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सबसे बड़े लोकतंत्र की किरकिरी ! / सैयद सलमान
Friday, February 28, 2020 - 10:04:56 AM - By सैयद सलमान

सबसे बड़े लोकतंत्र की किरकिरी ! / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना  28 02 2020 

महान स्वतंत्रता सेनानी शहीद भगत सिंह ने जून, १९२८ में ‘किरती’ नामक अख़बार में लिखा था, “भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यक़ीन न हो तो लाहौर के ताज़ा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फ़लां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फ़लां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफ़ी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।” शहीद भगत सिंह का कहना था, ‘अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।’

९२ वर्ष बाद दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों को लेकर क्या यही विचार मन में नहीं आ रहा? शहीद भगत सिंह के विचारों के पैमाने पर चिंतन करने पर यही लगता है कि आज संवाद के सबसे बड़े साधन सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफ़ॉर्म यही कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर जमकर ज़हर उगला जा रहा है। किसी को नहीं परवाह कि उनके फैलाए जा रहे ज़हर की वजह से दिल्ली में दो दर्जन से ज़्यादा जानें जा चुकी हैं, सैकड़ों घायल हैं और न जाने कितने बेघर हो गए हैं। करोड़ों का आर्थिक नुक़सान हुआ है वह अलग। अंतरराष्ट्रीय पटल पर विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की जो किरकिरी हो रही है उसका तो कोई मूल्य ही नहीं है। लेकिन न जाने कितने ओवैसी, वारिस पठान, अमानुल्लाह, कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, परवेश वर्मा, गिरिराज सिंह इस आग में अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं। इनका तो काम ही है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर सत्ता के केंद्र में परोक्ष-अपरोक्ष बने रहना।

महाराष्ट्र विधानसभा का पिछला चुनाव एमआईएम के वारिस पठान हार चुके हैं। इसी तरह दिल्ली में भाजपा के कपिल मिश्रा भी इस बार पराजय का स्वाद चखकर कुढ़े बैठे हैं। दोनों महाशय नसीबों के दम पर एक-एक बार विधायक बन चुके हैं लेकिन पराजय की बात वे शायद अब तक स्वीकार नहीं कर पाए हैं। कर्नाटक में १५ करोड़ बनाम १०० करोड़ वाला बयान देकर जहाँ वारिस पठान ने महाराष्ट्र, विशेषकर मुंबई का माहौल ख़राब करने की कोशिश की थी, ठीक वही काम कपिल मिश्रा दिल्ली में कर गए। कपिल मिश्रा के उग्र बयानों और उनके धरने ने दिल्ली की फ़िज़ा को ख़राब करने में बड़ी भूमिका निभाई, ऐसा कहने वालों में अब बीजेपी के बड़े नेता भी शामिल हैं। बीजेपी के सांसद गौतम गंभीर खुले शब्दों में और मनोज तिवारी ढंके-छुपे शब्दों में उनकी आलोचना कर चुके हैं। कपिल मिश्रा बड़बोले हैं यह हर कोई जानता है। कपिल मिश्रा एक समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आपत्तिजनक टिप्पणी कर भी सुर्ख़ियां बटोर चुके हैं। उन्होंने आम आदमी पार्टी का विधायक रहते हुए सारी शालीनता को त्यागते हुए दिल्ली विधानसभा में कहा था “पीएम मोदी के दिमाग़ के साइज़ में प्रॉब्लम है।” वही कपिल आज दिल्ली दंगों की धुरी बने हुए हैं। लेकिन कमाल की बात यह है कि देश की सभी प्रमुख पार्टियों के सभी प्रमुख बड़े नेताओं की शांति की अपील पर कपिल मिश्रा और वारिस पठान जैसों की बोली भारी पड़ती है। यह वह ज़हर है जिसे सोची समझी साजिश के तहत आम जनों के ज़ेहन में घोला गया है।

