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कट्टरवाद से जागरूकता की जंग / सैयद सलमान
Friday, January 3, 2020 - 9:53:14 AM - By सैयद सलमान

कट्टरवाद से जागरूकता की जंग / सैयद सलमान
सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 03 01 2020

मुस्लिम समाज इस ​वक़्त एनआरसी सीएए और एनआरपी के विरोध में आंदोलन की राह पर है। हिंसा भी हो रही है, कार्रवाई भी हो रही है। आंदोलन के ​ख़िलाफ़ प्रति आंदोलन भी हो रहे हैं। मुस्लिम समाज को लगने लगा है कि उसके ​शिनाख़्त ​ख़​तरे में है। देश के मुस्लिमों में बेचैनी का अहसास और असुरक्षा की भावना है, क्योंकि मुस्लिम समाज को एनआरसी या सीएए के बहाने ​ख़ुद को विदेशी ठहराए जाने का भय है। ​आज़ादी के ७३वें साल में पहुँचने के बाद भी अगर देश का मुसलमान असुरक्षा के माहौल में जीने को मजबूर है तो उसे ​ख़ुद को भी आत्मचिंतन करने की ​ज़रूरत है कि, ऐसे क्या कारण रहे जिसकी वजह से वह आज भी ​ख़ुद को अलग-थलग महसूस करता है। ​मुसलमानों को लगता है कि सड़क से लेकर सत्ता के गलियारों तक उनके ​ख़िलाफ़ माहौल है। मुस्लिम समाज को यह समझा दिया गया है कि सत्ता जिस समाज के हाथ में होती है, उसे सुरक्षा की ​फ़िक्र नहीं होती, इसलिए बाकी समाज अपने आप असुरक्षित की श्रेणी में आ जाता है। ​ख़ासकर मुस्लिम समाज। दरअसल आज मुल्क के नेता अपने राजनैतिक भविष्य का ​फ़ायदा-नु​क़​सान ​ज़्यादा देखता है और समाजसेवा की भावना कम रखता है। ये बात ​ज़​रूर है कि देश में राजनेताओं के साथ​-​साथ धार्मिक नेताओं की भाषा और व्यवहार भी मुस्लिम समाज के भीतर बेचैनी पैदा करने का कारण बनते हैं। इसके अलावा समाज में भी कुछ असामाजिक तत्व हैं जो कहीं न कहीं देश का माहौल ​ख़​राब करने की कोशिश करते रहते हैं और मुस्लिम समाज उनके बहकावे में आ भी जाता है। कभी उनका विरोध करके, कभी उनके समर्थन में उतर कर।

एनआरसी, एनआरपी और सीएए का भय इस ​क़​दर है कि मुस्लिम समाज, आधार कार्ड, पासपोर्ट, वोटर लिस्ट, पैन कार्ड, गाँव घर के पुराने का​ग़ज़ात​​ इकठ्ठा करने में लग गया है। दस्तावेजों की मुकम्मल और दुरुस्त जांच के लिए स्थानीय स्तर पर अनेक संगठन उभर कर सामने आए हैं, जो उनका मार्गदर्शन कर रहे हैं। मुस्लिम समाज के कई बड़े नाम मुसलमानों को पाकिस्तान भेजे जाने का भय दिखाकर अपनी रोटी भी सेंक रहे हैं। मुस्लिम समाज वतनपरस्ती के सबूत में सड़कों पर तिरंगा लहराते हुए बड़ी तादाद में उतरा है। सबसे अच्छी बात यह रही कि इस देशव्यापी आंदोलन का नेतृत्व किसी विपक्षी दल, किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के नेता ने नहीं बल्कि ​ख़ुद मुस्लिम समाज के साथ बड़ी संख्या में बहुसंख्यक समाज के लोगों ने प्रमुख रूप से भावी पीढ़ी का नेतृत्व करने वालों विद्यार्थियों के साथ किया। इस आंदोलन से एक बात साबित होती है कि मुस्लिम समाज अब कट्टरता, सांप्रदायिकता, न​फ़​रत और भेदभाव की ​राजनीति से ऊब चुका है। सरकार की चापलूसी करने या फिर विद्वेष की राजनीति करने वाले तमाम मुस्लिम राजनेताओं और धार्मिक नेताओं के बजाय मुस्लिम समाज ने हिंदू बुद्धिजीवियों के नेतृत्व को अधिक महत्व दिया है। आंदोलन को सही ​ग़​लत ठहराने की बहस में न पड़ते हुए मुस्लिम समाज की बहुसंख्यक समाज के साथ चलने की इस भूमिका को सराहा जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद डर इसी बात का है, कि क्या इस आंदोलन के बहाने मुस्लिम समाज धीरे-धीरे मूल समस्याओं से ध्यान हटाने की ​राजनीति का शिकार तो न बन जाएगा? मुस्लिम समाज के लिए यह ​वक़्त इस बात पर सर जोड़कर बैठने और मुस्लिम समाज के हितों के साथ ही देश की सार्वभौमिकता के साथ सामंजस्य बनाए रखने की चुनौतियों से भी भरा हुआ है।

