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..…हिंसा ही एकमात्र रास्ता नहीं है ! / सैयद सलमान
Friday, October 30, 2020 - 2:38:25 PM - By सैयद सलमान 

..…हिंसा ही एकमात्र रास्ता नहीं है ! / सैयद सलमान
मुस्लिम जगत फ्रांस में फैली हिंसा और मोहम्मद साहब के कार्टून बनाने वालों के प्रति सरकार के सहयोगात्मक रुख़ से ख़फ़ा है
साभार- दोपहर का सामना 30 10 2020

इन दिनों मुस्लिम जगत की नज़रें फ़्रांस पर टिकी हुई हैं। पिछले दिनों फ़्रांस में एक टीचर की नृशंस हत्या स्कूल के बाहर सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि उसने अपने विद्यार्थियों को पैग़ंबर मोहम्मद साहब के कार्टून दिखाए थे और उसपर चर्चा की थी। हालांकि बाद में वह हत्यारा भी पुलिस की गोली से मारा गया। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस मामले की निंदा करते हुए इसे 'इस्लामी आतंकवादी' हमला क़रार दिया। इस तरह इस्लामोफ़ोबिया का जिन्न फिर बाहर आ गया। पश्चिमी यूरोप में सबसे ज़्यादा पांच मिलियन के क़रीब फ़्रांस में मुस्लिम आबादी है और यहां मुस्लिम जनसंख्या दूसरे नंबर पर है जबकि फ़्रांस में मुस्लिम आबादी का हिस्सा ९ फ़ीसदी है जो यूरोप में सबसे ज़्यादा है। फ़्रांस में अक्सर मुस्लिम समाज का टकराव सरकार से होता रहा है। फ़्रांस की पत्रिका शार्ली एब्दो ने जनवरी २०१५ में जब पैग़ंबर मोहम्मद साहब का कार्टून छापा था तब काफ़ी हंगामा हुआ था। उस हिंसा में अख़बार के संपादक, कार्टूनिस्ट समेत १२ लोगों की मौत हो गई थी जबकि ११ लोग घायल हुए थे। पांच साल बाद शार्ली एब्दो ने उसी कार्टून को फिर से छापकर मामले को तूल दे दिया। उसी कार्टून को लेकर की गई चर्चा पर एक शिक्षक की हत्या कर दी गई। इस कार्टून के अलावा हिजाब को लेकर भी फ़्रांस और मुस्लिम समाज में टकराव होता रहा है। फ़्रांस में २०११ से खुलेआम बुर्क़ा पहनने पर रोक है। २००४ से सरकारी स्कूलों में धार्मिक चिन्हों पर भी प्रतिबंध है। इन्हीं सब और इन जैसे अनेक मुद्दों पर मुस्लिम समाज सरकार के खिलाफ़ सड़कों पर उतर आता है।

मुस्लिम जगत फ्रांस में फैली हिंसा और मोहम्मद साहब के कार्टून बनाने वालों के प्रति सरकार के सहयोगात्मक रुख़ से ख़फ़ा है। मुस्लिम और अरब जगत के नेताओं को लगता है कि कट्टवाद से मुक़ाबले के बहाने, फ़्रांस इस्लाम और मुसलमानों को निशाना बना रहा है और इस्लामोफ़ोबिया का प्रचार कर रहा है। उनका मानना है कि इस्लाम और मुसलमानों को बुरा भला कहने की मैक्रों की नीति एक तरफ़ फ़्रांस में सुरक्षा और शांति के लिए ख़तरा है तो दूसरी तरफ़ इससे मुसलमानों से नफ़रत करने वाले कट्टरपंथी नस्लभेदी गुटों को प्रोत्साहन मिलेगा। इसलिए, इस प्रकार के व्यवहार पर तुरंत अंकुश लगाए जाने की ज़रूरत है।

