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कट्टरता नहीं, विनम्रता है इस्लाम ! - जिहाद, शरीयत और काफ़िर की ग़लत अभिव्यक्तियों ने बढ़ाई दूरियां
Friday, June 12, 2020 - 10:56:44 AM - By सैयद सलमान

कट्टरता नहीं, विनम्रता है इस्लाम ! - जिहाद, शरीयत और काफ़िर की ग़लत अभिव्यक्तियों ने बढ़ाई दूरियां
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना  12 06 2020 

बदलाव प्रकृति का नियम है और जो इस बदलाव को स्वीकार नहीं करता वह या तो पीछे छूट जाता है या फिर ख़त्म हो जाता है। लेकिन इस मामले में अक्सर मुसलमानों का नज़रिया मेल नहीं खाता। शिक्षा को सबसे अधिक महत्व देने वाले इस्लाम को कट्टरपंथी मुसलमानों ने १४०० वर्ष पुराने ढर्रे पर ही रखने का प्रयास किया। दरअसल इस्लाम को एक धर्म के रूप में जाना तो जाता है लेकिन इस्लाम के मूल स्रोत पवित्र क़ुरआन में इस्लाम को धर्म, मज़हब या रिलीजन नहीं कहा गया है। इस्लाम का शाब्दिक अर्थ होता है ख़ुद को अल्लाह के आगे समर्पित करना। इस तरह इस्लाम एक ऐसी जीवन प्रणाली है जिसमें अल्लाह को सर्वोपरि मान कर उसकी इच्छा और निर्देश के अनुसार जीवन को संयोजित किया जाता है। इस्लाम ख़ुद को एक दीन अथवा जीवन प्रणाली कहता है। दरअसल धर्म के अनेक पैमाने हैं। धर्म अपने सीमित अर्थों में ईश्वर के प्रति आस्था, अनुष्ठान, धार्मिक पद्धति और रीति को कहा जाता है। जीवन प्रणाली में बेशक सबसे पहले ईश्वर के प्रति आस्था और धार्मिक कर्मकांड आते हैं लेकिन जीवन प्रणाली केवल आस्था या कुछ कर्मकांडों तक सीमित नहीं होती, बल्कि जीवन के सिद्धांत और मूल मंत्र से शूरू हो कर पूरे जीवन चक्र और उसके नियमों को अपने दायरे में लेती है। इस्लाम के दीन होने का अर्थ है इस्लाम में ईश्वर के प्रति जो आस्था है उसके अनुसार पूरे जीवन का एक सिद्धांत के अनुसार जीवन के हर मामले के लिए एक नियमावली का होना जिसे शरीयत कहते हैं। इस नियमावली के अनुसार अल्लाह की उपासना करना और जीवन की गतिविधियों को नियोजित करने का नाम इस्लाम है। अगर मुसलमान केवल आस्था को अपनाए रहें और उसके अनुसार केवल कुछ इबादत की रस्में तथा धार्मिक या सांस्कृतिक कर्मकांड करते रहें, लेकिन शरीयत से मुक्त हो जाएं तो वे अधूरे मुसलमान होंगे। इस्लाम को अपनी जीवन प्रणाली अर्थात दीन बनाने की उनकी इच्छा और ज़िम्मेदारी पूरी नहीं होगी।

लेकिन पैग़ंबर मोहम्मद साहब और उनके बाद ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन द्वारा सींचे गए इस्लाम को धीरे-धीरे अलग-अलग विचारों के इस्लामी धर्मगुरुओं और शासकों ने अपने तरीक़े से पेश करना शुरू कर दिया। इस्लाम के मानने वालों ने इस्लाम की अलग-अलग व्याख्या तैयार कर ली जिसका असर यह हुआ है कि एक अल्लाह, एक क़ुरआन, एक नबी को मानने वाला मुसलमान अनेक फ़िरक़ों में बंटता चला गया। दुनिया में मुसलमानों का फैलाव दो तरह से हुआ है। एक तो विभिन्न क़ौमों और लोगों के द्वारा इस्लाम स्वीकार किए जाने से और दूसरे वंशगत रूप से, यानि किसी मुस्लिम परिवार में जन्म लेने से। पहली बार पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने जब अरब में इस्लाम का पैग़ाम लोगों को दिया तो वहां कोई मुस्लिम समुदाय मौजूद नहीं था, बल्कि जिन लोगों ने इस्लाम को मान लिया वे मुसलमान कहलाए। उसके बाद इस्लाम का जो फैलाव हुआ वह लोगों के द्वारा इस्लाम को अपना लेने से ही हुआ। इस तरह विभिन्न देश, वंश, काल के हिसाब से इस्लाम को मानने का अलग-अलग रूप सामने आता रहा। रोचक यह कि हर तबक़ा ख़ुद को सही और दूसरों को ग़लत ठहराने की प्रक्रिया में लगा रहा। आज भी यह परंपरा क़ायम है।

