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सत्य का साथ ज़रूरी / सैयद सलमान
Friday, August 28, 2020 - 5:20:55 PM - By सैयद सलमान

सत्य का साथ ज़रूरी / सैयद सलमान
मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके परिजनों की क़ुर्बानी की याद में मनाया जाता है मुहर्रम
साभार- दोपहर का सामना 28 08 2020

मुस्लिम समाज का महत्वपूर्ण महीना मुहर्रम चल रहा है। अक्सर इस महीने की ख़ासियत को लेकर ग़ैर-मुस्लिम भाइयों में भ्रम बना रहता है। यह तब और भी बढ़ जाता है जब कुछ मुसलमान धड़ल्ले से नववर्ष की बधाई दे रहे होते हैं और कुछ ग़मगीन मैसेज के ज़रिए अपना दुःख प्रकट कर रहे होते हैं। इसलिए इस माह की, इस माह में मनाए जाने जाने वाले विशेष दिनों की जानकारी होने से कई बातों को लेकर बना भ्रम समाप्त हो सकता है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार नए साल की शुरुआत मुहर्रम के महीने से होती है, जिसकी गणना चांद के अनुसार होती है। इस्लामिक कैलेंडर को हिजरी कैलेंडर के नाम से जाना जाता है। इसी हिजरी कैलेंडर के अनुसार मुस्लिम समुदाय के लोग अपने सभी तीज-त्यौहार मनाते हैं। मुहर्रम के मौक़े पर मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा तबक़ा इमाम हुसैन की कर्बला के मैदान में हुई शहादत की याद में शोक मनाता है। शिया बंधु मजलिसों और मातमी जुलूसों के माध्यम से इमाम हुसैन और उनके साथ कर्बला के मैदान में शहीद होने वाले ७२ शहीदों को याद करते हैं।

मुहर्रम महीने को मुस्लिम समाज का एक वर्ग नववर्ष के रूप में भी मनाता है जिसकी ख़ूब आलोचना भी होती है। मुहर्रम को लेकर शिया बिरादरी ज़्यादा हिस्सास है। मुहर्रम के १० दिन शिया मजलिसों और सुन्नी ख़ेमों में त्याग, बलिदान और इंसानियत की बात होती है जिसे इमाम हुसैन की शहादत के रूप में याद करने की पुरानी परंपरा रही है। मुहर्रम को समझने के लिए इस्लाम के उस इतिहास का मुतालआ करना होगा जिसका तअल्लुक़ इमाम हुसैन की शहादत से है। इस्लाम का जिस मक्का-मदीना से उदय हुआ वहां से कुछ दूर मोहम्मद साहब की वफ़ात के बाद 'शाम' नामी मुल्क में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यज़ीद ने वहां की सल्तनत संभाली। यज़ीद चाहता था कि उसकी बादशाहत की पुष्टि बैत लेकर इमाम हुसैन भी करें। चूंकि यज़ीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई क़ीमत नहीं थी इसलिए उस जैसे शख़्स को इस्लामी शासक मानने से पैग़ंबर मोहम्मद साहब के घराने ने साफ़ इनकार कर दिया। इमाम हुसैन जानते थे कि यज़ीद इस बात का बदला लेने के लिए कुछ भी कर गुज़रेगा, इसलिए उसकी बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फ़ैसला लिया कि अब वह अपने नाना मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि किसी तरह का विवाद न हो और वहां अमन क़ायम रहे।

इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और अपने कुछ समर्थकों के साथ इराक़ की तरफ निकल पड़े। लेकिन करबला के पास यज़ीद की फ़ौज ने उनके काफ़िले को घेर लिया। यज़ीद ने उनके सामने फिर अपने आप को बादशाह मान लेने के साथ अन्य कई बेजा शर्तें रखीं, जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ़ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के बदले में यज़ीद ने जंग करने की बात रखी। इस दौरान इमाम हुसैन इराक़ के रास्ते में ही अपने काफ़िले के साथ फ़ुरात नदी के किनारे तंबू लगाकर ठहर गए। लेकिन यज़ीदी फ़ौज ने न सिर्फ़ उनके तंबुओं को हटाने का आदेश दिया बल्कि इमाम हुसैन के काफ़िले को नदी से पानी लेने की इजाज़त तक नहीं दी। अगर आज का मुसलमान होता तो नए दौर के कथित रहनुमाओं की मज़हबी धर्मांधता को मानते हुए फ़ौरन जंग छेड़ देता। लेकिन इमाम हुसैन का जंग का इरादा बिल्कुल नहीं था। वह शांति से इराक़ चले जाना चाहते थे। आज का मुसलमान सिर्फ़ गढ़ी-गढ़ाई, सुनी-सुनाई बातों पर यक़ीन कर हिंसा पर उतारू हो जाता है और उसे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं होती कि उनकी वजह से अन्य मुसलमानों पर क्या बीतेगी, लेकिन मोहम्मद साहब के नवासे को काफ़िले में शामिल ७२ लोगों की जान की परवाह थी। इस काफ़िले में उनका छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। वह मौसम गर्मी का और महीना मुहर्रम का था। आज तो गर्मी से राहत पाने के अनेक संसाधन मौजूद हैं लेकिन ग़ौर करने की बात है कि उस वक़्त सहरा और शदीद गर्मी में तंबुओं में पनाह लिए हुए इमाम हुसैन के काफ़िले की क्या स्थिति रही होगी।

