साभार-दोपहर का सामना 24 04 2018
जम्मू-कश्मीर के कठुआ में आठ साल की बच्ची के साथ हुए दुष्कर्म और निर्मम हत्या की घटना से पूरे देश में ग़ुस्सा है। सोशल मीडिया, राजनैतिक दल, देशभर के अनेक सामाजिक संगठन बच्ची के साथ हुए गैंगरेप को लेकर जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं। बच्ची के साथ हुई बर्बरता की वीभत्स दास्तान 15 पन्नों की चार्जशीट में दर्ज है। चार्जशीट के मुताबिक बच्ची के साथ पहले सामूहिक कुकर्म किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई। इस बच्ची को एक सप्ताह तक बंधक बना कर रखा गया और उसके साथ लगातार बलात्कार किया गया। इस कृत्य में आरोपियों के साथ जम्मू कश्मीर पुलिस का एक कॉन्सटेबल दीपक खजूरिया और स्थानीय पुलिस भी शामिल थे। यह पूरा मामला तब प्रकाश में आया जब कठुआ में 10 जनवरी को 8 साल की एक बच्ची लापता हो गई। 12 जनवरी को उसके पिता ने हीरानगर थाने में शिकायत दर्ज कराई। 17 जनवरी को मासूम की लाश क्षत-विक्षत हालत में पास के जंगल में मिली। महबूबा सरकार ने 23 जनवरी को पूरे मामले को जम्मू कश्मीर क्राइम ब्रांच को सौंप दिया। क्राइम ब्रांच ने आनन-फ़ानन एसआईटी बनाई और जांच के बाद 9 अप्रैल को 8 आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट पेश कर दी गई। इस मामले में सभी आठ आरोपी गिरफ़्तार कर लिए गए।
इस बीच उन्नाव में एक और नाबालिग़ के बलात्कार और उसके पिता की हत्या के मामले में भाजपा विधायक का नाम सामने आया। लोगों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। मार्च से अप्रैल आते-आते उन्नाव और कठुआ मामले ने राजनैतिक रंग ले लिया। इस मामले में देश भर में बढ़ते हुए दबाव के बाद सरकार ने 12 साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार और गैंगरेप में फांसी का प्रावधान करते हुए आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश 2018 को कैबिनेट में मंज़ूरी दी। बलात्कार में कड़ी और जल्द सज़ा दिलाने वाले अध्यादेश पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 24 घंटे के भीतर ही गत रविवार को दस्तख़त भी कर दिए। अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिलते ही अब बच्चों के यौन अपराध से जुड़े पहले के क़ानून भी संशोधित हो गए हैं। इनमें पॉक्सो क़ानून, आईपीसी, सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट से जुड़ी धाराएं हैं। इस क़ानून के लागू होते ही 12 साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार के दोषी को फांसी हो सकेगी।
कठुआ की घटना को लेकर देशभर में ज़बरदस्त आक्रोश इसलिए भी है क्योंकि यह एक मासूम के साथ किया गया जघन्य अपराध है। हालाँकि एक तरफ़ तो आम जनता, सरकार और कानूनविद इस समस्या से जूझते हुए क़ानून बनाने-बनवाने की की जद्दोजेहद में थे, तो दूसरी तरफ सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह रही कि इस घटना को लेकर हिंदू-मुसलमान मुद्दे का रंग दिया गया। कठुआ की मृतक बच्ची का गाँव रसाना हिंदू बहुल क्षेत्र है। यहां बकरवाल समुदाय के लोग भी रहते हैं। जो मूल रूप से ख़ानाबदोश हैं और भेड़-बकरियों को चराने का काम करते हैं। जबकि खुद बच्ची के पिता का कहना है कि कई सालों से वे लोग यहां रह रह हैं, लेकिन कठुआ में इससे पहले ऐसी कोई घटना नहीं हुई। हमारे पड़ोसी हिंदू हैं और सब एक साथ मिलजुलकर रहते हैं, बल्कि सब एक दूसरे के घर भी आया जाया करते हैं। मासूम उन्हीं पड़ोसियों के बच्चों के साथ स्कूल आती-जाती थी। पिछले कुछ सालों में यहां के हालात ज़रूर बदल गए हैं। लेकिन ऐसा कुछ होगा हमने ये कभी नहीं सोचा था।
एक कहानी सामने यह भी आई कि यह केवल बच्ची के अपहरण, बलात्कार और हत्या का मामला नहीं है। 15 पन्नों की चार्जशीट के मुताबिक पूरे घटनाक्रम का मास्टरमाइंड मंदिर का पुजारी है। उसी के इशारे पर कठुआ से बकरवाल समुदाय को भगाने के लिए मासूम को निशाना बनाया गया। चूंकि सभी आरोपी हिंदू हैं, लिहाजा इलाके के हिंदूवादी संगठन 'हिन्दू एकता मंच' ने इनके पक्ष में आंदोलन चलाया और आरोपी बलात्कारी और हत्यारों की रिहाई की मांग की। वहीं मुस्लिम समाज के चंद अवसरवादी नेताओं ने इस नन्हीं बच्ची के साथ हुए जघन्यतम बलात्कार की घटना के लिए पूरे हिन्दू समाज को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की।
लेकिन तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है। कट्टर हिंदूवादी संगठन हिंदू महासभा ने राष्ट्रपति को संबोधित एक ज्ञापन में नाबालिग बच्चों से बलात्कार करने वालों के लिए फांसी की मांग की है। हिंदू महासभा के अनुसार अगर ऐसे मामले पर समाज के बुद्धिजीवी लोग पक्षपात करेंगे और इसे हिंदू मुस्लिम के नज़रिए से देखेंगे, तो इसके बहुत दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे। हिंदू महासभा ही नहीं बल्कि अनेक हिंदू रहनुमा भी इस घटना के विरोध में सड़कों पर उतर चुके हैं। कड़ी से कड़ी सजा की मांग की जा रही है। लेकिन चंद लोगों ने इस पूरे मामले को 'कठुआ की मुस्लिम बच्ची' के नाम से जोड़कर जो देशभर में गंध फैलाई है, उसकी निंदा होनी चाहिए। चंद हिंदूवादी संगठन के प्रदर्शन को समस्त हिन्दू समाज से जोड़ने की कोशिश करना न केवल हास्यास्पद है, बल्कि निंदनीय भी है। ख़ासकर ऐसे लोगों से पूछा जाना चाहिए कि किसी आतंकी घटना में किसी मुसलमान का नाम आने पर अगर कहा जाता है कि आतंक का धर्म नहीं होता, तो आखिर बलात्कारी का धर्म कहाँ से ढूंढ़ लाए?
