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आतंकवाद का ख़ात्मा ज़रूरी / सैयद सलमान
Friday, September 11, 2020 - 1:48:29 AM - By सैयद सलमान

आतंकवाद का ख़ात्मा ज़रूरी / सैयद सलमान
असल इस्लाम तो बेक़सूरों का ख़ून बहाने वालों को सख़्त सज़ा देने का हिमायती है
साभार- दोपहर का सामना 11 09 2020

क़ुदरत के खेल बड़े निराले हैं। जो किसी ने कभी ख़्वाब-ओ-ख़्याल में नहीं सोचा होगा वो अमेरिका और अमेरिका से जुड़ी मुस्लिम राजनीति में हुआ है। अंतरराष्ट्रीय आतंक का पर्याय रहे ओसामा बिन लादेन से बेइंतहा नफ़रत करने वाले अमेरिका को आतंकवाद से दूर रखने के लिए ओसामा बिन लादेन की भतीजी का बयान पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन गया है। आतंकी ओसामा बिन लादेन की भतीजी नूर बिन लादिन का मानना है कि अमेरिका को अगले ९/११ से सिर्फ़ डोनाल्ड ट्रंप ही बचा सकते हैं। नूर ओसामा के सौतेले बड़े भाई यसलाम बिन लादिन की बेटी हैं। अपने चाचा के ख़राब कारनामों और लादेन नाम से नफ़रत को देखते हुए नूर ने अपना सरनेम लादेन से बदलकर लादिन कर लिया है। वह नहीं चाहतीं कि कोई उन्हें या उनके परिवार को लादेन के परिवार से जोड़े। ज्ञात हो कि इस्लाम के नाम पर जिहाद करने वाले ओसामा बिन लादेन की अगुवाई वाले आतंकी संगठन 'अलक़ायदा' ने ११ सितंबर २००१ को अमेरिका में ४ हमले किए थे। इन आतंकी हमलों में २,९७७ लोगों की मौत हो गई थी, जबकि २५ हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए थे। उस घटना के बाद से ही अमेरिका ने ओसामा के ख़िलाफ़ खोजी अभियान चलाया और आख़िरकार साल २०११ में उसे पाकिस्तान में मारकर अपने निरपराध नागरिकों की मौत का बदला ले लिया। जिस इस्लाम की ग़लत व्याख्या को ओसामा ने अपनाया उस इस्लाम को शायद इस्लाम की जन्मस्थली सऊदी अरब ने भी नकार दिया। ख़ुद सऊदी अरब ने भी ओसामा का शव लेने से इनकार कर दिया था जबकि ओसामा सऊदी नागरिक ही था। आज उसी ओसामा की भतीजी ने ओसामा की विचारधारा को ख़ारिज कर दिया है। इतना ही नहीं, इस से एक क़दम आगे बढ़कर उसने अमेरिका की आतंकवाद से हिफ़ाज़त को ज़्यादा अहमियत दी है।

ऐसा नहीं है कि ट्रंप ओसामा विरोधी हैं और उनके प्रतिद्वंद्वी बिडेन ने ओसामा का समर्थन किया हो। नूर मानती हैं कि पूर्व राष्ट्रपति बराम ओबामा के दौर में आतंकवाद ज़्यादा तेज़ी से फैला। कारण कुछ भी हो लेकिन ओसामा की भतीजी ने उसी का ख़ून होते हुए भी अमेरिका से अपने प्रेम का इज़हार किया है। नूर अमेरिका को दिलो-जान से चाहने का दावा करती हैं। जब अमेरिका में ९/११ हमला हुआ था, तब वे केवल १४ साल की थीं। उनके दिमाग़ में तभी से अपने चाचा के कारनामों से नफ़रत भर गई जो आज खुलकर सामने आ गई है। दरअसल अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव होना है और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। ट्रंप से पहले बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति थे। उनके कार्यकाल में उपराष्ट्रपति रहे जोसेफ बिडेन ट्रंप के सामने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं। ऐसे में आतंक रोकने के नाम पर ट्रंप के समर्थन में उतरकर नूर ने ओसामा विचारधारा के इस्लाम को नकार दिया है। नूर लेखिका हैं, बुद्धिजीवी हैं, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वह इस्लाम को बेहतर समझती होंगी। ट्रंप का समर्थन करना अलग मसला हो सकता है, लेकिन नूर का आतंकवाद के ख़ात्मे की बात करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