उसी मुहर्रम की सात तारीख़ तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और ख़ासकर पानी था वह ख़त्म हो चुका था। इसके बावजूद इमाम हुसैन असली इस्लाम की सीख का पालन करते हुए और सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। ७ से १० मुहर्रम तक इमाम हुसैन, उनका परिवार और उनके अन्य साथी भूखे प्यासे रहे। लेकिन यज़ीद की फ़ौज का दिल नहीं पसीजा। १० मुहर्रम तक जब यज़ीद की तरफ़ से जबरदस्ती थोपी गई जंग में इमाम हुसैन के सारे साथी शहीद हो गए तब असर की नमाज़ के बाद इमाम हुसैन ख़ुद जंग में गए और आख़िर में सत्य की लड़ाई लड़ते उन्हें भी शहीद कर दिया गया। इस जंग में पुरुषों में सिर्फ़ इमाम हुसैन के एक बेटे ज़ैनुल आबेदीन ही जीवित बचे, क्योंकि वह बीमार थे। बाद में उन्हीं से मोहम्मद साहब की पीढ़ी चली। इमाम हुसैन और उनके पुरुष साथियों व परिजनों को क़त्ल करने के बाद यज़ीद ने इमाम हुसैन के परिवार की औरतों को गिरफ़्तार करने का हुक्म दिया। यज़ीद ने शहीद हुए इमाम हुसैन के परिवार की जीवित महिलाओं पर बेइंतेहा ज़ुल्म किए। उन्हें क़ैदख़ाने में रखा। इमाम हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की क़ैदख़ाने में ही मौत हुई।

मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके परिजनों की इसी क़ुर्बानी की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। कर्बला का यह वाक़या इस्लाम में अम्न-ओ-अमान की हिफ़ाज़त के लिए हज़रत मोहम्मद के घराने की तरफ़ से दी गई वह अज़ीम क़ुर्बानी है जिसमें जान देकर भी ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने का जज़्बा और सत्य के मार्ग पर चलने की सीख है। इस वाक़ये को १४०० से ज़्यादा साल बीत चुके हैं। इस्लाम की असल सीख वही थी जिसका पालन इमाम हुसैन ने किया, जबकि यज़ीद ने इस्लाम की सीख के ख़िलाफ़ जाकर ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती का मार्ग चुना। इराक़ स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की ज़िंदा मिसाल है। इस्लाम का मूल है सिर्फ़ एक ही ख़ुदा की इबादत करना। इस्लाम में छल-कपट, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब, जैसी चीज़ें हराम बताई गई हैं। मोहम्मद साहब ने इन्हीं निर्देशों का पालन किया, इसी को आम जीवन का हिस्सा बनाने के लिए अपने आल-औलाद और सहाबा को प्रेरित किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत सभी इंसानों को भी दी। उनके अनुयायी मुसलमानों से इस बात की अधिक अपेक्षा होती है कि वे मोहम्मद साहब की बातों पर अमल करें जिस तरह इमाम हुसैन ने किया।

मुहर्रम के इस वाक़ये की वजह से ही नए साल की बधाई देने और जश्न मनाने से मुस्लिम उलेमा मना करते हैं, साथ ही हदीसों के हवाले से इस महीने में रोज़ा रखने और सदक़ा-ख़ैरात करने की ख़ास अहमियत बयान करते हैं। क्या नये साल का जश्न मनाने के बजाय इस्लामी नए साल के शुरूआती दिन बेबसों, बेवाओं, बेसहारों, ज़रूरतमंदों और यतीमों की दिल से सहायता करना ज़्यादा उचित नहीं होगा? और अगर ख़ामोशी से सहायता करते हुए, बिना किसी प्रचार का ढोल पीटे ऐसा किया जाए तो और भी उत्तम होगा। इस दौरान बीमारों, बूढ़ों और अपंगों-अपाहिजों, दिव्यांगों और निःशक्तों की मदद करना, बुज़ुर्गों का सम्मान करना, अपने कर्तव्य को पूरी मुस्तैदी और ईमानदारी से निभाना भी इबादत का हिस्सा ही माना जाएगा। दुनिया मे अपने बच्चों का नाम इमाम हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबों मुसलमान हैं, लेकिन क्या उन्होंने इमाम हुसैन के शांति और शहादत के मार्ग को अपनाया है? इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि ज़ालिम की एक वक़्त के बाद अहमियत ख़त्म हो जाती है और सत्य का साथ देने वाले इंसानी दिलों में अपना लाफ़ानी मक़ाम छोड़ जाते हैं। रावण, कंस, फ़िरऔन और यज़ीद जैसों को ज़ुल्म के प्रतीक के तौर पर ही याद किया जाता है, जबकि श्रीराम, श्रीकृष्ण, हज़रत मूसा और इमाम हुसैन का क्या मक़ाम है, क्या यह किसी को बताने की भी ज़रूरत है? हथियारों से जंग जीती जा सकती है पर दिल नहीं। दिल तो किरदार से जीते जाते हैं।