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मुसलमानों के कंधे पर बंदूक क्यों ? / सैयद सलमान
Friday, December 20, 2019 - 10:38:15 AM - By सैयद सलमान

मुसलमानों के कंधे पर बंदूक क्यों ? / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 20 12 2019

इन दिनों पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) को लेकर माहौल गर्म है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद नागरिकता क़ानून, 1955 में संबंधित संशोधन हो गया है। यानि अब यह नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के नाम से जाना जाएगा। इसी क़ानून को लेकर चारों तरफ हिंसा का माहौल बन गया है। विद्यार्थी संगठन सड़कों पर उतर आए हैं। अनेक फ़िल्म और टीवी से जुड़ी हस्तियों सहित विभिन्न संगठनों के साथ ही अनेक दल के नेता भी इसके विरोध में उतर आए हैं। नागरिकता संशोधन क़ानून का असर पूरे देश में होना ही था लेकिन इसका विरोध पूर्वोत्तर राज्यों, असम, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में ज़्यादा हुआ। जब इन प्रदेशों के छात्रों ने इसका विरोध शुरू किया, तभी यह भी निश्चित था कि इसकी आंच देश के अलग-अलग हिस्सों में सुविधानुसार पहुंचाई जाएगी। हुआ भी वही और देश के अनेक विश्वविद्यालय इसकी चपेट में आ गए। पूर्वोत्तर राज्यों में इसका विरोध इस बात को लेकर हो रहा है कि उन राज्यों में पड़ोसी राज्य बांग्लादेश से बड़ी संख्या में हिंदू और मुसलमान दोनों ही अवैध तरीक़े से आ कर बसते जा रहे हैं। जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय इस आंदोलन में अधिक चर्चा में आया। जामिया के भीतर पहुंची पुलिस पर आरोप लग रहे हैं के उसने विद्यार्थियों को परिसर के भीतर और यहां तक की लाइब्रेरी में भी बुरी तरह पीटा, लाठीचार्ज किया, अश्रुगैस के गोले छोड़े जिसमें सैकड़ों छात्र घायल हैं। जामिया के साथ ही एएमयू, जेएनयू सहित कई विश्वविद्यालय आंदोलन की राह पर हैं। विद्यार्थियों का हिंसक होना किसी भी नज़रिए से जायज़ क़रार नहीं दिया जा सकता, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह आंदोलनरत छात्रों पर पुलिस का हिंसक तरीके से लाठियां भांजना जायज़ नहीं हो सकता।

एनसीआर, सीएबी या अब सीएए का सीधा-सीधा संबंध मुस्लिम समाज से जोड़ा जा रहा है। दरअसल मुद्दा यह था कि सरकार के बनने वाले क़ानून में दो अहम चीज़ें थीं। पहला, ग़ैर-मुस्लिम प्रवासियों और शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देना और दूसरा, अवैध विदेशियों की पहचान कर उन्हें वापस उनके देश भेजना भेजना, जिनमें ज़्यादातर मुसलमान हैं। मुस्लिम समाज का आरोप है कि इस क़ानून के माध्यम से धार्मिक आधार पर देश के नागरिकों के बीच भेदभाव करने का प्रयास किया गया है। यह बहस का मुद्दा हो सकता है और बहस होना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन लोकतंत्र में बहस-मुबाहसे और आंदोलन का हिंसक होना किसी भी नज़रिए से मान्य नहीं हो सकता। ख़ासकर मुस्लिम समाज को इस बात को समझना होगा कि वह इस देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक और दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक है। राष्ट्रनिर्माण में उसकी बड़ी भूमिका अपेक्षित है। यह बात अलग है कि मुस्लिम समुदाय आज़ादी के बाद से अब एक तरफ़ ख़ुद अल्पसंख्यक होने की हीन भावना से ग्रसित है, तो दूसरी तरफ़ उस पर तुष्टिकरण के भी आरोप लगते रहे हैं। दोनों बातों में सच्चाई है। इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि बंटवारे के बाद मुस्लिम समाज के जो लोग यहां रुके वह कुछ वर्षों तक ​ज़रूर​ लोगों की निगाहों में खटकते रहे, क्योंकि जब मुस्लिम देश के नाम पर पाकिस्तान का गठन हुआ तो बड़ी संख्या में बहुसंख्यकों को यह लगा कि ​आख़िर अलग मुल्क मिलने के बाद भी मुस्लिम समाज पाकिस्तान क्यों नहीं गया। लेकिन उन्हीं बहुसंख्यकों में बहुतायत संख्या ऐसे लोगों की भी थी जो इस देश के मुसलमानों के साथ न ​सिर्फ़ पूरी शिद्दत के साथ खड़े रहे बल्कि उनकी ​शिनाख़्त को बनाए रखने में किसी तरह की कोई अड़चन नहीं आने दी, उन की आन-बान-शान को बरकरार रखने के लिए पेश-पेश रहे। समय के साथ कई ऐसे मुद्दे और राजनीतिक अखाड़े के माहिरों के खेल सामने आए जिससे कि गंगा-जमुनी विरासत की दीवार दरकने के कगार पर आ गई। लेकिन फिर भी हिंदू-मुस्लिम एकता के जियालों ने उन दीवारों को गिरने नहीं दिया और एकता का दामन ​मज़बूती से थामे रखा। लेकिन बाद के वर्षों में अनेक विवादित मुद्दों को लेकर मुस्लिम समाज में यह बात घर गई कि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगा है। इसी के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों में हुए दंगों में जानी व माली ​नुक़सान के बाद मुस्लिम समाज के मन में यह बात भी गहरे तक बैठ गई कि उनके साथ सियासत हो रही है और उनका इस्तेमाल ​सिर्फ़ वोट बैंक के रूप में किया जा रहा है। आज भी यह समाज ज़्यादातर अपनी ​शिनाख़्त को लेकर भ्रम की स्थिति में है और राजनेताओं ने उन्हें इसी भ्रम में रखने का ​तरीक़ा भी जान लिया है।