अगर सामाजिक हिंसा और दंगों का निष्पक्षता से अध्ययन किया जाए तो निश्चित तौर पर यह बात कही जा सकती है कि दंगे होते नहीं बल्कि करवाए जाते हैं। दिल्ली में पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उससे यह स्पष्ट है कि राजनीतिक संगठनों के लिए किसी को भी लड़वाना आसान है और द्वेष की अफ़ीम चख चुकी भीड़ हिंसक बनकर सड़कों पर उतरने से नहीं डरती। दंगों की शुरुआत विभिन्न मंचों से नफ़रत फैलाने से होती है। लोग बाग़ इन नफ़रत फैलाने वालों के हाथों की कठपुतली बनते हैं। ओवैसी बिरादरान, कपिल मिश्रा टाइप बीजेपी के चुनिंदा नेताओं सहित विभिन्न पार्टियों के फ़ायर ब्रांड नेताओं के तक़रीरें सुन लें। उनके भड़काऊ भाषण के बाद नेपथ्य में देर तक गूंजती तालियों के आवाज़ और गगन भेदी नारे इस बात का सबूत होते हैं कि नफ़रत का बीज बो दिया गया है, बस अब खाद-पानी देते रहने की ज़रूरत है। छिटपुट घटनाओं में पत्थरबाज़ी करना और फिर हथियारों से लैस होकर दंगे में शामिल होना ही इन नफ़रती तेवरों की फ़सल काटना होता है। दिल्ली के मामले में यही हो रहा है। लेकिन सवाल मुस्लिम बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और धर्मगुरुओं से पूछा जाना चाहिए कि वर्षों से दंगों की परिणति देखने के बावजूद अपने समाज में जागरूकता क्यों नहीं ला सके? आखिर क्यों मुस्लिम समाज 'ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे' नेताओं के बयान पर उत्तेजित होकर दंगों का हिस्सेदार बन जाता है। देश की न्यायिक प्रणाली का सहारा लेकर क्यों नहीं अपनी मांगों को मनवाने की सलाहियत पैदा करता? इस सवाल का जवाब अक्सर सवाल से किया जाता है कि कि कब तक चुप बैठें? बस यहीं तो मुस्लिम समाज चूक जाता है। वह भूल जाता है कि जाने-अनजाने वह उसी साज़िश का हिस्सा बन गया, जो दंगे की चाहत रखते हैं। जो सांप्रदायिक सद्भाव के दुश्मन हैं और जो इस सामाजिक भेद की वजह से राजनैतिक रोटी सेंक रहे हैं, वह यही ध्रुवीकरण तो चाहते हैं।

जहां तक पुलिस और प्रशासन की भूमिका का सवाल है, उसके बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रशासन और सरकार के पास इतनी ताक़त होती है कि वह यह सुनिश्चित कर सके कि हिंसा शुरू ही न हो और अगर हो भी जाए तो २४ घंटे के भीतर उस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया जाए। लेकिन समस्या यह है कि प्रशासन और पुलिस में भी नीचे से ऊपर तक, पूर्वाग्रह ग्रस्त अधिकारी-कर्मचारी भरे हुये हैं। और अगर सरकारों को यह लगने लगे कि हिंसा से उसे चुनावी लाभ प्राप्त होगा तो ज़ाहिर है हिंसा भड़केगी ही और उसे तब तक चलने दिया जायेगा जब तक कि संबंधित पक्षों को यह न लगने लगे कि उन्हें जो लाभ मिलना था, वह मिल चुका है। लेकिन अब मुस्लिम समाज को समझना होगा कि सांप्रदिकता का उन्माद देश के लिए घातक है। उसे इस बात को स्वीकार करना होगा कि उसके नेता उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने के बजाय उनमें अल्पसंख्यक बनाए रखने जैसी हीन भावना भर रहे हैं। देश के कभी इस कोने में तो कभी उस कोने में ऐसे नेता ऐसी कटुता उत्पन्न कर देते है कि आए दिन हिंदू-मुस्लिम दंगे का माहौल तैयार होता रहता है। दंगों के कारण मानवता शर्मसार होती है। दंगों के कारण आर्थिक व्यवस्था डगमगा जाती है। स्थिति के सामान्य होने में बहुत समय लगता है और इस वैमनस्य के शिकार हुए परिवार इसे जीवन भर भुला नहीं पाते। फिर वह प्रेम और स्नेह कैसे आ सकता है जो पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों से हमें विरासत में मिला है? हम शहीद भगत सिंह, शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और शहीद अशफ़ाक़उल्लाह ख़ान की विरासत को मानने वाले हैं। मुस्लिम समाज के सुधीजनों को इस विषय पर सोचने की ज़रूरत है। केवल दूसरे धर्म पर ऊँगली उठाने से माहौल ख़राब ही होगा। आप पहले अपना सुधार कीजिए। हो सकता है ऐसी ही प्रेम भरी कोशिश दूसरी तरफ़ से भी हो रही हो? विश्वास कीजिए ऐसा हो रहा है। अमन और शांति की चाह रखने वाले मुस्लिम समाज को इतना विश्वास तो करना ही पड़ेगा।