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शिक्षा के बिना तरक़्क़ी नहीं / सैयद सलमान
Tuesday, September 19, 2017 12:28:52 AM - By सैयद सलमान

सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना
19 09 2017

मुस्लिम समाज की बदहाली और उनकी शिक्षा के प्रति तंग-नज़री हमेशा प्रबुद्ध तबके में चर्चित रही है। मुस्लिम बुद्धिजीवी चाहते हैं कि मुस्लिम समाज में शिक्षा की कुछ ऐसी बयार चले कि वर्तमान में वैश्विक स्तर पर बदनामी की मार झेल रहे मुसलमान अपनी शिक्षा से ही उसका जवाब दें। लेकिन मुस्लिम समाज लकीर का फ़क़ीर बना किसी भी सुधार की गुंजाईश को धर्म में दखलंदाज़ी कहकर अक्सर ख़ारिज करता रहता है। रोचक है कि साझा संस्कृति के दो महत्वपूर्ण अंग हिंदू-मुसलमान आपस में एक दूसरे को ख़तरा बताकर गाहे बगाहे धर्म के खतरे में होने का रोना रोते हैं जबकि दोनों की समस्या भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा है। लेकिन राजनैतिक तानेबाने गढ़ने वालों ने कुछ ऐसे ज़हर बुझे सुई-धागे का उपयोग किया है जिसका असर यह हुआ है कि क़ौम ने तय कर लिया है, 'विचारों के चीथड़े भले ही नज़र आने लगें, लेकिन कट्टरवाद का लबादा नहीं उतरेगा।'
मुस्लिम समाज को आज़ादी के बाद से ही जिस तरह धार्मिक, सामाजिक और आधुनिक शिक्षा के घालमेल में उलझाया गया उसका ख़ामियाज़ा आज भी मुस्लिम समाज को उठाना पड़ रहा है। जिन्होंने केवल धार्मिक शिक्षा मदरसों में ग्रहण की वे केवल धार्मिक अनुष्ठानों में नियाज़, फ़ातिहा, वाज़, क़ुरआन ख़्वानी के लिए उपयुक्त करार पाए। कुछ को मस्जिदों में इमामत का सौभाग्य मिला। कुछ बांगी, क़ारी, मुफ़्ती बनकर अपने आपको धर्म की राह में समर्पित कर कथित रूप से इस्लाम सेवा में लीन हो गए। जिन्होंने स्थापित समाजी शिक्षा ली यानि मैट्रिक से अधिक पढ़ते हुए स्नातक या स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण की वे घर गृहस्थी और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में उलझकर रह गए। आधुनिक शिक्षा लेने वालों को उपरोक्त दोनों तबके हीन नज़र आए। सूट-बूट और हाथों में सिगार थामे ऐसे मुसलमानों ने नाम तो मुसलामानों सा रखा लेकिन अपने समाज के काम आने के नाम पर अपनी आलीशान कोठियों, पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण और पार्टियों में मस्त होकर रह गए। एक और तबक़ा मुस्लिम समाज में ख़ुद को सबसे अलग दिखाने का प्रयास करता नज़र आया वह भी नबी की सुन्नत के हवाले से कि वह तो तिजारत करेगा क्योंकि नबी-ए-करीम ने तिजारत को नौकरी पर प्राथमिकता की बात कही है।
लेकिन इनमें से क्या सच में किसी ने शिक्षा के मूल को समझने की कोशिश की? इस्लाम में शिक्षा के महत्व का अंदाज़ा लगाने के लिए इतना ही काफ़ी है कि पवित्र क़ुरआन की पहली आयत जब नाज़िल हुई थी तो उसकी शुरुआत ‘इक़रा’ शब्द से हुई। ‘इक़रा’ का मतलब ‘पढ़ो’। लेकिन मुसलमानों ने क़ुरआन को कितना पढ़ा है या कितनी तालीम ली है यह शोध का विषय है। क्या मुसलमानों की आस्था सच मे क़ुरआन पर उतनी है जितनी पुरी दुनिया को दिखाई देती है? मुसलमानों