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हर क़ौम के हैं इमाम हुसैन
Friday, October 16, 2015 - 10:31:17 AM - By मुनीर अहमद मोमिन

हर क़ौम के हैं इमाम हुसैन
रौज़ा-ए-इमाम हुसैन, कर्बला- इराक
इस्लामिक कैलंडर के हिसाब से नए साल 1437 हिज़री की शुरुआत हो चुकी है। मोहर्रम उसका पहला महीना है। आध्यात्मिक भारत के लिए इसका महत्व बहुत खास है। यहां मुंशी प्रेमचंद ने कर्बला का संग्राम जैसी प्रसिद्ध पुस्तक लिखकर इसके महत्व को आम हिंदी भाषी लोगों तक पहुंचाया, तो नामवर उर्दू शायर कुंवर मोहिंदर सिंह बेदी ने इसे नए तेवर और अकीदत के साथ पेश किया। अपनी एक रचना में वह लिखते हैं कि कर्बला के मैदान में शहीद होने वाले पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन महज किसी एक कौम की जागीर क्यों रहें? क्यों न उस कुर्बानी को आम बनाया जाए। जो इंसानियत के नाम दर्ज है। जिसमें छह महीने के बच्चे से लेकर बड़ों तक की बेमिसाल शहादत शामिल है। महात्मा गांधी ने अपनी अहिंसा की अवधारणा का जिक्र करते हुए लिखा है कि उन्हें इस तरफ प्रेरित करने वाली विभूतियों में इमाम हुसैन भी शामिल हैं। पूरी दुनिया में जब हिंसा अपने नए-नए चेहरे ले कर सामने आ रही है, तब कर्बला का संदेश और हजारों की फौज के सामने पैगंबर के नवासे के साथ शहीद होने वाले 72 लोगों की कुर्बानी आज और भी प्रासंगिक हो गई है।
लगभग 1400 साल पहले इराक में स्थित एक छोटी सी जगह कर्बला में हुए इस संग्राम में ऐसा क्या था। जो खासकर आध्यात्मिक भारत समेत पूरी दुनिया के लिए जानने का सबब बना हुआ है। उन दिनों अरब का विभाजन आज की तरह का नहीं हुआ करता था। पूरे अरब साम्राज्य पर मोआविया पुत्र यजीद नामक दुष्ट/आतातायी राजा का शासन था। पैगंबर के देहांत के बाद, जब इस्लाम में राजनीति की वास्तविक शुरुआत हुई तो जिस मकसद के लिए इस्लाम की स्थापना हुई थी, वह छिन्न-भिन्न होता नजर आया। पैगंबर ने जिन कुरीतियों के खिलाफ उस वक्त लोगों को जागरूक किया था, उन कुरीतियों को शासक वर्ग ने फिर से संरक्षण देना शुरू कर दिया। इसमें शराबखोरी, जुआखोरी, सगी बहन से विवाह और भ्रूण हत्या जैसी तमाम बुराइयां फिर से लौटने लगीं। पैगंबर के घराने ने इसका जबर्दस्त विरोध किया। तत्कालीन व्यवस्था में उन्हें आध्यात्मिक या रूहानी ताकत माना जाता था। उनके आह्वान पर जब चौतरफा विरोध शुरू हुआ, तो यजीद ने उन्हें समझौता करने और अपनी अधीनता स्वीकार करने को कहा।
इमाम हुसैन ने इसके विपरीत यह प्रस्ताव किया कि बेहतर है कि वे उसका देश छोड़कर भारत वर्ष के लिए कूच कर जाएं, जहां वे शांति से अपना जीवन बिताएंगे। इस प्रस्ताव के बाद वे अपने कुनबे के 72 लोगों को लेकर चल पड़े। लेकिन उनके इस फैसले ने यजीद की बेचैनी बढ़ा दी। उसने अपने एक गर्वनर को इमाम हुसैन का रास्ता रोकने और उनसे युद्ध करने का आदेश दिया। इमाम हुसैन ने फिर दोहराया कि वे युद्ध नहीं चाहते। लेकिन यजीदी फौज ने कर्बला के मैदान में उन पर चारों तरफ से घेरा डाल कर हमला बोल दिया। उन 72 निहत्थे लोगों को भूखे-प्यासे मजबूरन हजारों की फौज से लड़ना पड़ा।
उस जमाने में भारत की सीमाएं अफगानिस्तान तक फैली हुई थीं। यहां हर धर्म के मनीषियों का स्वागत होता था। उस समय भी यह देश अध्यात्म और ज्ञान का केंद्र माना जाता था। इन्हीं खूबियों की वजह से इमाम हुसैन इस देश में आना चाहते थे। इसी वजह से दलाई लामा ने भी यहां अपना केंद्र बनाया। आप यह जान कर दंग रह जाएंगे कि भारत , पाकिस्तान, इंग्लैंड, अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस से ले कर रूस और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों में, कहीं भी मोहर्रम के जुलूस पर पाबंदी नहीं रही है। लेकिन सऊदी अरब के तमाम हिस्सों में आज भी मोहर्रम के जुलूस पर पाबंदी है। कहने को अरब का शासक वर्ग खुद को लोकतांत्रिक देश कहता है। लेकिन वहां पर इमाम हुसैन के अनुयायी जुलूस नहीं निकाल सकते। भारत में मोहर्रम का जुलूस काफी पहले से बहुत बड़े पैमाने पर निकाला जाता है। इस देश को महज भारतीय संविधान या यहां के शासक वर्ग ने ही एक महान लोकतांत्रिक या आध्यात्मिक देश नहीं बनाया, सर्व धर्म समभाव हमेशा यहां के मिजाज में रहा है।