रेस सरकार द्वारा दिए गए इस आरक्षण को अदालत ने भी मान्यता दी लेकिन फडणवीस सरकार के आने के बाद मुसलमानों को आरक्षण से वंचित कर दिया गया। अब चुनावी वर्ष में इसी मुस्लिम आरक्षण रूपी जिन्न को एक बार फिर बोतल से निकालने की तैयारी की गई है। जबकि मुस्लिमों के लिए आरक्षण पर सरकार का तर्क है कि आंध्र प्रदेश और केरल में जब धर्म के आधार पर दिया गया आरक्षण अदालत में नहीं टिका तो महाराष्ट्र में वैसी स्थिति आख़िर क्यों बनाई जाए।

इस मुद्दे के गरमाने के पीछे मराठा आरक्षण को मुख्य कारण बताने वाले मुस्लिम नेताओं का कहना है कि जब मराठा और मुस्लिम आरक्षण का रास्ता साफ़ कर दिया गया था तब अब जानबूझकर सरकार मुसलमानों के साथ भेदभाव क्यों कर रही है। विवादित मुस्लिम नेता और समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आज़मी ने तो विधानसभा में यहाँ तक कह दिया कि अगर आज अटल जी होते तो वह मुख्यमंत्री को ज़रूर राजधर्म सिखाते। आज़मी के मुताबिक़ राजधर्म तो यही है कि मराठों के साथ-साथ मुसलमानों को भी आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन फडणवीस सरकार जानबूझकर मुसलमानों के आरक्षण को रोके हुए है। मुस्लिम नेताओं के बयान और उनके विरोध के हर तरीके को सरकार नज़रअंदाज़ कर रही है। मामला केवल आरक्षण तक का ही नहीं है है बल्कि मुस्लिम नेताओं के पैर के नीचे से मुस्लिम वोटों के खिसक जाने के डर का भी है जिसकी वजह से यह मामला अब ज्यादा तूल पकड़ रहा है। मुस्लिम नेताओं को इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि सज्जनता, विवेक और तर्क की आवाज़ों को मुस्लिम समुदाय में तवज्जो क्यों नहीं मिल रही है। आरक्षण अगर मिल सकता है तो बात दूसरी है लेकिन न मिलने की सूरत में मुस्लिम भावनाओं के साथ यह खिलवाड़ क्यों किया जाए।

आरक्षण व्यवस्था में मुस्लिम वर्ग के पिछड़े वर्ग को शामिल किया गया है लेकिन धर्म के आधार पर नहीं। एक तो मुस्लिम वर्ग वैसे ही शिक्षा में पिछडा हुआ है उस पर बची खुची कसर मदरसा शिक्षा पूरी कर देती है जो प्रतिसपर्धा में कहीं टिक नहीं पाती। इस बीच कुछ आधुनिक मदरसों ने अपनी सोच में बदलाव लाकर अच्छी पहल की है लेकिन उनकी गिनती उँगलियों पर गिनी जा सकती है। मुस्लिम महिला शिक्षा के मामले में तो स्थिति कितनी दयनीय है, कहने की आवश्यकता ही नहीं है। आरक्षण का खेल पूरी तरह से आंकड़ों पर उलझ कर रह गया है। आश्चर्य की बात है कि मुसलमान आज तक आरक्षण की आस में ख़ुद को ठगता हुआ देखता रहा है। उसे शायद कांग्रेस सहित तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों से यह उम्मीद रही होगी कि उन्हें भी कभी आरक्षण मिलेगा। जबकि प्रबुद्ध मुस्लिम वर्ग अच्छे से जानता है कि ऐसा संभव नहीं है और ये झूठे आश्वासन देने वाले सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके वोटो से मतलब रखते हैं। मुसलमानों को जातीय आधार पर आरक्षण मांगने के स्थान पर वित्तीय आधार पर आरक्षण देने की मांग करने वालों का समर्थन करना कुछ हद तक शायद जायज़ हो क्योंकि ग़रीबी धर्म देखकर नहीं आती।

