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ये तेरी ईद- ये मेरी ईद / सैयद सलमान
Friday, June 15, 2018 10:47:05 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 15 06 2018

मुंबई सहित देश के अनेक हिस्सों में रमज़ान का चांद दिखने को लेकर हुए भ्रम और सही गवाही न मिल पाने के कारण इस वर्ष रोज़े शुक्रवार १७ जून से शुरू हुए। यहाँ तक कि मुंबई के निकट लोनावला में भी गुरूवार १६ जून को पहला रोज़ा था। देश के अनेक हिस्सों से भी यह ख़बर आई कि गुरूवार को ही रोज़े शरू होंगे। लेकिन कई हिस्सों में १७ जून को उलेमा एकमत हुए और इस तरह एक ही शहर, एक ही राज्य और एक ही देश में रमज़ान के रोज़े दो अलग-अलग दिन और तारीख़ को शुरू हुए। इस आधार पर ही अब चिंता जताई जा रही है कि अगर मसलहत से काम न लिया गया तो देश भर में अलग-अलग दो ईद मनाए जाने की भूमिका तैयार हो चुकी है।
दरअसल ईद-उल-फ़ित्र इस्लामी हिजरी कैलंडर अर्थात हिजरी संवत के दसवें महीने शव्वाल-उल-मुकरर्म की पहली तारीख़ को मनाई जाती है। हिजरी संवत पूरी तरह चांद पर आधारित कैलेण्डर है, जिसका हर नया महीना नया चांद देखकर ही शुरू माना जाता है। ठीक इसी तर्ज़ पर शव्वाल महीना भी नया चांद देखकर ही शुरू होता है और शव्वाल का पहला दिन ही रमज़ान ख़त्म होने की निशानी और ईद-उल-फ़ित्र का त्यौहार का दिन होता है।
क़रीब महीने भर के रोज़े के बाद धूमधाम से मनाए जाने वाले त्योहार ईद की तारीख़ों को लेकर अक्सर थोड़ा बहुत संशय हमेशा ही बना रहता है। इसी शहर मुंबई ने कुछ वर्ष पहले दो ईद मनाकर न सिर्फ़ मुसलमानों के दो फ़िरक़ों में दूरियां लाने का काम किया था बल्कि देशभर में मज़ाक़ का पात्र भी बने थे। इस बार भी स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही बन रही है। हालांकि दोनों फ़िरक़ों की रवैयत हिलाल कमिटी ने रमज़ान के चांद को लेकर काफ़ी हद तक एकजुटता दिखाई थी। लेकिन अहले हदीस सहित अनेक फ़िरक़ों ने एक दिन पहले ही रोज़े शुरू कर ईद को लेकर पहले दिन ही संशय का माहौल बना दिया था।
ईद मनाने के लिए चांद देखने की परंपरा को निभाते हुए चांद देखने की ज़िम्मेदारी शहरों, क़स्बों और अन्य ठिकानों पर बनी चांद कमेटियों की होती है, लेकिन चांद कब, किसको, कहां और कैसे दिखता है यह तय करना मुश्किल काम है। अब से कुछ वर्ष पहले शिया और सुन्नी जैसे परंपरागत बंटे हुए फ़िरक़ों की ईद की तारीख़ों में अंतर होता था। खोजा, बोहरा जैसे अनेक फ़िरक़े मिस्री कैलेंडर के हिसाब से ईद की तारीख़ की घोषणा पहले से ही कर देते हैं। लेकिन अब शिया, सुन्नी, वहाबी, अहले हदीस और न जाने कौन-कौन से फिरक़े इस अहम और अहंकार के खेल में शामिल हो गए हैं। आम मुसलमान को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन उलेमा कराम ने इसे अपनी अना का मसला बनाकर मुसलमानों के गले की फांस बना दिया है। असल में मुसलमान मौलवियों में अहम और अना की बड़ी समस्या है। वह अना किसी दीनी मसले पर स्वाभिमान की हद तक हो तब भी कुछ हद तक स्वीकार की जा सकती है, लेकिन अगर वही अना अहंकार, घमंड, तकब्बुर का रूप ले ले तो मुसलमानों के बीच विवाद और दुराव का कारण बन जाती है। अलग-अलग मसलक के उलेमा कुछ भी तय कर लेते हैं और दूसरे मसलक से बात तक नहीं करते तब ही ऐसी स्थिति पैदा होती है। दुःख इस बात का है कि लोगों को होने वाली परेशानी की इन उलेमा हज़रात को कोई फ़िक्र नहीं होती। कई मुस्लिम विद्वान और प्रबुद्ध उलेमा मानते हैं कि विज्ञान की मदद से एक तारीख़ तय की जा सकती है। मगर सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? नई पीढ़ी का युवा मानता है कि आने वाले वर्षों में सभी मुस्लिम कंप्यूटर के ज़रिए खुद ही चांद देख लिया करेंगे। ऐसे में मौलवियों और चांद कमेटियों का महत्व कम होने का अंदेशा बढ़ सकता है। हालांकि युवा वर्ग का बहुत बड़ा तबक़ा अब भी अपनी पुरानी रिवायत, अपनी तहज़ीब और अपने संस्कारों को महत्व देता है। मस्जिदों में नमाज़ के वक्त युवाओं की अच्छी ख़ासी भीड़ इस बात का सबूत भी है। लेकिन यही युवा वर्ग यह भी चाहता है कि मुस्लिम उलेमा वक़्त के साथ चलते हुए दीन की तालीम दें न कि उनमें तफ़रक़ा पैदा करें।