दरअसल मुस्लिम समाज अभी तक बड़े पैमाने पर यह समझा पाने में असफल रहा है कि मुसलमानों को कुछ भी 'एक्सट्रा स्पेशल' नहीं चाहिए। सवाल तो यह है कि ​आज़ादी के सात दशक से ज्यादा बीत जाने के बाद भी मुस्लिम समाज पर सवाल क्यों उठ रहे हैं? हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई हो या देश का कोई भी सामान्य नागरिक, सभी को शिक्षा, रोज़गार, सड़क, पानी, बिजली, सुरक्षा चाहिए। मुस्लिम समाज ही ऐसा समाज है जो मूल मुद्दों से हटकर धार्मिक भावनाओं के मकड़जाल में उलझकर समाज से ​ख़ुद को अलग-थलग कर लेता है और फिर अपने साथ हुए अन्याय का रोना रोते हुए कथित सेक्युलर या मुस्लिम कट्टरपंथ की राह पर चलने वाले दलों के हाथ का खिलौना बन जाता है। मतलब साफ़ है, सवाल उठाने से कुछ हासिल नहीं होना है क्योंकि जिनके हाथ मे सत्ता है वो तो विभाजित करो और राज करो की नीति को नहीं छोड़ने वाले, इसलिए बदलना तो मुस्लिम समाज को ही होगा। धार्मिक रीति-रिवाज, धार्मिक आस्थाओं से जुड़े कर्म, धार्मिक पहचान रखने की ​आज़ादी तो देश के संविधान ने दे ही रखी है तो उसका मु​ज़ा​हिरा करने के लिए सड़कों पर उतरने की ​ज़रूरत ही क्यों पड़े? और जब इस से इतर सवाल आते हैं तो इस देश के बहुसंख्यक समाज के लोग भी साथ खड़े होते हैं। इस बात को दावे से कहा जा सकता है कि एनआरसी, एनआरपी और सीएए जैसे मुद्दे अभी ठीक तरह से मुस्लिम समाज समझ भी न पाया था, कि उसके साथ देश के बहुसंख्यक समाज खड़ा हो गया। यही इस देश की ​ख़ूबसूरती है, जिसकी तर​फ़​ मुस्लिम कट्टरपंथी उलेमा और केवल कट्टरपंथ की राजनीति करने वाले मुस्लिम नेता ध्यान नहीं देते। उनके लिए भेदभाव को बढ़ावा देना ही सर्वोपरि होता है, समाज जाए चूल्हे-भाड़ में। ऐसा करके वे दूसरी तर​फ़​ की कट्टरता का विरोध करने का ह​क़​ खो देते हैं, क्योंकि फिर आप में और उनमें ​फ़र्क़ ही क्या रह जाता है। इसलिए मुस्लिम मुद्दों को लेकर संयम और समझदारी का मु​ज़ा​हिरा करना मुस्लिम समाज के अगुआ बनने का ​ख़्वाब देखने वालों के लिए बेहद ​ज़​रूरी है।

इस बात में बिलकुल सच्चाई है कि मुस्लिम समाज अतीत के झरोखे से बाहर नहीं निकलना चाहता। इसके लिए उनके अंदर बैठी असुरक्षा की भावना के साथ राजनेता भी ज़िम्मेदार हैं। वो मुसलमानों को ​सिर्फ़ एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते आए हैं और इसलिए वे बहुत विश्वास के साथ जब-तब मुस्लिम समाज को बहला-फुसला कर अपने हाथों की कठपुतली बनाकर रखते हैं। अपने फ़ायदे के लिए वो मुसलमानों के विकास की जगह उनके दकियानूसी विचारों को तरजीह देते हैं। इस देश में ऐसे ह​ज़ा​रों-लाखों मुसलमान हैं जो शिक्षित होकर समाज की मुख्यधारा के साथ जुड़े हुए हैं, लेकिन उन्होंने अपना धर्म याद रखा हुआ है। वे इस्लाम की शिक्षा का पूरा ​ख़्याल रखते हैं और आदर्श मुसलमान कहलाने का हक़ रखते हैं। लेकिन जिन लोगों ने अशिक्षा या बहकावे की राजनीति का शिकार होकर राजनेताओं का पिछलग्गू होना स्वीकार किया हो, उनके लिए यही बात नहीं कही जा सकती। दरअसल बदलते समय के साथ मुस्लिम समाज को अपने धर्म का पालन करते हुए देश के साथ चलने की ​ज़रूरत है। उन्हें अपने कट्टरपंथी विचारों और राजनैतिक सोच वाले मूल सिद्धांतों में भी बदलाव लाने की ​ज़​रूरत है। मुस्लिम समाज अच्छी तरह से समझता है, कि हमारे राजनेताओं को सिर्फ़ अपने वोट बैंक से ही मतलब है। ऐसे नेता कभी भी मुसलमानों के हितैषी नहीं हो सकते क्योंकि वे जानते हैं कि अगर मुसलमान जागरूक हो गए तो उनका वोट बैंक ​ख़ुद ही सिकुड़ जाएगा। ऐसे में मुसलमानों को हिंसक प्रदर्शनों की नहीं संवैधानिक प्रदत्त अधिकारों के साथ ​क़ानूनी लड़ाई पर ​ज़्यादा ​ज़ोर देने की ​ज़रूरत है। मुस्लिम समाज को देश का धर्मनिरपेक्ष वजूद बचाने, हिंदू-मुस्लिम एकता, गंगा-जमुनी तह​ज़ी​ब, भाईचारा और सांझी विरासत की रक्षा के लिए आगे आने की ​ज़रूरत है। एनआरसी, एनआरपी और सीएए के मुद्दे पर हिंसा करने का नहीं, बहुसंख्यक समाज के साथ मिलकर उसका तोड़ निकाने की ​ज़​रूरत है। हिंसा को दबाने के बहाने सरकारों की ​ज़्यादती दब जाती है इसका ​ख़्याल रखें। ऐसा न हो कि पूरा आंदोलन ही धरा रह जाए और मुस्लिम समाज के हाथ लगे केवल बदनामी का दा​ग़​। सोचिए, समझिए और फिर ​फ़ैसला कीजिए। जो भी हो​,​ इस बहाने मुस्लिम समाज को जागरूक होने की ​ज़​रूरत है।