मुस्लिम आरक्षण से जुड़ा एक और अहम मुद्दा यह है कि केंद्र सरकार मुसलमानों को शेड्यूल कास्ट यानि एससी का दर्जा देने से बचती रही है। केंद्र से लेकर राज्य स्तर के सभी मुस्लिम नेताओं को इसी बहाने अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिलता रहा है। हालांकि यह भी सच है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट साफ़-साफ़ बताती है कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर देश के मुसलमानों की हालत दयनीय है। रंगनाथ मिश्र आयोग ने तो अपनी रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों में से ज़्यादातर लोगों की हालत दलितों से भी बदतर है। आयोग ने संविधान से पैरा ३ हटाने की भी सिफ़ारिश की है। दरअसल संविधान के पैरा ३ में राष्ट्रपति के आदेश १९५० का उल्लेख है, जिसके मुताबिक़ हिंदू धर्म के अलावा किसी और धर्म को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। बाद में बौद्धों और सिक्खों को भी एससी का दर्जा दिया गया, लेकिन मुस्लिम, ईसाई, जैन और पारसी धर्म के लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिल सका। एक और बात जो मुस्लिम नेताओं को इस मुद्दे पर गर्म रखती है वह यह कि एससी का दर्जा मिलते ही पिछड़े मुसलमानों को अपने आप विधानसभाओं और संसद में भी आरक्षण मिल जाएगा। ऐसा होते ही कई गुमनाम और हाशिये पर पहुंचे नेताओं की लॉटरी निकल सकती है। सो आरक्षण माँगना हर तरफ़ से फायदे का सौदा है। मिला तो सुरक्षित सीटों से चुनाव और न मिला तो मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए आरक्षण की मांग को क़ायम रखना और उन्हें अपने पाले में रखना।

मुस्लिम समुदाय आज तक राजनैतिक स्तर पर दुविधा में फंसा हुआ है। उसका केवल राजनैतिक हाशियाकरण ही नहीं हुआ है बल्कि उसे घृणा का पात्र बना दिया गया है। मुस्लिम आरक्षण की मांग जितनी तेज़ी से उठेगी उतनी ही तेज़ी से मतों का ध्रुवीकरण होगा। अधिकांश मुस्लिम नेताओं के लिए यह फ़ायदे का सौदा तो हो सकता है लेकिन आम मुसलमानों को उसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है। वह मुख्यधारा में आते-आते फिर से राजनीति का निवाला बन जाता है। मुस्लिम वर्ग की चिंता करने वालों को आरक्षण के ख्वाब दिखाने के बजाय हक़ीक़त की ज़मीन पर कुछ ऐसे काम करने चाहिए जिस से समाज का सर्वांगीण विकास हो। मुस्लिम वर्ग वैसे भी वर्षों से विभिन्न मुस्लिम नेताओं और अनेक राजनैतिक पार्टियों के राजनीतिक षड़यंत्र का शिकार है। उसे उसका हक़ मिले, इस विषय पर विचार-विमर्श करना ज़रुरी है लेकिन उसका तरीक़ा क्या हो उसपर मुस्लिम समाज के रहनुमा एकमत नहीं हैं। महाराष्ट्र में ज़रूर ऐसा देखने को मिल रहा है, लेकिन उसमें एकता कम अपना क़द बढ़ाने की होड़ ज़्यादा है। अगर इन्हीं नेताओं से यह कहा जाए कि क्या वे मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे पर अपनी पार्टी लाइन से हटकर एक मंच पर आकर चुनाव लड़ने का दम रखते हैं या फिर वे अपनी पार्टी का गठबंधन इस मुद्दे पर उन पार्टियों के साथ करा पाने की स्थिति में हैं जिनके विधायक यह मांग कर रहे हैं, तो अधिकांश अपनी बग़लें झांकते नज़र आएंगे। इनमें से यह काम किसी के बस का नहीं है। चुनाव आते ही सबकी अपनी डफ़ली होगी और सबका अपना राग होगा। बेहतर होगा इस मामले में संसदीय लड़ाई लड़ने के साथ-साथ मुस्लिम नेता अपने समाज की अशिक्षा, बेरोजगारी, महिलाओं के अधिकार जैसे मुद्दों पर एक मंच पर आकर मुसलमानों का मार्गदर्शन करें। अपनी स्थिति सुधारने के लिए इसके अतिरिक्त मुसलमानों के पास क्या अन्य कोई विकल्प है?