एक तथ्य यह भी है कि मुस्लिम समाज हमेशा ही पहले पहल विज्ञान से जुड़ी चीज़ों को अपनाने में हिचकिचाता रहा है। पहले लाउडस्पीकर के साथ ऐसा हुआ। अब क़ानूनन लाऊडस्पीकर पर समय की पाबंदी के बावजूद धड़ल्ले से मस्जिदों में उसका उपयोग होता है। पुराने बुज़ुर्ग बताते हैं कि कभी घड़ी के साथ भी ऐसा हो चुका है और धूप, साया, सूरज और चन्द्रमा की लालिमा देखकर नमाज़ का वक्त तय होता था। लेकिन अब बाकायदा घड़ियाँ हाथों की ही नहीं मस्जिदों और मदरसों की ज़ीनत बनी हुई हैं। आम मुसलमान को इस से कोई समस्या भी नहीं है। लेकिन अब चांद पर समस्या है।
यह केवल धार्मिक समस्या नहीं है बल्कि, इस समस्या को बढ़ावा देकर सियासी भी बना दिया गया है। इसी मुंबई शहर के पूर्वी उपनगर में ईद के चांद को लेकर उपजे विवाद का साया एक विधानसभा सीट पर पर भी पड़ चुका है। मुंबई का मुसलमान गवाह है कि, उस वक्त उस सीट पर चुनाव को मसलकी रंग देकर मुसलमानों को दो हिस्सों में बांट दिया गया था। ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है। चांद दिखने को लेकर स्थिति चाहे जैसी भी हो लेकिन एक बात साफ़ है कि इस तरह के भ्रम से मुसलमानों में ईद का हर्षोल्लास कम हो जाता है। प्रशासनिक स्तर पर पुलिस बंदोबस्त, शैक्षणिक और सरकारी-गैर सरकारी दफ़्तरों में छुट्टियों और अन्य मसलों को लेकर कई तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो जाती हैं। दो ईद यानी दो छुट्टियों की दरकार।
जहाँ तक दुनिया का सवाल है और आम मुसलमान की मान्यता है कि इस्लाम में फ़िरक़ों का होना आम बात है। कुछ पढ़े लिखे जाहिल टाइप के आलिम बड़ी शान से अपने मसलकी जलसों में इस बात को बयान भी करते हैं। वे उस हदीस के मफ़हूम के हवाले से अपनी बात रखते हैं जिससे रवायत है कि मुसलमानों के ७३ फ़िरक़े होंगे। यह अपने फिरक़े की दुकान को चमकाने का बढ़िया साधन तो हो सकता है लेकिन, यह कहकर वे क़ुरआन-ए-पाक को जाने अनजाने में मानने से इंकार कर रहे होते हैं।
क्या कभी इन उलेमा-ए-कराम ने क़ुरआन की इस आयत पर ग़ौर किया है? "सब मिल कर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो और फ़िरक़ों में मत बंटो।"(अल-क़ुरआन- ३:१०३) और, "तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो फ़िरक़ों में बंट गए और खुली-खुली स्पष्ट हिदायात पाने के बाद इख़्तेलाफ़ में पड़ गए, इन्हीं लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।" (अल-कुरआन- ३:१०५)
इसी के साथ कुरआन में कई जगह नफ़रत न फैलाने और मोहब्बत का पैग़ाम दिया गया है। लेकिन उन पर ध्यान देने के बजाय उलेमा इख़्तेलाफ़ को बढ़ावा देने को तरजीह देते हैं। और ये उलेमा जिस हदीस के हवाले से इतनी मेहनत करते हुए मसलकी नफ़रत फैलाने में लगे हुए हैं , क्या उन्होंने कभी उस मफ़हूम को पूरा पढ़कर आम मुसलामानों को समझाया? हदीस का मफ़हूम है कि पैग़ंबर मोहम्मद साहब फ़रमाते हैं, "मेरी उम्मत के ७३ फ़िरक़े होंगे, पर तुम उन फ़िरक़ों में मत बंट जाना।" केवल पहली पंक्ति पकड़ कर आम मुसलमानों को फ़िरक़ों में बांटने की ठेकेदारी कर रहे चंद उलेमाओं ने यह भी नहीं बताया कि क़ुरआन की एक भी बात को न मानना कुफ्र और सच से इंकार करना है।
उम्मीद भी है और उलेमा-ए-कराम से गुजारिश भी कि, खुदारा मुसलमानों को फ़िरक़ों में न बांटें और आपसी बातचीत के दरवाज़े खुले रखते हुए कम-अज़-कम मुसलमानों को मुक़द्दस रमज़ान और रोज़े के इख़्तेताम पर एक ही दिन हर्षोल्लास से ईद-उल-फ़ित्र मनाने का मौक़ा फ़राहम करें। ताकि आम मुसलमान अपने हमवतन ग़ैर मुस्लिम भाइयों को भी इस पवित्र पर्व में हंसी खुशी शामिल कर सके, वरना अंदाज़ा लगाइये उस आम मुसलमान की कैफ़ियत का, जब उसका घनिष्ठ ग़ैर मुस्लिम मित्र या फिर दूसरे मसलक का मुसलमान पूछता है, "आपके यहाँ ईद आज है या कल?" आम मुसलमान तो शर्म से गड़ ही जाता है, लेकिन... 'शर्म तुमको मगर नहीं आती....'
बक़ौल अल्लामा इक़बाल,
दामन-ए-दीं हाथ से छूटा तो जम'ईय्यत कहाँ,
और जम'ईय्यत हुई रुख़सत तो मिल्लत भी गयी...