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इल्म की बात हो, इल्ज़ाम की नहीं...../ सैयद सलमान
Tuesday, November 14, 2017 9:47:39 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 14 11 2017

'पढ़ो और पढ़ाओ', 'पढ़े लिखे लोगों के पास बैठो', और 'जो आप में तालीम याफ़्ता (शिक्षित) हों, वह एक हफ़्ते में कम से कम दो दिन अशिक्षितों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी लें'। यह किसी आम बातचीत या बंद एसी कमरे में हुए सेमीनार में कहे गए वाक्य या स्लोगन नहीं हैं। यह आपली मुंबई के आज़ाद मैदान में संपन्न हुए तीन दिवसीय इज्तेमा में मौजूद मुस्लिम समाज के लाखों लोगों को दी गयी मुस्लिम धर्मगुरुओं की नसीहत है, जिसके द्वारा मुस्लिम समाज में शिक्षा के प्रति छटपटाहट को समझा जा सकता है। इस इज्तेमा में सिर्फ़ शिक्षितों को ही नहीं बल्कि रईसों को भी समाज में योगदान के लिए प्रेरित करने की कोशिश की गयी। दौलतमंदों से गुज़ारिश की गयी कि वे अपने धन का उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में करें, तालीमी इदारे खोलें, स्वच्छता से जुड़े प्रोजेक्ट में हाथ बंटाएं, फ़िज़ूल खर्ची से बचें और दूसरों को भी बचाएं, गरीबों की मदद करें, उनकी ज़रूरतें पूरी करने में पहल करें, और शादी ब्याह को आसान और सादा बनाकर एक आदर्श समाज बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें।

1991 में स्थापित 'सुन्नी दावत-ए-इस्लामी' द्वारा मुंबई में जब 1992 में इज्तेमा शुरू किया गया था तब शुद्ध धार्मिक प्रवचनों की बातें अधिक होती थीं। बदले समय ने मुस्लिम उलेमा को इस मंच से अनेक सामाजिक बातों को मुसलमानों के बीच ले जाने के लिए प्रेरित किया । अब आम मुसलमान बेवजह की भाषणबाज़ी का हिस्सा नहीं बनना चाहता। इस बार भी लाखों की भीड़ ने इज्तेमा में अपनी मौजूदगी दर्ज कराकर कई ऐसे विषय पर उलेमा के बयान सुने जो उनके लिए नए भी थे और शिक्षाप्रद भी। 'हालात-ए-हाज़रा और हमारी ज़िम्मेदारियाँ', 'नशे की खराबियां', 'विरासत के शरई उसूल', 'दावत-ए-दीन और तालीम-ओ-तरबियत की अहमियत', 'बेहतरीन मुसलमान की ख़ासियतें', 'नौजवानों के विषय और उनका हल', 'साइंस की तरक्की में मुसलामानों का किरदार' और 'तौबा की अहमियत' जैसे विषय पर देश विदेश के जैयद आलिमों के बयान नयी पीढ़ी के लिए काफ़ी ज्ञानवर्धक रहे। इस बार के इज्तेमा में ख़ासकर इन विषयों का चुना जाना इसलिए भी ज़रूरी था कि पूरे विश्व में आतंकवादी संगठनों ने इस्लाम की जो छवि बना रखी है उस से नौजवान पीढ़ी में आक्रोश है और वह इस बात से दुखी भी है। भटके नौजवानों का आतंकी संगठनों की तरफ़ आकर्षित होना समाज के लिए चिंता का विषय है। ऐसे में इस्लाम की सच्ची तस्वीर पेश करना निहायत ज़रूरी है जिसमें इंसानियत, अमन और शिक्षा की बात कही गयी है।