बात केवल नूर की नहीं बल्कि पूरे आलम-ए-इस्लाम की है। ओसामा या अन्य कट्टरपंथी मुस्लिम धर्मगुरुओं की व्याख्या से अलग सही इस्लाम ने समाजी इत्तेहाद को हमेशा सर्वोपरि बताया है। यहां तक कि पवित्र क़ुरआन के शब्दों में गिरोही या नस्लीय पूर्वाग्रहों को अल्लाह का अज़ाब कहा गया है। रोचक और विचित्र बात यह है कि मुस्लिम समाज संप्रदायों या व्यक्तिगत हितों के आधार पर या फ़िरक़े के आधार पर विभाजित है, जबकि ग़ैर-मुस्लिम दुनिया उन्हें सुन्नी, शिया, बरेलवी, अहले हदीस की नज़र से नहीं देखती, न ही यह लोग तुर्की, पाकिस्तानी, अरबी, ईरानी की नज़र से देखे जाते हैं। उन्हें सिर्फ़ मुसलमान समझा जाता है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज के किसी भी हिंसक गिरोह का ज़िम्मेदार हर मुसलमान को मान लिया जाता है, लेकिन दरहक़ीक़त मुसलमान ख़ुद एक उलझी हुई क़ौम बनकर रह गई है। उसे सही इस्लाम के जिस रास्ते पर चलना चाहिए उसे छोड़कर उसके युवा जिहाद की ग़लत की गई व्याख्या से जुड़े इस्लाम की तरफ़ जल्दी आकर्षित होते हैं। ऐसे युवा ग़रीबी, भटकी हुई शिक्षाप्रणाली और फ़िरक़ावाराना धर्मगुरुओं की किताबों के जाल में फंसकर अलक़ायदा, आईएसआईएस जैसे आतंकी संघटनों का मोहरा बनते हैं और उनके कर्मों का ख़ामियाज़ा आम मुसलमानों को भुगतना पड़ता है। ज़लील आम मुसलमान होते हैं। लेकिन सही इस्लाम की समझ रखने वाले अधिकांश युवा और बुद्धिजीवी मोहम्मद साहब की वफ़ात के सौ-दो सौ साल बाद रची-गढ़ी गई इस्लामी मान्यताओं और रीति-रिवाजों से आज़ादी चाहते हैं और उसके लिए मुखर भी हो रहे हैं। शायद इसी मर्म को ओसामा की भतीजी नूर ने पकड़ा है।