जिस शरीयत की आज दुहाई मुस्लिम समाज देता है, क्या कभी उसकी तह में जाने का मुस्लिम समाज ने कोई प्रयास किया है? लगता तो नहीं है ऐसा किया गया होगा। क्या मुस्लिम समाज जानता है कि शरीयत या शरीयत क़ानून होता क्या है? ट्रिपल तलाक़, जिहाद, काफ़िर जैसे गिने चुने मसलों के लिए शरीयत की दुहाई देने वाले मुसलमानों को इसका गहराई से अध्ययन करना चाहिए। इस्लामी मुल्कों में शरीयत क़ानून ही लागू होता है। लेकिन देखा यह जाता है कि हर इस्लामी मुल्क अपने हिसाब से शरीयत की व्याख्या करता है। शरीयत क़ानून में ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों के अधिकारों की पूरी ज़मानत मौजूद है और उनको पूरी सुरक्षा देने का प्रावधान है। मोहम्मद साहब ने अपने ज़माने के पहले इस्लामी राज्य में ग़ैर-मुस्लिम समुदाय के आम लोगों के साथ जिस दयाशीलता, सहिष्णुता और सदव्यवहार की मिसालें छोड़ी हैं उसका कोई सानी नहीं है। शरीयत क़ानून में सबसे पहली चीज़ अपने अक़ीदे, आस्था या धर्म को मानने की पूरी आज़ादी है। मोहम्मद साहब ने कभी भी अक़ीदा, धर्म और आस्था बदलने के लिए किसी पर दबाव नहीं बनाया। उनके पास आने-जाने वाले, उनके आस-पास रहने वाले और उनके साथ लेन-देन के मामले करने वाले बहुत से लोग ऐसे थे जो आप को पैग़ंबर या अल्लाह का रसूल नहीं मानते थे। वे लोग अपनी पिछली आस्थाओं पर क़ायम थे लेकिन मोहम्मद साहब ने उनके साथ न तो संबंध तोड़े, न उनका सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार किया और न उनसे व्यापार या लेन-देन करने से मुसलमानों को रोका। 

हां, यह भी सत्य है कि मोहम्मद साहब के दौर में भी जंगें हुई हैं लेकिन उसके भी अपने कारण थे। इस्लामी समाज और राज्य को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश करने वालों, साज़िशें करने वालों और खुले या छिपे जंग करने वालों से मोहम्मद साहब ने मुक़ाबला किया है। लेकिन मोहम्मद साहब ने उन पर नियंत्रण पाने के लिए जितना आवश्यक होता था उतना ही बल प्रयोग किया और किसी पर ज़ुल्म होने नहीं दिया। उन्हीं पैग़ंबर साहब की सुन्नतों और शरीयत कानून में ग़ैर-मुस्लिमों के नागरिक अधिकार, मुसलमानों के नागरिक अधिकारों के बराबर हैं, उनसे कम नहीं है। ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों के जीवन की आवश्यकताएं पूरी करना शरीयत क़ानून लागू करने वाली सरकार के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना मुस्लिम नागरिकों की आवश्यकताओं को पूरा करना। क्या आज मोहम्मद साहब की उस सीख का कोई पालन करना चाहता है? आज तो जिहाद के नाम पर ग़ैर-मुस्लिम तो छोड़िए मुसलमानों का भी क़त्ल-ए-आम करने से जिहादी पीछे नहीं हटते। मस्जिदों में घुसकर नमाज़ियों का क़त्ल करना किस जिहाद में आता है यह तो इन जिहादियों के आक़ा ही बता सकते हैं। जिहाद के नाम पर मुस्लिम-ग़ैर-मुस्लिम का भेद किए बिना मासूमों का क़त्ल करने वाले क्या मुसलमान कहलाने के भी हक़दार हो सकते हैं? क्या वे उसी नबी के उम्मती हैं जिसने सभी को एक जैसा इंसान माना?