'अगर आज इस्लाम संकट में है' का रोना रोया जाता है तो उसका सब से बड़ा कारण बेशक़, इस्लामी जगत में पश्चिमी देशों का दख़ल है। क्या यह सवाल भी अपनी जगह पर क़ायम नहीं है कि इस्राईली आतंकवाद के पीछे कौन है? किसने इस्राईल को वह चीज़ें दी हैं जिनकी मदद से वह परमाणु हथियार बनाने में सफल हुआ? किसने इराक़ पर अवैध क़ब्ज़ा किया और उसके दसियों लाख नागरिकों की हत्या की? किसने सीरिया में कट्टरपंथियों को धन और हथियार दिये? किसने लीबिया को नाकाम देश बनाया और उसकी आधी आबादी को विस्थापित कर दिया? किसने इस देश की अरबों डालरों की लूट मार का रास्ता खोला? वह कौन सी ताक़तें हैं जो इस्लामी मुल्क पाकिस्तान में भी सक्रिय हैं? यूं तो धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा पर अख़बारों के हज़ारों पन्ने रंगे मिल जाएंगे जिसमें मुसलमानों का सम्मिलित होना साबित किया जाता है, लेकिन क्या ईशनिंदा या मोहम्मद साहब के अपमान से जुडी बातें इन सबका कारण हैं? क्या सच में इस्लाम इस बहाने हिंसा और आतंक फैलाने की अनुमति देता है?

मुस्लिम बुद्धिजीवी और धर्मगुरु इस बात से इनकार नहीं करेंगे कि, क़ुरआन की अनेकों आयतें ऐसी हैं, जो बताती हैं कि पैग़ंबरों के समकालीन विरोधियों ने ठीक वही काम किया था, जिसे आज ईशनिंदा कहा जा रहा है। सदियों से विभिन्न पैग़ंबरों और ईश्दूतों की आलोचना उनके समकालीन लोगों द्वारा की जाती रही है। उदाहरणत उन्हें मसख़रा कहा गया- "हाए अफ़सोस, बंदों के हाल पर कि कभी उनके पास कोई रसूल नहीं आया मगर उन लोगों ने उसके साथ मसख़रापन ज़रूर किया" (अल-क़ुरआन ३६:३०)। लोगों ने उन्हें झूठा और जादूगर कहा- "फ़िरऔन और हामान और क़ारून के पास भेजा तो वह लोग कहने लगे कि ये तो एक बड़ा झूठा और जादूगर है"- (अल-क़ुरआन ४०:२४)। उन्हें बुद्धिहीन कहा- "उसकी क़ौम के इनकार करनेवाले सरदारों ने कहा, वास्तव में, हम तो देखते है कि तुम बुद्धिहीनता में ग्रस्त हो और हम तो तुम्हें झूठा समझते हैं"- (अल-कुरआन ०७:६६)। उन्हें साज़िश रचने वाला तक क़रार दिया- "जब हम किसी आयत की जगह दूसरी आयत बदलकर लाते हैं और अल्लाह भली-भांति जानता है जो कुछ वह अवतरित करता है, तो वे कहते है, तुम स्वयं ही गढ़ लेते हो।"- (अल-क़ुरआन १६:१०१)। लेकिन, क़ुरआन में यह कहीं नहीं लिखा है कि जिन लोगों ने ऐसे शब्द कहे या कहते हैं उन्हें मारा-पीटा जाए या हिंसा की जाए। हां, क़ुरआन में यह ज़रूर कहा गया है कि, पैग़ंबर के विरोधियों के ख़िलाफ़ अपशब्दों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए।

