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चुनावी बिसात, मुसलमानों की बात / सैयद सलमान
Friday, November 1, 2019 - 10:53:03 AM - By सैयद सलमान

चुनावी बिसात, मुसलमानों की बात / सैयद सलमान
सैयद सलमान
​साभार- दोपहर का सामना 01 11 2019

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। सरकार बनाने पर राजनैतिक दलों में जोड़-गणित बिठाया जा रहा है। पिछली बार के मुक़ाबले कम सीटों पर जीतने के कारण भाजपा ख़ेमे में उत्साह की कमी और निराशा का माहौल है। पहली बार बालासाहब ठाकरे परिवार के चश्म-ओ-चिराग़ शिवसेना नेता आदित्य ठाकरे का चुनावी समर में उतरना और उनकी सम्मानजनक जीत के बाद शिवसेना में ज़बरदस्त उत्साह है। आश्चर्यजनक रूप से इस बार एनसीपी और कांग्रेस ने भी पिछली बार की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है और उनकी सीटें भी बढ़ी हैं। ख़ासकर एनसीपी के नतीजों ने शरद पवार के राजनैतिक कौशल का लोहा मनवाया है। इस बीच मुस्लिम समाज को लेकर भी राजनैतिक समीक्षक आकलन कर रहे हैं। माना जा रहा है कि मुस्लिम समाज ने इस बार भाजपा को छोड़कर किसी भी बड़े दल को निराश नहीं किया। सिर्फ़ बड़े ही नहीं मुस्लिम समाज ने क्षेत्रीय दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों तक को अपना मत देने से परहेज़ नहीं किया, जबकि वह अच्छी तरह से जानता था कि इसके नतीजे में कथित सेक्युलर पार्टियां हार भी सकती हैं। २०१४ में महाराष्ट्र विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या ९ थी, लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में १० मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है। इन में कांग्रेस से तीन, एनसीपी, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और समाजवादी पार्टी से दो-दो मुस्लिम चुनाव जीते हैं जबकि शिवसेना से भी एक विधायक चुनकर विधानसभा में पहुंचा है।

बात अगर मुस्लिम समाज के वोटों की करें तो उसने शिवसेना सहित कांग्रेस, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, एमआईएम और वंचित अघाड़ी पर भी अपना विश्वास जताया। हिंदुत्व की पहचान के साथ राष्ट्रप्रेमी मुसलमानों से परहेज़ न करने वाली शिवसेना के टिकट पर दूसरी बार कोई मुस्लिम चेहरा चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचा है। चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की गठबंधन सरकार में पशुपालन मंत्री रहे कांग्रेस विधायक अब्दुल सत्तार ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर शिवसेना का दामन थामा था। शिवसेना ने अब्दुल सत्तार को औरंगाबाद जिले की उसी सिल्लोड़ विधानसभा सीट से मैदान में उतारा था जहाँ से वह पिछली बार विधायक थे। वहां के मुस्लिम समाज ने उन्हें शिवसेना के टिकट पर भी स्वीकार कर इस बात पर मुहर लगा दी कि उन्हें शिवसेना से बिल्कुल परहेज़ नहीं है। इस से पहले हिंदुत्व के दम पर महाराष्ट्र में अपनी साख बनाने वाली शिवसेना ने मरहूम साबिर शेख़ पर विश्वास जताते हुए उन्हें मुसलमानों का चेहरा बनाया था। साबिर शेख़ को आगे कर शिवसेना तब भी कहा करती थी कि हमारे पास देशभक्त मुसलमानों के लिए सम्मान है। साबिर शेख़ १९९० में शिवसेना के टिकट पर अंबरनाथ से पहली बार विधायक बने थे। वह १९९५ में फिर से चुने गए और मनोहर जोशी के मंत्रिमंडल में श्रम मंत्री बने। १९९९ में हैट्रिक दर्ज दर्ज करते हुए वे तीन बार विधायक बने।

इस बार कुछ बड़े उलटफेर भी हुए। पिछली बार एमआईएम के दो विधायक थे। उनमें से इम्तियाज़ जलील अब सांसद हैं। उनकी सीट से चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी नसीरुद्दीन सिद्दीक़ी शिवसेना के प्रदीप जयसवाल से पराजित हुए। जबकि भायखला से वारिस पठान को शिकस्त देकर शिवसेना की ही यामिनी यशवंत जाधव ने जीत हासिल की। हालाँकि, एमआईएम के डाॅक्टर फारुक़ शाह ने धुले शहर और मुफ़्ती मोहम्मद इस्माइल ने कास्मीमाले गांव से चुनाव जीत कर उस कमी को पूरा किया। इस बार समाजवादी पार्टी ने भी अपनी संख्या में एक विधायक की बढ़ोत्तरी कर ली। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आसिम आज़मी ने शिवाजी नगर-मानख़ुर्द में हैट्रिक मारते हुए अपनी सीट बरक़रार रखी जबकि भिवंडी (पूर्व) में रईस शेख़ ने जीत दर्ज की। मुंबई में कांग्रेस के तीन उम्मीदवारों में मुंबादेवी से अमीन पटेल, बांद्रा पूर्व से जीशान बाबा सिद्दीक़ी और मालाड़ पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र से असलम शेख़ चुनाव जीते। एनसीपी प्रवक्ता और पूर्व मंत्री नवाब मलिक ने अणुशक्ति नगर निर्वाचन क्षेत्र से जीत हासिल की। राकांपा के वरिष्ठ नेता हसन मुश्रीफ़ कोल्हापुर ज़िले में कागल निर्वाचन क्षेत्र से विजयी रहे। कांग्रेस को सबसे अधिक सदमा महाराष्ट्र में पार्टी का मुस्लिम चेहरा रहे और २० साल तक विधानसभा में बतौर विधायक और पूर्व मंत्री रहे आरिफ़ नसीम ख़ान की पराजय से लगा है। चार बार के विजेता नसीम ख़ान को शिवसेना के दिलीप लांडे ने पराजित कर सबको चौंका दिया।

