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कुप्रथा, क़ानून और क़ुरआन / सैयद सलमान
Friday, August 2, 2019 - 10:26:44 AM - By सैयद सलमान

कुप्रथा, क़ानून और क़ुरआन / सैयद सलमान
सैयद सलमान
साभार- दोपहर का सामना 02 08 2019

​मुस्लिम समाज, विशेष कर मुस्लिम महिलाओं के लिए यह सप्ताह एक ऐसी ख़बर लेकर आया जिसके लिए वर्षों से समाज के भीतर और बाहर उथल-पुथल मची रहती थी। मुस्लिम महिला 'विवाह अधिकार संरक्षण' विधेयक २०१९, जिसे तीन तलाक़ बिल कहा जाता है, लोकसभा के बाद अब राज्‍यसभा में भी पास हो गया। यह बिल अब राष्‍ट्रपति के पास भेजा जाएगा। उनके हस्ताक्षर के उसके बाद मुस्लिम समाज में वर्षों से चली आ रही तीन तलाक़ की प्रथा क़ानूनन ख़त्म हो जाएगी। मुस्लिम समाज के भीतर इस विषय को लेकर हमेशा ही मतभेद रहे हैं कि ट्रिपल तलाक़ प्रथा को जारी रखा जाए या इसे ख़त्म कर दिया जाए। पवित्र क़ुरआन से अलग अनेक हदीसों, चंद मुस्लिम उलेमा और मुफ़्तियों के हवाले से ट्रिपल तलाक़, यानि एक साथ तीन तलाक़ को को जायज़ क़रार दिया गया था। वर्षों से मुस्लिम समाज के पुरुष एकबारगी तीन तलाक़ कहकर विवाह बंधन से मुक्त हो जाते थे। अब क़ानून बन जाने के बाद ऐसा करने से पहले पुरुषों को नए सिरे से सोचना होगा। नए क़ानून के अनुसार एक समय में अपनी पत्नी को 'तलाक़-तलाक़-तलाक़' अर्थात एकबारगी तीन तलाक़ कहना अपराध होगा और आरोपी को तीन साल तक क़ैद और जुर्माना तक भुगतना पड़ सकता है। मुस्लिम महिला 'विवाह अधिकार संरक्षण' विधेयक में यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि कोई मुस्लिम पति अपनी पत्नी को मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रानिक रूप से या किसी अन्य विधि से तीन तलाक़ देता है तो उसकी ऐसी कोई भी उद्घोषणा 'शून्य और अवैध' होगी। इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि तीन तलाक़ से पीड़ित महिला अपने पति से स्वयं और अपनी आश्रित संतानों के लिए निर्वाह भत्ता प्राप्त पाने की हक़दार होगी। इस रक़म को मजिस्ट्रेट निर्धारित करेगा।

वर्तमान मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भी ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे पर काफ़ी आक्रामक रुख़ अपनाया था। आख़िर उसे इस मामले में अब जाकर सफलता मिल गई। मुस्लिम समाज के एक तबक़े के नज़रिए से इसे मोदी सरकार की बड़ी सियासी जीत माना जा रहा है। भाजपा के भीतर के एक गुट ने आलाकमान के सामने इस बात को तर्कसंगत तरीके से रखा कि मुस्लिम महिला विधेयक लाकर अगर ट्रिपल तलाक़ पर रोक लगाई जा सकती है तो सरकार को ऐसा करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। कारण साफ़ था कि इस गुट को यह यक़ीन हो गया था कि देश की अधिकांश महिलाएं इस प्रथा के ख़िलाफ़ हैं और वो इसे पसंद नहीं करतीं। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विषय को अपने अजेंडे में शामिल रखा था। सरकारी दावों के अनुसार तीन तलाक़ से प्रभावित होने वाली करीब ७५ प्रतिशत महिलाएं ग़रीब वर्ग की होती हैं। माना जा रहा है कि यह विधेयक उनको ध्यान में रखकर बनाया गया है। भले ही यह फ़ैसला सियासी था, लेकिन इसके सामाजिक पहलू पर भी भाजपा की नज़र थी। सियासी नज़रिये से एक ख़तरा यह था कि देश भर में सरकार की मुस्लिम विरोधी छवि और बढ़ती, लेकिन समाजी नज़रिए से इस से मुस्लिम समाज की महिलाओं और सुधारवादी मुस्लिम तबक़े में सकारात्मक संदेश जाता। प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने दूसरा रास्ता चुना। नतीजा सामने है। सियासी और समाजी नज़रिए से सरकार मुस्लिम समाज के एक धड़े को साधने में कामयाब रही है।

