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भावनाओं में मत बहो......! / सैयद सलमान
Friday, June 5, 2020 - 10:37:09 AM - By सैयद सलमान

भावनाओं में मत बहो......! / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 05 06 2020

यह दौर बहस-मुबाहिसों का है। सामन्य से सामान्य घटना पर बहसबाज़ी करना लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। टीवी समाचारों में तो बहसबाज़ी के नाम पर पूरा शो ही आयोजित होता है। यह इंसानी फ़ितरत है कि उसे तर्क या बहस करने में मज़ा आता है। लेकिन कुतर्कियों का क्या किया जाए? दुर्भाग्य से कुतर्कियों ने ही बहस-मुबाहिसों में पूरी जान डाल रखी है। कोई मुद्दा हो और तमाम लोग किसी एक बात पर मुत्तफ़िक़ हो जाएं तो शो नीरस हो जाता है और ऐसी स्थिति में एंकर ख़ुद बहस को बढ़ावा देने के लिए नया शगूफ़ा छोड़कर बहस को नई ऊंचाइयां देना चाहता है। सोशल मीडिया के सारे प्लेटफ़ॉर्म कुतर्कियों की बहस से भरे पड़े हैं। लेकिन वही बहस अगर मज़हबी हो तो उसमें भावनात्मक मुद्दों को उठाकर विवाद बढ़ाया जाता है ताकि खेल होता रहे, टीआरपी बढ़ती रहे, लाइक्स-शेयर का दौर चले, ट्रोलिंग हो, लोकप्रियता का ढिंढोरा पीटा जाए और चर्चा में रहा जा सके। अगर चर्चा तार्किक हो तो ठीक, लेकिन अतार्किक चर्चा से दूर रहने और उसे बढ़ावा न देने में ही समझदारी है, लेकिन इतनी सी बात लोगों की समझ से बाहर है।

भावनाओं पर किसी के तर्क को आधार बनाकर उस पर बहस करना अब असामान्य बात नहीं रही। यह आदत जीवन के हर क्षेत्र में मिलेगी। लेकिन धार्मिक मामलों में यह अधिक सामान्य रूप से पाई जाती है। बड़ी से बड़ी तार्किक बात को भावनात्मक मुद्दों में उड़ाने की यहां प्रथा है। भावनात्मक तर्क की ख़ासियत यह है कि इसमें तार्किक सत्य की नहीं बल्कि भावनात्मक मुद्दे की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए कोरोना काल के शुरूआती दौर की बात करें। जब कोरोना वायरस का प्रकोप शुरू हुआ और सामाजिक दूरी पर ज़ोर दिया गया, तब मस्जिदों में सामूहिक प्रार्थना यानि नमाज़ बा-जमाअत से बचने की बात हुई। उद्देश्य साफ़ था कि कोरोना से संक्रमित व्यक्ति मस्जिद में आए कई लोगों को संक्रमित कर सकता है, इसलिए जमाअत से नमाज़ पढ़ने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए ताकि वायरस फैल न सके। तब अतार्किक, भावनात्मक और रूढ़ीवादी समूह की तरफ़ से यह तर्क दिया गया कि 'यह मस्जिदों से भागने का समय नहीं है, बल्कि मस्जिदों की ओर भागने का समय है।' यहां तक कहा गया कि 'अगर मौत को आना ही है, तो मस्जिद में आने से बड़ा और क्या हो सकता है?' अब जब सीधे-सादे सामाजिक मुद्दे में धार्मिक भावनाओं का रस घोल दिया गया तो पूरा कथानक और परिदृश्य बदल गया। मुस्लिम समाज का वह तबक़ा भी इस भावनात्मक बहस में शामिल हो गया जो पढ़ा लिखा तो है, लेकिन धर्म के मामले में कुछ ज़्यादा ही कट्टर है।

