साभार- दोपहर का सामना 06 03 2020
पिछले कुछ दिनों से दिल्ली शांत है, लेकिन यही दिल्ली पिछले सप्ताह सांप्रदायिक दंगों की गवाह बन चुकी है। दर्जनों मौत ने दिल्ली के माथे पर एक तरह से कालिख़ पोत दी है। इसके पहले देशभर में असहिष्णुता को लेकर भी काफ़ी बयानबाजी हुई थी और देश का माहौल ख़राब करने का प्रयास किया गया था। ऐसे माहौल में अगले सप्ताह होली का आना एक उम्मीद जगाता है कि ‘मोहब्बत की पिचकारी में भाईचारे का रंग’ शायद बीते दिनों की कड़वाहट को ख़त्म कर सके। इस बार होली पर उन तमाम लोगों को मुंह तोड़ जवाब दिया जा सकता है जिनका ये कहना है कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव अब ज़्यादा बिगड़ गया है। बजाय इसके कि दिलों में मैल बढ़ानेवाली घटनाओं पर ध्यान दें, होना तो यह चाहिए कि होली के बहाने गले मिलकर ग़लत फ़हमियों को दूर करने का प्रयास किया जाए। यह केवल दिल्ली में ही नहीं बल्कि पूरे देश में होना चाहिए और मुस्लिम समाज को इसके लिए आगे आना चाहिए। हमारे देश में जाति व धर्म आधारित ऐसी घटनाएं होती हैं, जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। जिनको अक्सर बुद्धिजीवियों ने असहिष्णुता का नाम देकर बदनाम किया हुआ है। ऐसी असहिष्णुता का जवाब तीज-त्यौहार पर देना उचित और ज़रूरी हो जाता है। आख़िर त्यौहार होते किसलिए हैं। एक दूसरे के त्यौहारों के बहाने एक-दूसरे के क़रीब आने का मौक़ा मिलता है। और मस्ती भरा निश्छल होली जैसा रंगीन त्यौहार हो तो कहना ही क्या।
अक्सर मुस्लिम समाज में होली खेलने को लेकर दुविधा की स्थिति निर्माण की जाती है। अक्सर उलेमा होली खेलने से मना करते हैं। सऊदी अरब में पैग़म्बर मोहम्मद साहब की नबूवत के एलान से पहले होली खेली जाती थी या नहीं, इसका कोई पुख़्ता प्रमाण नहीं है। न ही मोहम्मद साहब के दौर में या फिर ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के दौर में होली खेलने या होली खेलने से मना करने की कोई ठोस रवायत मिलती है। हां, हुड़दंग और बदतमीज़ियों से इस्लाम ने ज़रूर मना किया है। हिंदू समाज के बुद्धिजीवी भी ख़ुद हुड़दंगी होली को ग़लत बताते हैं। लेकिन क्या होली में केवल हुड़दंग ही है? यह कहना बिल्कुल ग़लत होगा कि होली हुड़दंग का त्यौहार है। अगर ऐसा होता तो अमीर ख़ुसरो कभी अपने पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की शान में होली के मुबारक मौक़े पर ये न कहते,
`आज रंग है ऐ मां रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री, मोरे ख़्वाजा के घर रंग है री……’
हिंदी खड़ी बोली या हिंदवी के पहले कवि कहे जानेवाले अमीर ख़ुसरो जब अपने आध्यात्मिक गुरु दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बने, वो दिन होली का ही दिन था। होली के त्यौहार का आनंद अगर सूफ़ियाना अंदाज़ में मनाना हो तो इन पंक्तियों के भावों से अच्छा भला कुछ हो सकता है? खुद सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर ख़ुसरो के अलावा बहादुर शाह जफ़र, शाह आलम, रसख़ान जैसे मुस्लिम कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएं लिखी हैं जो आज भी लोकप्रिय हैं।