सोशल मीडिया सहित अनेक मंचों पर मौजूद हिंदू-मुसलमानों ने एक स्वर में कठुआ की नन्हीं बच्ची के बलात्कार और हत्या की भरपूर निंदा की है। यह एक शाश्वत सत्य है कि, एक सच्चा हिन्दू सहिष्णु और उदारवादी विचारों का होता है। चंद मुट्ठी भर लोगों द्वारा राजनैतिक लाभ के लिए निकाले गए मार्च, रैली, या किसी विरोध प्रदर्शन को पूरे समुदाय से जोड़ देना भी सरासर ग़लत है। इस मामले पर हिंदू-मुस्लिम का ऐसा रंग चढ़ चुका था कि इसे और तूल देने से बचाने के लिए जम्मू कश्मीर सरकार को दो सिख अफ़सर भूपिंदर सिंह और हरमिंदर सिंह को नियुक्त करने का फैसला करना पड़ा। कारण साफ़ है कि कठुआ गैंगरेप मामले को लेकर दो समुदाय आमने-सामने हैं और दोनों ही एक दूसरे पर भेदभाव का आरोप लगा रहे हैं। दूसरी तरफ इस केस में सीबीआई जाँच की भी मांग उठ रही है, क्योंकि मामला बेहद संवेदनशील है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस मामले में विषैली राजनीति चल रही है। ऐसे लोगों पर विशेष निगाह रखने की जरुरत है जो आग में घी डालने की कोशिश कर रहे हैं।
इस मामले में हिंदू-मुस्लिम का रंग देने वाले मुस्लिम समाज के सरफिरों को पता होना चाहिए कि कठुआ की मासूम का केस अगर आज समाज के सामने आ पाया है तो वह जम्मू-कश्मीर क्राइम ब्रांच के एसएसपी रमेश कुमार जल्ला और बच्ची का केस लड़ने वाली वकील दीपिका राजावत के कारण। तमाम दबावों के बावजूद रमेश कुमार जल्ला की वजह से ही बच्ची के बलात्कार और हत्या मामले में चार्जशीट दाखिल हो पाई। कठुआ की बच्ची का केस लड़ने वाली वकील दीपिका राजावत को भी लगातार धमकियां मिल रही हैं, लेकिन उनका कहना है कि वो इस केस को बिलकुल नहीं छोंड़ेंगी। इसी मामले में जम्मू-कश्मीर क्राइम ब्रांच की स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम में शामिल इकलौती महिला अधिकारी श्वेताम्बरी शर्मा ने भी स्वीकार किया है कि इस केस को सॉल्व करने के लिए उनके सामने कई कठिनाइयां आईं, कई बार उन्हें परेशान किया गया और लोकल लोगों ने केस छोड़ने के लिए मजबूर भी किया।
यहाँ ये भी जान लें कि जल्ला एक कश्मीरी पंडित हैं और उनका परिवार भी उन हजारों परिवारों में से है, जिन्हें कट्टरपंथियों के डर से कश्मीर से पलायन करना पड़ा था। लेकिन जल्ला ने ऐसे वक़्त में अपना फ़र्ज़ बख़ूबी निभाया, जब इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश हो रही थी। क्या ये तीनों मुस्लिम समाज के हैं? ऐसे में मुस्लिम समाज के लोगों को पहले तो अपने अवसरवादी उन नेताओं का मुंह बंद करवाना होगा जो बलात्कार जैसे नाज़ुक मसले को सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं। साथ ही कठुआ जैसे अन्य ठिकानों पर हुई ऐसी शर्मनाक घटनाओं पर भी बिना धर्म देखे पीड़ित के पक्ष में मुखर होना होगा। इतना तो समझ में आ जाना चाहिए कि हत्यारों, बलात्कारियों या किसी भी किस्म के अपराध करने वाले अपने धर्म के आरोपियों के पक्ष में जलसे करना, रैलियां निकलना, प्रदर्शन करना राजनैतिक मोहरा बनने का साधन मात्र हैं। याद रखिए, कथित राष्ट्रवाद अथवा अल्पसंख्यकवाद की आड़ में किसी भी पैशाचिक कृत्य का समर्थन कर समाज को गर्त में ले जाने वालों से देश और समाज को बचाना हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है।