वैसे क्या यह हंगामा मुसलमानों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है? अगर ऐसा है तो यह मुसलमानों के लिहा​ज़​ से अधिक घातक होगा। ध्रुवीकरण और प्रतिध्रुवीकरण के नतीजे में मुस्लिम समाज पूरी तरह अलग-थलग पड़ जाता है यह बात किसी से छिपी नहीं है। बी​फ़​ बैन, मॉब लिंचिंग, धारा ३७०, ट्रिपल तला​क़​ और अयोध्या फ़ैसले​ जैसे अनेक मुद्दों पर मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया मिली​-जुली रही। मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध ​तबक़ा मुस्लिम समाज के बहुमत को यह समझाने में सफल रहा कि इन मुद्दों पर उग्र भूमिका उनके लिए ​नुक़सानदेह होगी। मुस्लिम समाज ने भी इस बात को समझा और सब्र बनाए रखा। लेकिन एनआरसी और सीएए को लेकर यह सब्र का बांध टूट गया। शायद मुस्लिम समाज पूर्वोत्तर राज्यों में शुरू हुए आंदोलन से प्रेरित हुआ होगा। हालांकि यह एक अच्छी बात रही कि आंदोलन को लेकर देश का सरकार विरोधी ​तबक़ा भी सड़कों पर उतरा, जिसमें वामपंथी और विभिन्न लोकशाही संगठनों की बड़ी भूमिका रही जिस से यह आंदोलन हिंदू-मुस्लिम विवाद की भेंट अब तक नहीं चढ़ पाया है। लेकिन कहते हैं न, 'बकरे की माँ कब तक ​ख़ैर मनाएगी?' और वही हो रहा है। अब अनेक जगहों पर मुस्लिम संगठनों के सड़कों पर उतरने से इस आंदोलन को एनआरसी या सीएए विरोधी नहीं बल्कि सांप्रदायिक रंग देने की भरपूर कोशिश हो रही है। मुस्लिम नौजवान सड़कों पर उतरकर हिंसक गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं। सरकारी संपत्ति को नुक़सान पहुंचा रहे हैं। किसी एक जगह के उनके हिंसक होने की वजह से अन्य जगहों पर लोकतांत्रिक आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर भी ​सख़्ती होने लगी है। पुलिस लाठियां भांज जा रही है और शरारती तत्वों को यही चाहिए।

मुस्लिम समाज को लगता है कि नागरिकता संशोधन ​क़ानून का पूरा मसौदा धार्मिक भेदभाव और पूर्वाग्रह के आधार पर तैयार किया गया है जिसके अनुसार उत्पीड़ित अल्पसंख्यक ​अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आने वालों को केवल शरण नहीं बल्कि नागरिकता भी प्रदान की जाएगी। मुस्लिम नागरिकों को इससे अलग रखे जाने से ही मुस्लिम समाज ​ख़फ़ा है। अगर यह बात सच भी हो तो आंदोलनकारी मुस्लिम समाज को अपने आंदोलन को हिंसक होने से बचाए रखने की ​ज़िम्मेदारी निभानी होगी। संवैधानिक और लोकतांत्रिक तरीके से इस मुद्दे को योग्य मंच पर उठाने की ज़रूरत है वरना सांप्रदायिकता की रोटी सेंकने वाले मुस्लिम रहनुमा सड़कों पर उतारकर आपको गोली भी खिलवाएंगे और आपकी लाशों पर सियासत कर और भी ​मज़बूत होते जाएंगे। और मुसलमानों को क्या मिलेगा? केवल देशद्रोही होने का बड़ा सा ​तमग़ा। क्या मुसलमान इन आरोपों को झेल पाएगा? अगर नहीं, तो उसे विरोध की हिकमत अमली बदलनी होगी। सीखिए दिल्ली की उन मस्जिदों के इमामों से जो हिंसक आंदोलन के बीच मस्जिदों से ऐलान कर रहे थे कि, "अल्लाह के वास्ते घर लौट जाइए। अवाम को परेशान ना करें। नमाज़ ​पढ़ें। दुआ करें। एहतेजाज अमन से किया जाता है। आपको अल्लाह का वास्ता।" बस मुस्लिम समाज को अपने इन जैसे समझदार इमामों की बातों को शांति ​से समझना होगा। भड़काऊ नेताओं की बात अनसुनी करना ही हितकर होगा। यही आम मुसलमानों के लिए बुद्धि और विवेक से निर्णय लेने का समय है, वरना आने वाली पीढ़ियों को हिंसक समाज का ​तोहफ़ा देकर जाने का कलंक अपने माथे पर लेने के लिए तैयार रहें।