इस बार के इज्तेमा का पहला दिन पूरी तरह महिलाओं को समर्पित रहा। लाखों की तादाद में आई मुस्लिम महिलाओं के बीच 'शादी इस्लाम की रौशनी में', 'इस्लाम में औरत का मक़ाम और मर्तबा', 'मआशरे की तरक्की में ख़वातीन का किरदार' जैसे मौज़ूआत पर ख़ासकर चर्चा की गयी। इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए उलेमा यह समझाते नज़र आए कि इस्लाम ने पैदा होते ही बच्चियों को बोझ समझकर मार डालने की प्रथा का अंत कर उन्हें समाज में जीने का हक़ दिया। पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने बच्चियों के प्रति अपने सम्मान को अपनी लाड़ली बेटी हज़रत फ़ातिमा के ज़रिये बख़ूबी समझाया। मोहम्मद साहब का अपनी बेटी बीबी फ़ातिमा के प्रति लाड़, दुलार, स्नेह तत्कालीन समाज के लिए आदर्श बनकर उभरा। इज्तेमा के वक्ता उन्हीं उदाहरणों के हवाले से मुस्लिम समाज को यह समझाने का प्रयास कर रहे थे कि इस्लाम ने औरतो के तहफ़्फ़ुज़, उनकी इज़्ज़त और एहतेराम को बहुत महत्व दिया है।

ट्रिपल तलाक़ पर भी चर्चा हुई। सरकार से अपील की गयी कि ट्रिपल तलाक़ को पूरी तरह ख़त्म न कर मुस्लिम समाज के उलेमा को मौक़ा दिया जाए कि वह अवाम को ट्रिपल तलाक़ से जुड़ी समस्याओं, भ्रांतियों और उसके नुक़सानात को अवाम को समझा सकें। वैसे वक्ता इस बात पर एकमत से सहमत थे कि क़ुरआन और हदीस की रौशनी में एकबारगी तीन तलाक़ देना गुनाह है। मुस्लिम महिलाओं को संबोधित करते हुए दहेज, घरेलु हिंसा, यौन हिंसा और महिलाओं की ख़ुदकुशी जैसे विषय पर भी चर्चा हुई। उलेमा ने मुस्लिम समाज को इन बुराइयों से दूर रहने की हिदायत दी। मुस्लिम समाज में फैली अनेक रूढ़िवादी परंपराओं और अन्धविश्वास से भी बचने की बात की गयी। उलेमा का मत था कि साइंस को इस्लाम का दुश्मन नहीं बल्कि साथी समझना चाहिए क्योंकि साइंस भी इल्म है और इल्म की इस्लाम में बड़ी फ़ज़ीलत बयान की गई है। इस्लाम में महिलाओं के हुक़ूक़ पर बात करते हुए क़ुरआन की सूरह निसा का ख़ासकर कई बार ज़िक्र किया गया जिसमें मुस्लिम महिलाओं से जुड़ी अनेक समस्याओं और सवालों के जवाब मौजूद हैं। यहां तक कि प्रत्येक महिला की पिता, पति, बेटे इत्यादि की जायदाद में हिस्सेदारी का भी ज़िक्र क़ुरआन में मौजूद है।

उलेमा ने अल्लाह, इस्लाम, क़ुरआन और पैग़म्बर मोहम्मद साहब के प्रति प्रेम को मात्र दिखावे के लिए अपनाने वालों को आड़े हाथों लेते हुए मुसलमानों से अपील की कि इंसानियत, भाईचारा, सभी से प्रेम की जो शिक्षा इस्लाम में दी गयी है उसे अपनाकर मुस्लिम समाज पर लगे दाग धोने के लिए आगे आएं। अनेक उलेमा ने इस बात का भी ज़िक्र किया कि जीने से लेकर मरने तक के दरमियान व्यक्तिगत और सामाजिक ज़िम्मेदारियों की जो शिक्षा क़ुरआन में दी गयी है, मुसलमानों को उसका सही तरह से पालन करते हुए जीवनयापन करना चाहिए। नौजवनों को संबोधित करते हुए कहा गया कि आज के नौजवान ज़्यादातर धनवानों से दोस्ती और ताल्लुक़ात बढ़ाने को महत्व देते हैं जबकि ऐसे दोस्त अक्सर गुनाहों, बुराइयों और असामाजिक गतिविधियों की तरफ़ ले जाते हैं। ऐसे में अल्लाह और उसके रसूल से मोहब्बत करने वालों और सामाजिक सरोकारों से जुड़े नौजवानों से दोस्ती करने का मुसलमान नवयुवकों को मश्वरा दिया गया।