देश के कई अन्य मुस्लिम कवियों और लेखकों ने भी अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होली का पर्व सिर्फ़ हिंदू ही नहीं, मुसलमान भी मनाते रहे हैं। जिस मुग़लिया सल्तनत के अद्ल-ओ-इंसाफ़ की आम मुसलमान दुहाई देता है, इतिहासकारों के मुताबिक़, उन्हीं मुग़लों के काल में होली का त्यौहार ईद की तरह ही मनाया जाता था। मुग़लकाल में होली खेले जाने के कई प्रमाण मिलते हैं। किसी भी सदी के आचार और संस्कृति को उस वक़्त की कला और चित्रकारी के ज़रिए सबसे बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है।
भद्रा, अमदाबाद में ख़्वाजा अब्दुल समद की मज़ार पर लिखी होली की पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए;
ला-इलाहा की भरके पिचकारी
ख़्वाजा पिया ने मुह पै मारी
श्याम की मैं तो गई बल-बलहारी
कैसा है मेरा पिया सुबहान अल्लाह
होली खेलें पढ़ के बिस्मिल्लाह
ला-इलाहा-इल्लल्लाह
बाबा बुल्लेशाह ने लिखा है;
होरी खेलूंगी, कह बिसमिल्लाह,
नाम नबी की रतन चढ़ी,
बूंद पड़ी अल्लाह अल्लाह
अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। बादशाह के उमरा और वज़ीर भी वही करते जो हाकिम-ए-वक़्त किया करते थे। वे होली के रोज़ अपने हिंदू दोस्तों के यहां जाते और उन्हें अपने यहां बुलाते थे। होली के मौक़े पर महल में मुशायरा हुआ करता था। नज़ीर अकबराबादी एक ऐसा नाम है जिसका ज़िक्र के बिना होली अधूरी है। उन्होंने होली का ऐसा समां बनाया है कि आज तक उसका कोई सानी हुआ;
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
इतना ही नहीं होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। यानी होली को लेकर उस दौर में भी कोई पाबंदी का ज़िक्र नहीं है जब मुग़लों का दौर था जिन्हें कट्टरपंथी माना जाता है। अगर होली के पर्व को गैर इस्लामी माना जाता तो क्या मुग़लिया सल्तनत होली को यूं मुसलमानों को मनाने देती? दरअसल मुस्लिम समाज ने अपनी जड़ता की वजह से कई पुरानी परंपराओं को भुला दिया है। क़ुरआन और हदीस के बर-अक्स उसने मौलवियों की किताबों को इस्लाम समझ लिया है। यही ग़लती उसके सामाजिक समरसता लाने में आड़े आती है। दिल्ली सहित देश के किसी भी हिस्से में हुए दंगों में ग़लत-सही के चक्कर में बिना पड़े अगर मुस्लिम समाज अपनी तरफ़ से अमन की कोशिश करता रहे तो नतीजा बेहतर हो सकता है। ख़ून का बदला ख़ून से नहीं मुस्कुराहट और अमन से भी दिया जा सकता है। क्या हज़रत मोहम्मद साहब ने ऐसा नहीं किया है? जिन्होंने संग बरसाए क्या उन्होंने उनको गले नहीं लगाया? क्या नबी से ज़्यादा आपको इस्लाम प्यारा है? दरअसल ग़लत धारणाएं अज्ञान और पूर्वाग्रहों से ही पनपती हैं। इस तरह के अज्ञानता भरे विचारों से लड़ने का एक ही तरीक़ा है, उन पर ध्यान ही न देना।
नज़ीर बनारसी के शब्दों में कहें तो;
कहीं पड़े ना मोहब्बत की मार होली में
अदा से प्रेम करो दिल से प्यार होली में
गले में डाल दो बाहों का हार होली में
उतारो एक बरस का ख़ुमार होली में
रंगों का यह त्यौहार कई बदनुमा दाग़ धोने की सलाहियत रखता है। धार्मिक उन्माद में अनेक बेक़सूरों की जान जा चुकी है। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने पाए इसका सभी को प्रयास करना होगा। इस होली प्रयत्न करें और दृढ़ निश्चय करें कि अपने ग़ैर मुस्लिम पड़ोसी, मित्र अथवा परिचित को मोहब्बत भरी मुस्कान के साथ गुलाल या रंग लगाकर और गले मिलकर होली की मुबारकबाद देंगे। रमज़ान भी क़रीब आ रहा है, देखिएगा कि रमज़ान-ईद पर आपको ईद की बधाइयां देनेवालों की क़तार लग जाएगी। ऐसा विश्वास केवल इसलिए है क्योंकि, यही साझा संस्कृति हमारे देश की विरासत है और यह विरासत कभी दग़ा नहीं करती। आप सभी को होली की अग्रिम शुभकामनाएं।