दूसरी बात यह है कि मुसलमानों के कर्मों को आधार मानकर और इस्लाम को लेकर फैली भ्रांतियां भी मुस्लिम समाज को लेकर पैदा होने वाले विवाद के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। मज़हबी गिरोहबंदियों और संप्रदायवाद को इस्लामी नज़रिये से देखना और इस्लाम से संप्रदायवादी पूर्वाग्रहों को साबित करने की कोशिश करना कभी भी इस्लाम का सही अर्थ नहीं कहा जा सकता। ऐसा करने के कई विपरीत परिणाम आंखों के सामने हैं। इस्लाम के जिहाद को ग़लत अर्थों में पेश कर इस्लामी मुल्कों की कल्पना करने वालों ने भी इस्लाम और मुसलमानों को कम नुक़सान नहीं पहुंचाया है। धर्म के आधार पर देश बनाने का मंसूबा और उसका नतीजा दोनों, पाकिस्तान को देखकर समझा जा सकता है। पाकिस्तान बनाने का मतलब था कि यह धर्म ही उनका समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति का आधार बन जाएगा। लेकिन व्यवहार में हुआ क्या? आधी सदी से भी अधिक समय के बाद भी आम पाकिस्तानी मुसलमान उस मंज़िल तक नहीं पहुँच पाए हैं, जिसकी देश को तलाश थी। रंगीन और हसीन सपने दिखाकर मुल्क बन तो जाता है लेकिन उसका हश्र पाकिस्तान सा होता है यह अब किसी से छुपा नहीं है। फिर भी पाकिस्तानी और विश्व भर में फैले कुछ आतंकवादी समर्थक इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं। आखिर अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के दो बड़े चेहरे दाऊद इब्राहिम और ओसामा को पाकिस्तान में शरण किस आधार पर मिली क्या इसका कोई तर्क है? क्या असल इस्लाम की शिक्षा प्राप्त कोई मुस्लिम देश ऐसा करता? असल इस्लाम तो बेक़सूरों का ख़ून बहाने वालों को सख़्त सज़ा देने का हिमायती है। इस आधार पर ओसामा और दाऊद किस श्रेणी में रखे जाएंगे यह शायद बताने की ज़रूरत भी नहीं है।

कहने को तो दुनिया का हर चौथा व्यक्ति मुसलमान है। दुनिया में लगभग डेढ़ अरब मुसलमान हैं। कई इस्लामी मुल्कों के पास अच्छा खनिज और कृषि संसाधन हैं। मुसलमानों की सबसे अच्छी भौगोलिक स्थिति यह है कि पूर्व से पश्चिम तक सभी मुस्लिम देश आपस में जुड़े हुए हैं। उनका केंद्र और धुरी इस्लामिक दुनिया के बीच में काबा शरीफ़ है। शिक्षित मुसलमानों के पास दुनिया को समझने की अच्छी मानसिक और बौद्धिक क्षमता भी है, लेकिन इन सब के बावजूद, मुस्लिम देश परेशानहाल हैं। चीन, अमेरिका और रूस जैसे देशों की गिरोहबाजी में उलझे हुए हैं। वजह यही है कि सबका अपना-अपना एजेंडा है। इसलिए जब भी पाकिस्तान या किसी मुस्लिम मुल्क से धर्म की अफ़ीम हवा में उछाली जाए, इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को बरगलाने की कोशिश की जाए, तो सबसे पहले उन्हें उनके प्रतिद्वंद्वी मुस्लिम मुमालिक से बेहतर संबंध क्यों नहीं हैं, क्या यह सवाल पूछा जाना चाहिए। ईरान-इराक़, सऊदी अरब-तुर्की, पाकिस्तान-बांग्लादेश की आपसी रंजिश का उदहारण सामने है। मुस्लिम समाज की समस्या है वह खुलकर मूल मुद्दों पर नहीं मुखर होता जबकि बेकार के मुद्दों पर सड़कों पर उतर आता है। उसे क़ानून तो सब पैग़ंबर मोहम्मद साहब के ज़माने के लागू करवाने होते हैं लेकिन चलना पश्चिमी देशों के नक़्श-ए-क़दम पर होता है। यही ऊहापोह और दोहरा मापदंड उसे दुनिया से अलग कर देता है। लेकिन निराश होने की ज़रूरत नहीं है। ३३ साल की युवती नूर ने मूल इस्लाम से अलग, मौलवियों द्वारा प्रचलित इस्लाम के प्रचारक ओसामा की मानसिकता को जिस तरह नकारा है, उसी तरह बुद्धिजीवी मुसलमानों की नई पीढ़ी भी उभरकर सामने आएगी और आ भी रही है। वह इस्लाम को लेकर फैली कई ग़लतफ़हमियों को दूर करेगी। वक़्त करवट ले रहा है। आतंकवाद के सरगना रहे किसी शख़्स का ख़ून अगर आतंकवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है तो यह केवल स्वागतयोग्य ही नहीं, बल्कि प्रशंसनीय भी है।