इस्लाम में माँ के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया गया कि माँ का दर्जा पिता से तीन गुना अधिक है। इस्लाम में पुरुष और महिलाओं को समान दर्जा दिए जाने की भी बात इस अवसर पर की गयी। अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, शाम, लीबिया जैसे मुल्कों में फैले आतंक पर चर्चा करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि आख़िर आतंक को कैसे इस्लाम से जोड़कर आतंकी संगठन अपनी दुकान चला रहे हैं और मुसलामानों को विश्व भर में शर्मसार कर रहे हैं। वर्तमान में देश में चल रही घटनाओं का ज़िक्र करते हुए इस देश के बहुसंख्यक भाइयों के प्रति सम्मान दिखाते हुए कहा गया कि इस देश के बहुसंख्यकों को भी इस बात की चिंता है कि देश के लोकतंत्र का विश्वपटल पर मज़ाक न बने, इसलिए सामाजिक समरसता बनाए रखने में देश के बहुसंख्यक समाज की मदद करना, उनका साथ देना मुसलामानों की ज़िम्मेदारी भी है और उन हक़ भी। इज्तेमा में शिक्षा के महत्व को पैग़म्बर मोहम्मद साहब के हवाले से स्पष्ट करते हुए कहा गया कि केवल शिक्षा ही नहीं बल्कि मुसलमानों को तरबियत और प्रशिक्षण देने पर भी ज़ोर देना चाहिए। प्रशिक्षण का ही असर था कि मोहम्मद साहब के दौर में बुलंद किरदार सहाबियों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त मुसलमानों के पास है जिनके आदर्शों पर चलकर कामियाबी पाई जा सकती है।

ब्रिटेन से आये विश्व प्रसिद्ध आलिम अल्लामा क़मरुज़्ज़मां आज़मी, मुफ़्ती निजामुद्दीन रिज़वी मिस्बाही, डरबन से आये मौलाना मुफ़्ती नसीम अशरफ़ी, मौलाना ज़हीरुद्दीन खान रिज़वी, मौलाना ग़ुलाम ग़ौस अल्वी, मौलाना फ़ैयाज़ क़ादरी, मौलाना अब्दुर्रब मिस्बाही, मौलाना सैयद अमीनुल क़ादरी, मुफ़्ती अनफ़ासुलहसन चिश्ती, मौलाना क़ारी अब्दुर्रशीद मिस्बाही, सुन्नी दावत-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मौलाना शाकिर अली नूरी सहित देश विदेश से आए अनेक उलेमा ने इस इज्तेमा से ख़िताब किया और मुसलमानों को आदर्श नागरिक और सच्चा मुसलमान बनने की अपील की।

कुल मिलाकर यह इज्तेमा उन तंज़ीमों के गाल पर करारा तमाचा है जो छोटे-छोटे मुद्दों पर संगीन फ़तवे जारी करके मुसलमानों को गुमराह करते हैं। इस्लाम की जग हंसाई करवाते हैं। यह इज्तेमा इस्लाम में इल्म की बात करने वाला नज़र आया। इसका निचोड़ यही रहा कि बात-बात पर इलज़ाम लगाने, फ़तवे जारी करने और कौम को गुमराह करने से इस्लामी दानिशवरों को बाज़ आना चाहि। बल्कि उन्हें इस्लाम में इल्म की अहमियत को समझाने के लिए काम करना चाहिए। फिर वह चाहे साइंस की उपलब्धियां, डिजिटल क्रांति की देन या फिर बदलते युग की जरूरत ही क्यों ना हो। अब देखना यह है कि यह इज्तेमा मात्र वार्षिक आयोजन भर बनकर रह जाता है या लाखों की संख्या में जुटे मुसलमान यहाँ से मिली इस्लाम की सही शिक्षा को आत्मसात कर नए अमन और शांति के युग का सूत्रपात करते हैं।