चुनाव नतीजों को देखकर मुस्लिम वोटों की राजनीति करने वालों का कहना है कि अगर मुस्लिम वोट नहीं बंटते तो शायद विधानसभा में मुस्लिम संख्या और अधिक हो सकती थी। सच भी है कि ऐसे कई निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम उम्मीदवार बहुत कम वोट से हारे। उनके हारने का एक कारण यह भी रहा कि कई और मुस्लिम उम्मीदवारों ने उनके वोट काटे। प्रदेश में कुल ३१ ऐसे निर्वाचन क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम वोटरों की आबादी निर्णायक भूमिका में होती है। मुस्लिम मतों के समीक्षकों के अनुसार वंचित बहुजन अघाड़ी और एमआईएम की मौजूदगी ने कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया। चुनावी आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि मुख्य तौर पर इन दोनों पार्टियों ने कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन को ही नुक़सान पहुंचाया। लेकिन यह तो कांग्रेस और एनसीपी के नेताओं को सोचना होगा कि आख़िर उनके परंपरागत वोट उनसे क्यों बिदके। यह जानते हुए भी कि छोटे दलों को वोट देने से कांग्रेस-एनसीपी को नुक़सान होगा फिर भी मुस्लिम मतदाताओं ने क्यों ऐसा क़दम उठाया, इस सवाल का जवाब कांग्रेस-एनसीपी को तलाशना होगा। कारण साफ़ है, मुस्लिम मतदाता अब कांग्रेस-एनसीपी की जागीर नहीं रहा। अब तक मुस्लिम समाज का बड़ा तबक़ा अपना वोट कांग्रेस-एनसीपी के ऐसे उम्मीदवार को भी दे आता था जिसे वह न ठीक से जानता था, न कभी देखा था। वह भी सिर्फ़ इस सोच के साथ कि जिसे वह वोट दे रहा है वह किसी ऐसे उम्मीदवार को हराने में कामयाब होने वाला लगता है, जिसका डर उनके दिलो-दिमाग़ में वर्षों से बैठा दिया गया है। इसे ही मुस्लिम फ़ैक्टर और वोटों का ध्रुवीकरण कहा जाता है। अब यह दांव उल्टा पड़ने लगा है। मुस्लिम समाज उसके साथ भी खड़ा होने से नहीं हिचकिचाता जिसके हार जाने की भी गुंजाइश हो या फिर ऐसे दलों को भी वोट देने से नहीं हिचकता जिसके साथ उसकी कभी नहीं बनी हो। पिछले मुंबई महानगरपालिका में दो नगरसेवक और इस बार के विधानसभा चुनाव में एक विधायक शिवसेना की झोली में डालकर मुसलमानों ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है। किसी समय का चर्चित मुस्लिम वोट बैंक, कथित मुस्लिम परस्त पार्टियों का पिछलग्गू न बनकर अब अपने विवेक से वोट देता है।

राजनीतिक स्तर पर एक बात तो स्पष्ट है कि यदि मुस्लिम समाज को धार्मिक मुद्दों पर एकत्रित किये जाने की बात होगी तो हिंदू समाज में इसकी प्रतिक्रिया निश्चित तौर पर होगी। इस प्रतिक्रिया की भावना को हिंदू वोट बैंक में परिवर्तित करने का काम वह दल करेंगे जिन्हें पता है कि उन्हें मुसलमानों का वोट नहीं मिलना। इसका ख़ामियाज़ा सबसे ज़्यादा मुस्लिम समाज को भुगतना पड़ेगा। अब तक मुस्लिम समाज इसी समस्या को झेल रहा था। वह राष्ट्र की मुख्यधारा से कट कर सिर्फ़ वोट बैंक बनकर रह गया था। उसके वोट देने का बदला अंदाज़ दिखाता है कि उसे धार्मिक मुद्दों पर बरग़लाने से ज़्यादा मूलभूत सुविधाओं की बात करने वाले लोग ज़्यादा पसंद हैं। वह चुन-चुन कर ऐसे दलों और प्रत्याशियों को वोट देता है जो उनके हितों का ख़्याल रखें। शिवसेना ने मुस्लिम समाज पर जो विश्वास जताया उसके बदले में मुस्लिम समाज का भी उस क़र्ज़ को अदा करना यह दर्शाता है कि मुसलमानों के लिए कोई दल अछूत नहीं है। हाँ, एमआईएम और वंचित अघाड़ी को अब भी वह पर्याय समझने की कोशिश कर रहा है लेकिन पूरी तरह से उन पर निर्भर नहीं है। अलग-अलग जगह पर अलग-अलग दलों के प्रत्याशियों को जिताकर भेजने से मुस्लिम मतों को किसी भी तरफ़ हांके जाने का आरोप भी हट जाएगा। क्या ऐसा नहीं लगता कि इस चुनाव ने इस बात को बड़ी ख़ूबसूरती से साबित किया है?