शरीयत क़ानून को अपने मुल्क में लागू करना इस्लामी मुल्कों के लिए ज़रूरी हो सकता है, लेकिन ग़ैर-मुस्लिम देशों में इस्लामी शरीयत लागू करना या लागू करवाना किसी भी मुस्लिम देश या इस्लामी सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है। ऐसे में ख़ुद को जिहाद में शामिल बताने वाले जिहादी आख़िर किस बुनियाद पर दूसरे मुल्कों में जाकर रक्तपात करते हैं? आईएसआईएस, हिज्बुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे इस्लाम नामधारी आतंकी संगठन कैसे बेक़सूरों का ख़ून बहाकर इस्लाम की नुमाइंदगी कर सकते हैं? असल इस्लाम तो शांति की बात करता है लेकिन मुसलमानों ने इसे हिंसक रूप दे दिया है। 'दार-उल-इस्लाम' और 'दार-उल-हरब' के खेल में मुसलमानों को उलझाकर रखने की कोशिश हमारे देश में भी चलती रही है। हालांकि पवित्र क़ुरआन में इस प्रकार की कोई संकल्पना मौजूद नहीं है। आरंभिक कट्टरपंथी इस्लामी न्यायविदों ने विश्व को दार-उल-इस्लाम और दार-उल-हरब जैसे रूप में बांटा है। इस कोरी स्वयंभू संकल्पना के अनुसार 'इस्लाम का घर' यानि दार-उल-इस्लाम ऐसे तमाम मुस्लिम बहुल इलाक़ों को कहा जाता है जहां इस्लाम का शासन चलता है। सभी इस्लामिक देश इस परिभाषा के तहत आते हैं। 'युद्ध भूमि' यानि दार-उल-हरब ऐसे देश अथवा ऐसे स्थान को कहा जाता है जहां शरीयत क़ानून नहीं चलता। जहां अन्य आस्थाओं वाले अथवा अल्लाह को नहीं मानने वाले लोगों का बहुमत हो। सरल भाषा में कहें तो ग़ैर-इस्लामिक देश। 

लेकिन भारत के मुसलमानों ने इस संकल्पना को अस्वीकार किया है। दार-उल-उलूम देवबंद का ऐतिहासिक फ़तवा है कि ‘भारत को दार-उल-इस्लाम या दार-उल-हरब बताने की बात ग़लत है, बल्कि भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा मुस्लिमों वाला वतन है और यह सच्चे मायने में दार-उल-अमन है। यानि यह मुल्क इस्लाम का दोस्त है, यहां जिहाद की बात बेमानी है और मुजाहिदीन बनने की बात ग़ैर-इस्लामिक।’ फ़तवे के मुताबिक़ भारत में मुसलमान अमन के साथ रह सकते हैं। इस्लाम को भारत में कोई दिक्कत नहीं है। एक फ़तवे में यह भी साफ़ किया गया है कि हिंदू काफ़िर नहीं हैं, क्योंकि उनमें दुनिया बनाने वाले के प्रति आस्था है। फ़तवे में मुसलमानों के लिए हिंदुओं को अपना भाई-बहन मानने की सीख है। फ़तवे में इस्लामी सहिष्णुता की झलक है जिसे देखने की पहले कट्टर मुसलमानों को ज़रूरत है। कुल मिलाकर इस्लाम को किसी और ने नहीं मुसलमानों ने ज़्यादा नुक़सान पहुंचाया है। ज़रूरत है हिंदू-मुसलमानों के बीच जमी उस गांठ को ढीला करने की कोशिशें तेज़ करने की, जो हिंदू-मुसलमान होने की वजह से उनमें अलग होने का एहसास भरती रही हैं। मुसलमान सिर्फ़ इतना भी कर ले तो काफ़ी होगा कि वह अपने दीन की बातों का गहराई से अध्ययन कर ले। सब कुछ आईने की तरह साफ़ नज़र आएगा और उसे किसी पसोपेश में मुब्तिला होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।