दुनिया के अधिकांश देशों में सामूहिक प्रार्थना को एक ही सिद्धांत पर रोक दिया गया था कि कोरोना संक्रमण फैलाने वाला वायरस है और इसके लिए हुजूम का इकठ्ठा होना इस बीमारी के फैलने में मददगार होगा। लेकिन इस सरल तर्क के बजाय, कुछ धार्मिक मंडलियों ने भावनात्मकता को तरजीह दी। अक्सर भावनात्मक मुद्दों के पक्षधर मुसलमानों के कुछ तर्क बड़े अजीब-ओ-ग़रीब होते हैं। ईरान में कुछ बुज़ुर्गों की मज़ारों पर ज़ायरीन का जमावड़ा लगता है। जब कोरोना महामारी फैल रही थी तब दरगाहों और मज़ारों को बंद करने की सलाह दी गई। इस पर, एक धर्मस्थल के ट्रस्टी और वरिष्ठ धर्मगुरु ने कहा कि ये मज़ार तो रूहानी शिफ़ाख़ाने अर्थात आध्यात्मिक अस्पताल के समान हैं, इसलिए हम लोगों से अपील करेंगे कि वे बड़ी संख्या में यहां आएं और इस महामारी से ठीक होकर जाएं।

आख़िर ऐसे भावनात्मक तर्कों का जवाब क्या है? यह तर्क है या कुतर्क इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। भले ही यहां एक तार्किक जवाब आपके पास है, लेकिन आप असहाय हैं क्योंकि सामने वाला व्यक्ति या समूह अपने मामले की इमारत अपनी अक़्ल की बजाय अपने दिल पर खड़ी कर रहा है। जवाब उसके सामने है, लेकिन उसे नहीं मानना है क्योंकि उसने अपने मुद्दे को भावनात्मक धार्मिक लबादा पहना दिया है जहां तर्कों की अहमियत नहीं रह जाती। एक बात निश्चित है कि वही बहस फलदायी होगी जिसमें तार्किक दलील दोनों पक्षों द्वारा दी जाती है। किसी भी मामले में भावनात्मक तर्क अगर शामिल हो गया तो किसी भी तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचना संभव नहीं है। फिर चाहे भावनात्मक तर्क एक पक्ष से आए या दूसरे से। बेशक यह संभव है कि किसी को ज़बरदस्ती बात मानने पर मजबूर किया जाए या कुतर्की शब्दों से बात को काटकर चुप कराया जाए लेकिन तार्किक बातें रखने वाले दिल से उस बात को स्वीकार नहीं करेंगे। हालांकि कुतर्कियों की बातें ख़ारिज भी होती हैं। मस्जिद की तरफ़ भागने वाले भावनात्मक मामले में भी यही हुआ। मस्जिदों की तरफ़ भागने की भावनात्मक बात करने वालों पर तार्किक बात कहने वाले भारी पड़े और उन्होंने क़ुरआन और हदीस की रोशनी में यह साबित किया कि घर पर नमाज़ पढ़ना और इबादत करना महामारी काल में अफ़ज़ल है।

भावनात्मक मुद्दों को खुद पर हावी न होने देने की मिसाल पैग़ंबर मोहम्मद साहब की जीवनी के अनेक प्रसंगों से मिलती है। पैग़ंबर मोहम्मद साहब और उनके साथियों के साथ जब मक्का में स्थिति बहुत प्रतिकूल हो गई और विरोधियों की धृष्टता बढ़ गई तब उन्होंने हिजरत करने का फैसला किया और अपने साथियों के साथ मदीना चले गए। हालांकि काबा मक्का में स्थित है, जो दुनिया भर की मस्जिदों का क़िबला है। अब इसे आज के तर्क-कुतर्क के परिप्रेक्ष्य में देखें तो बात को समझना आसान हो जाएगा। अगर यहां भावनात्मक तर्क दिया जाए, तो मदीना की तीर्थयात्रा बैतुल्लाह शहर से प्रस्थान है और पैग़ंबर साहब को ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन इस्लाम के पैग़ंबर की हिजरत ने इस उसूल को क़ायम किया कि जब स्थिति गंभीर हो जाए तो सुरक्षा के साधनों को अपनाया जाए न कि ज़िद करते हुए लोगों की जान-ओ-माल को ख़तरे में डाला जाए। मोहम्मद साहब ने भावनाओं पर तर्क को तरजीह दी और मक्का की अवाम को युद्ध जैसी स्थिति से बचा लिया।