में प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से ही अपने धर्मग्रंथ क़ुरआन से होती है। क़ुरआन को समझकर पढ़ने के पहले 'क़ायदे' और 'अम्मा पारा' बचपन से ही मस्जिदों-मदरसों में पढ़ाया जाता है। क़ुरआन में वर्णित 'इक़रा' के मूलभाव की सही अक्कासी की इसे पहली सीढ़ी ज़रूर कह सकते हैं। आम मुसलमान के पास अन्य किताबों के अलावा क़ुरआन ज़रूर मिलेगी। आज क़ुरआन के लाखों हाफ़िज़ मिलेंगे जिन्हें पूरी क़ुरआन कंठस्थ है। ऐसे आलिम, फ़ाज़िल मिलेंगे जिन्हें दीन की समझ है। ऐसे मुफ़्तियान-ए-कराम मिलेंगे जो धर्म की सही व्याख्या करने में सक्षम हैं। लेकिन क्या वे महज़ एक 'कोर्स' की तरह पढ़ते-पढ़ाते नज़र नहीं आते? क्या वे इस्लाम और क़ुरआन की सही शिक्षा, आदर्श जीवनशैली और मानवीय मूल्यों का ज्ञान दे पाते हैं? किसी भी समाज को प्रगतिशील बनाने मे शिक्षा का अहम योगदान होता है। शिक्षा से ही इन्सान का आन्तरिक विकास होता है। अशिक्षित मनुष्य को पशु समान तक कहा जाता है। आज समस्त संसार में मुस्लिम समाज सबसे पिछड़ा माना जाता है। कारण है सही शिक्षा का आभाव।
पैग़ंबर मोहम्मद साहब अक्सर एक दुआ मांगा करते थे- और लोगों को यह दुआ मांगने की नसीहत किया करते थे- 'रब्बी ज़िदनी इल्मा' (अल-क़ुरआन- 20:114) यानि, 'ऐ मेरे रब, मेरे इल्म में इज़ाफ़ा कर' अर्थात 'हे ईश्वर, मेरे ज्ञान में वृद्धि कर।' उनका कहना था कि झूले से लेकर क़ब्र तक, इल्म की तलाश में अगर आपको अरब से चीन तक भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए। इस बात से ज्ञात होता है कि इस्लाम में शिक्षा का क्या महत्व है और शिक्षा हासिल करना कितना अहम और ज़रूरी है। शिक्षा केवल किताबी न हो बल्कि ज्ञान और इल्म से लबरेज़ हो। इस्लाम के अनुसार व्यक्ति ग़रीब हो या अमीर या किसी भी धर्म, जाति या वर्ग का क्यों न हो उसे शिक्षा हासिल करने का पूरा अधिकार है। मध्यकाल इस बात का गवाह है कि इस्लाम के अनुयायियों ने पूरी दुनिया में एक कोने दुसरे कोने तक अपना ज्ञान बांटा भी और सही तालीम को घर घर पहुँचाया भी। उस काल का साहित्य, कला, वास्तुकला, संगीत, विज्ञान इस नीति के तहत फले-फूले और दुनिया भर में बिना किसी भेदभाव के उन्हें स्वीकार किया गया।
एक बात तो तय है कि शिक्षा से दूर रहने से कोई भी समाज सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक इत्यादि प्रकार के विकास के साथ-साथ मानव विकास के मामले में भी पिछड़ जाता है। शिक्षा की कमी के कारण ही समाज में आजीविका की समस्या और उसके कारण उसका रहन-सहन प्रभावित होता है। अशिक्षा की वजह से ही वह बेरोज़गारी, रोज़गार में अनियमितता, निम्न आय, आर्थिक संसाधनों की कमी और आख़िर में ग़ुरबत जैसी समस्याओं से जूझता है।