जज़्बाती होना अलग बात है, लेकिन अपने जज़्बाती को धर्म का आवरण चढ़ाकर हिंसा, आतंक को जायज़ ठहराना बिलकुल अलग बात। क़ुरआन की आयतों और मोहम्मद साहब की जीवनी से पता चलता है कि पैग़ंबर की आलोचना करने या उन्हें अपशब्द कहने पर हिंसा ही एकमात्र रास्ता नहीं है। अपशब्द या आलोचना करने वाले व्यक्ति को शांतिपूर्ण तरीक़े से समझाया जा सकता है, उसे चेतावनी दी जा सकती है या क़ानूनी कार्रवाई की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति को सुतर्क के ज़रिए समझाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में सज़ा देने की बजाय उस व्यक्ति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। पैग़ंबर को अपशब्द कहने वाले व्यक्ति की हत्या कर देना तो बहुत दूर की बात है। उदाहरण स्वरुप मोहम्मद साहब के सगे चाचा अबू जहल और अबू लहब को लें, जिन्होंने जीवन भर हर तरह से मोहम्मद साहब का अपमान किया लेकिन बदले में कभी मोहम्म्मद साहब ने उन्हें शारीरिक नुक़सान नहीं पहुंचाया। बल्कि अंत तक उन्हें समझाने का प्रयास ही करते रहे। उस दौर में मोहम्मद साहब के सहाबा कराम में हज़रत अली, हज़रत उमर जैसे अनेक जांबाज़ योद्धा भी थे जो आसानी से अबू जहल और अबू लहब जैसों को सबक़ सिखा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजनैतिक, कूटनीतिक और भौगोलिक युद्ध अलग हैं और हिंसा, हत्या और आतंकवाद अलग। दोनों के बीच के फ़र्क़ को समझने की ज़रूरत है। कुवैत, क़तर, फ़िलिस्तीन, मिस्र, अल्जीरिया, जॉर्डन, सऊदी अरब, पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, ईरान, इराक़ और तुर्की समेत कई मुस्लिम देशों ने फ़्रांस के प्रोडक्ट के बहिष्कार का निर्णय लिया है। दबाव बनाने के लिए कूटनीतिक रूप से बायकॉट भी एक बार को स्वीकार्य है, लेकिन हिंसा कदापि नहीं। इस से कहीं ईमान कमज़ोर नहीं होता। इस्लाम में ईमान की ऊंचाइयां छूने के लिए मोहम्मद साहब के किरदार को आत्मसात करने की ज़रूरत है।

पवित्र क़ुरआन और इस्लामी परंपराओं के अनुसार मुस्लिम समाज को सभी एक लाख चौबीस हज़ार पैग़ंबरों में विश्वास होना चाहिए, जिन्होंने अल्लाह के संदेश को विश्व के विभिन्न भूभागों में पहुंचाया। उन्हें भी मोहम्मद साहब की तरह ही सम्मान देना चाहिए। मुस्लिम समाज को इन पैग़ंबरों, ईशदूतों, नबियों के मानने वालों के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। आज के युग में ईशनिंदा या पैग़ंबरों के अपमान की सूरत में क़ानून का सहारा लेना चाहिए। मुसलमानों को मोहम्मद साहब के आख़िरी ख़ुतबे को याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था, "पूरी मानव जाति आदम और हव्वा की संतान हैं। एक अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर कोई श्रेष्ठता नहीं है और किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई श्रेष्ठता नहीं है। न किसी गोरे को किसी काले पर कोई श्रेष्ठता है और न ही किसी काले को किसी गोरे पर कोई श्रेष्ठता है, सिवाय धर्मपरायणता और अच्छे कर्म के।" मोहम्मद साहब के इस उपदेश से साफ़ है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि एक मुसलमान को किसी ग़ैर-मुसलमान पर श्रेष्ठता है। उनके समीप श्रेष्ठता केवल धर्मपरायणता और अच्छे कर्म थे। याद रखें, कोई समुदाय किसी अन्य समुदाय के लिए नफ़रत रखे, उनके साथ हिंसा करे, उन्हें हेय समझे, उनके देवी-देवताओं, पैग़ंबरों को हेय समझे, उनका मज़ाक़ उड़ाए वो बहुसंस्कृति वाले और भूमंडलीकरण के इस युग में शायद ही शांतिपूर्वक रह सकता है। निस्संदेह यह बात सभी धर्म पर लागू होती है।


(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में विजिटिंग फ़ैकेल्टी हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)