यदि परिस्थितियों के अनुसार इबादत के हुक्म में बदलाव को समझने की बात है तो सुलह हुदैबिया के शांति प्रस्ताव का उदाहरण लें। उस समय, पैग़ंबर मोहम्मद साहब और उनके साथी इस गौरवपूर्ण स्थिति में थे कि मक्का में अपने विरोधियों के विरोध में जाकर हज कर सकते थे, लेकिन इस अवसर पर सुलह का रास्ता अपनाया गया, जिसमें यह शर्त भी शामिल थी कि मुसलमान इस साल हज किए बिना लौट जाएं। और मोहम्मद साहब ने ऐसा ही किया। अगर भावनात्मक मुद्दे अहमियत रखते तो ख़ुद पैग़ंबर मोहम्मद साहब क्या मज़बूत स्थिति में होते हुए भी ऐसा फैसला करते? लेकिन यहां भी उन्होंने मसलहत से काम लिया और संभावित ख़ूनी जंग से अपने साथियों और मक्का को बचा लिया। क्या कुतर्क करने वाले मुसलमानों को इस बात से कोई सीख नहीं लेनी चाहिए? एक तरफ़ नबी की हदीसों का हवाला है जिसमें भावनात्मकता से ऊपर जान-माल की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात है तो दूसरी तरफ़ वर्तमान धर्मगुरुओं की अतार्किक भावनात्मक दलीलें हैं जिनसे जिहालत टपकती है।

भावनात्मक तर्क की ख़ूबी ही यह होती है कि इसे अपनी इच्छा और सुविधानुसार कहीं भी फ़िट किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अगर धार्मिकस्थलों के खुले रखने के दौरान कोरोना ज़्यादा नहीं फैलता, तो भावनात्मक तर्क यह दिया जा सकता है कि हम पहले से ही कह रहे थे कि धार्मिक स्थलों में आने का समय है। 'मस्जिदों से भागने' के बजाय, 'मस्जिदों की तरफ़' भागने को इसीलिए कहा गया था। लेकिन अगर धर्मस्थलों को खुला रखने से कोरोना ज़्यादा फैलता है, तो उस समय के लिए भावनात्मक तर्क बदल जाएगा और कहा जाएगा कि जब कोरोना अमेरिका, स्पेन और इटली में इतना फैल रहा है, जो स्वास्थ्य संसाधनों के मामलों में हमसे कहीं आगे हैं तो हमारे यहाँ अगर फैला तो कौन सी बड़ी बात हो गई। इसमें एक और भावनात्मक तर्क जोड़ दिया जाएगा कि, यह तो ईश्वर की मर्ज़ी है कि किसको कोरोना होगा किसको नहीं।

यह याद रखना चाहिए कि भावनात्मक तर्क तब शुरू होता है जब किसी बात को साबित करने के लिए तार्किक दलील नज़र आनी बंद हो जाए। धार्मिक मंडलियों सहित, हर किसी को उस दिन से डरना चाहिए जब तार्किक गुफ़्तुगु अपनी वास्तविकता, अपनी वैधता और अपना वक़ार खो देंगी और भावनात्मक बातें ही हालात की शुद्धता-अशुद्धता और सच-झूठ का फैसला करने में बड़ी भूमिका निभाएंगी। यह स्थिति भयानक होगी क्योंकि भावनात्मक मुद्दों ने इंसानों का, इंसानियत का, देश का, समाज का हर बार नुक़सान ही किया है। इस से निकलना हर वर्ग के लिए ज़रूरी है। काश मुसलमान भी भावनात्मक मुद्दों से किनाराकशी करते हुए यथार्थ के तर्कों का सहारा लेता और बेहतर समाज बनाने में बड़ी और अग्रणी भूमिका निभाता।