2017 के अनुमानित जनसांख्यिकी आंकड़ों के मुताबिक़ भारत की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत लगभग 14.20 प्रतिशत है यानि लगभग 17.2 करोड़। जनसंख्या आंकड़ों में धार्मिक समूहों के आधार पर शिक्षा की स्थिति और साक्षरता के मामले में मुस्लिम पुरूष और महिलाएं अन्य धर्मों के लोगों से काफी पिछड़े हुए हैं। आंकड़ों के अनुसार, केवल 55 प्रतिशत मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं, जबकि 65 प्रतिशत गैर-मुस्लिम पुरूष साक्षर हैं। वही केवल 41 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं, जबकि 46 प्रतिशत गैर-मुस्लिम महिलाएं साक्षर हैं। नए आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम आबादी का केवल 11 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए पंजीकृत होता है। इसमें मुस्लिम महिलाओं की स्थिति तो बहुत ही गंभीर है और उनमें से केवल 6.7 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा के लिए अपना नाम दर्ज करवाती हैं।
देश में 70 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों का स्कूलों में नाम दर्ज करवाया जाता है जबकि 30 प्रतिशत बच्चे स्कूल के लिए नामांकन ही नहीं करवा पाते। सेकेंडरी तक जाते-जाते केवल 11 प्रतिशत रह जाते हैं। उसके बाद केवल 3.5 प्रतिशत ही स्नातक तक की शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। समस्या यह भी है कि बच्चों का नामांकन हो भी जाए तो वे शिक्षा पूरी किये बिना बीच में ही पढ़ाई छोड़कर बहुत ही कम उम्र में रोज़गार, स्वरोज़गार, मज़दूरी, कारीगरी या छोटी-मोटी नौकरी की ओर रुख़ करते हैं। मुस्लिम समाज की उच्च शिक्षा के प्रति उदासीनता और उनके पिछड़ने का असर ही है कि सरकारी नौकरियों, गुणवत्तापरक और योग्यता आधारित व्यावसायिक क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति नगण्य पाई जाती है। अपेक्षित और योग्य शिक्षा के आभाव में उन्हें नौकरियां नहीं मिलतीं। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की उपस्थिति उनकी कुल आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत है। जब मुस्लिम बच्चे किसी नौकरी के लिए न्यूननम आवश्यकता के स्तर तक भी नहीं पहुंच पाते हैं, तो अच्छी नौकरियां तो उन्हें मिलने से रहीं। जिस धर्म की बुनियाद में ही शिक्षा और ज्ञान के प्रसार की बात हो उसके अनुयायी अगर आज शिक्षा हासिल करने से वंचित हों तो यह निश्चित ही चिंता की बात है।
हालांकि पिछले दो दशक में मुस्लिम समाज में शिक्षा को लेकर काफ़ी बदलाव आए हैं। उनमें जागरूकता आई है और उनके साक्षरता प्रतिशत में वृद्धि भी हुई है। वक़्त की मांग भी यही है कि मुस्लिम समाज जागृत होकर आत्मावलोकन करे और समय की नज़ाकत को समझे। मुस्लिम समाज को आधुनिक शिक्षा हासिल करने के लिए पूरे उत्साह से आगे आना ही होगा। मुस्लिम धार्मिक शैक्षणिक संस्थानों में परंपरागत शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा का प्रबंध उसके लिए बेहद ज़रूरी हो गया है। मुस्लिम समाज को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि अच्छी एवं उच्च शिक्षा और बृहद ज्ञान के बिना तरक़्क़ी और विकास के बारे में सोचना बेमानी है। एक बात गाँठ बाँध लें, केवल शिक्षा ही मुसलमानों को जाहिल, गंवार, आक्रांता, घुसपैठिया, ज़ालिम और आतंकी जैसे विश्वभर में फैले प्रचलित अनेक विशेषणों से छुटकारा दिला सकती है। क़ुरआन में वर्णित 'इकरा' की सार्थकता भी तभी है।