ऐसा नहीं है कि भारत ऐसा पहला देश है जहां ट्रिपल तलाक़ ग़ैर-क़ानूनी कर दिया गया हो। पाकिस्तान, इजिप्ट, बांग्लादेश, इराक़, श्रीलंका, सीरिया, ट्यूनीशिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, साइप्रस, जॉर्डन, अल्जीरिया, इरान, ब्रुनेई, मोरक्को, कतर और यूएई में भी ट्रिपल तलाक़ को बैन किया गया है। पकिस्तान, सीरिया और ईरान जैसे प्रखर मुस्लिम देशों में पहले से ही ट्रिपल तलाक़ पर लगा बैन न सिर्फ चौंकाने वाला है बल्कि यहाँ के मुस्लिम समाज के लिए भी सोचने के दरवाज़े खोलता है। तालिबान प्रभाव वाले मुस्लिम देश अफ़ग़ानिस्तान में भी तलाक़ के लिए क़ानूनन रजिस्ट्रेशन ज़रूरी है। यहां १९७७ में नागरिक क़ानून लागू किया गया था। इसके बाद से तीन तलाक़ की प्रथा समाप्त हो गई। ऐसी मांग अक्सर उठती रही है कि जब अनेक इस्लामिक देश अपने यहां अपनी महिलाओं की भलाई के लिए बदलाव की कोशिश कर रहे हैं तो हमारे जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में यह क़ानून क्यों नहीं लाया जा सकता। प्रधानमंत्री का दावा तो यही है कि वह 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' में भरोसा करते हैं और उन्हें वोटों के नफ़ा-नुकसान की पडी नहीं है। उन्होंने कहा भी है कि, सबके विकास के लिए आगे बढ़ेंगे और मुस्लिम समाज को पीछे नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में इस मुद्दे पर उन पर विश्वास कर नई सोच और उदारवादी मुसलमानों के एक तबक़े ने सरकार की कोशिशों को अपना मौन समर्थन देना जारी रखा। महिलाओं का एक बड़ा तबक़ा भी खुलकर सरकार के समर्थन में आया।

क़ानून बनने से अलग अगर ट्रिपल तलाक़ की बात की जाए तो पता चलेगा कि मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र और श्रद्धा के लिहाज़ से सबसे महत्वपूर्ण किताब क़ुरआन में भी एक साथ तीन तलाक़ की अवधारणा नहीं मिलती। तीन तलाक़ की व्यवस्था क़ुरआन की हिदायतों के विपरीत और ग़ैर-इस्लामी है। क़ुरआन के अनुसार यदि कोई पति-पत्नी एक दूसरे से अलग होना चाहते हैं और एक दूसरे को तलाक़ देना चाहते हैं तो, पहले पति और पत्नी के परिवारों को आपस में बैठकर एक दूसरे से बातचीत कर हर संभव प्रयास करके इन दोनों के वैचारिक मतभेद को दूर करने की कोशिशें करनी चाहिए तथा दोनों को तलाक़ देने से बचाना चाहिए। क़ुरआन के अनुसार, 'और अगर तुम्हे शौहर-बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम/जज मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो। अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे, तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की ख़बर रखने वाला है (अल-क़ुरआन- ४:३५)

इस आयत के अनुसार मियां-बीवी दोनों को अपने बड़े-बुज़ुर्गों के ज़रिये एक दूसरे को समझने, सुधरने और सही राह पर आने का मौक़ा देना चाहिए, न कि फ़ौरन कोई फ़ैसला करना चाहिये। एकमुश्त तलाक़ का कोई प्रावधान ही नहीं है। घर को बरबादी से बचाने के लिए मियां-बीवी दोनों को एक दूसरे की ग़लतियों को भूल कर हर हाल मे घर को बचाने की कोशिश करनी चाहिए। अगर शौहर बीवी की सारी कोशिशें नाकाम हो जाएं, तो भी तलाक़ देने मे जल्दबाज़ी उचित नहीं। पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने भी जायज़ होते हुए भी तलाक़ को सबसे नापसंदीदा अमल बताया था। दुनिया भर के कई मुस्लिम विद्वानों का मानना है कि तीन तलाक़ एक ग़ैर-इस्लामिक प्रक्रिया है। वैसे भी क़ुरआन में तलाक़ की प्रक्रिया को बहुत ही कठिन बताया गया है। एक-एक कर तीन बार तलाक़ देने में कमोबेश १० से ११ महीने लगते हैं। क्योंकि हर एक तलाक़ के बाद सवा तीन महीने की 'इद्दत' अवधि होती है। इस दौरान मियां-बीवी फिर से सुलह कर अपने तलाक़ को निरस्त कर सकते हैं क्योंकि दोनों के बीच सुलह की गुंजाइश बनी रहती है। इसमें हलाला जैसी किसी कुप्रथा का समावेश भी नहीं होता।

नए ट्रिपल तलाक़ क़ानून में सज़ा के प्रावधानों और सख़्ती पर क़ानूनी राय ली जा सकती है और संविधान के दायरे में लड़ाई लड़ी जा सकती है, लेकिन ट्रिपल तलाक़ को क़ायम रखने की जिद पर अड़े रहने से मुसलमानों को ही नुकसान होगा यह बात उसे समझनी होगी। वर्तमान में शिक्षा के महत्व को समझने और रोजगारोन्मुख युवा पीढ़ी को रूढ़िवादी मुल्ला बिरादरी का इस्लाम सौंपना अगर मुसलमानों की ज़िद है तो उनका अल्लाह ही मालिक है। क्योंकि अल्लाह की मुक़द्दस किताब और पैग़ंबर मोहम्मद साहब के असली इस्लामी संदेशों के हक़दार वही हैं जो सच्चे मोमिन होंगे। शेष दुकानदारी है, मुसलमान इस बात को जितनी जल्दी समझ लें उतना अच्छा, वरना आने वाले वक्तों में सरकारी हस्तक्षेप का रोना रोने के अलावा उनके हाथ कुछ न लगेगा। राज्यसभा में मुस्लिम हितों की रक्षा का दावा करने वाले अनेक कथित सेक्युलर दलों का बहिर्गमन भी मुसलमानों के लिए एक सबक़ है। इसी देश का संविधान अगर मुस्लिम समाज को भी सुरक्षा की गारंटी जब दे रहा है तो भविष्य की हर रणनीति उसी के अनुसार तय हो। सियासत के ठेकेदारों से किनाराकशी अब मुसलमानों के लिए लाज़िम है।