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इस्लाम, सूद और धोखेबाज़ / सैयद सलमान
Friday, July 26, 2019 - 10:13:31 AM - By सैयद सलमान ​

इस्लाम, सूद और धोखेबाज़ / सैयद सलमान
सैयद सलमान ​
​साभार- दोपहर का सामना 26 07 2019

आर्थिक मामलों को लेकर जब-तब मुस्लिम समाज के भीतर चिंतन-मनन होते रहते हैं। एक संकल्पना कई बार रूप लेती है और फिर बिखर जाती है। यह संकल्पना है इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम की। इस बैंकिंग सिस्टम में शरिया के नियम लागू होते हैं जिसमें ब्याज लेने और देने की साफ़ मनाही होती है, क्योंकि इस्लाम के हिसाब से ब्याज देना या सूद खाना दोनों 'हराम' हैं। बहुत सारे मुसलमान सामान्य बैंकों से ख़ुद को दूर रखने की कोशिश करते रहे हैं क्योंकि इन बैंकों की प्रणाली में ब्याज अहम हिस्सा है। शरीयत क़ानून के मुताबिक़ कोई अगर किसी को अधिक पैसे लेने की उम्मीद पर क़र्ज़ देता है तो इसे इस्लाम के ख़िलाफ़ माना जाएगा क्योंकि एक तो उस अतिरिक्त राशि को कमाने के लिए मेहनत नहीं की गई है, दूसरे यह किसी की मजबूरी का फ़ायदा उठाने जैसा है। और यह दोनों मामले इस्लामी लिहाज़ से हराम की श्रेणी में आएँगे। इसी तरह अगर अपना पैसा किसी के पास इस उम्मीद पर जमा किया जाए कि कुछ समय बाद उसका ब्याज मिलेगा तो इसे भी शरीयत क़ानून गैर-इस्लामिक क़रार देता है। इन्हीं नियमों को ध्यान में रखते हुए अक्सर धर्मनिष्ठ मुस्लिमों को बैंकिंग से जोड़ने के लिए इस्लामिक बैंक और हलाल इन्वेस्टमेंट फ़र्म्स को स्थापित करने का प्रयास होता रहता है। इस तरह के बैंक न तो किसी भी ग्राहक को दिए क़र्ज़ पर ब्याज वसूलता है और न ही वह किसी भी ग्राहक की जमा धनराशि पर कोई ब्याज अदा करता है। अमेरिका और यूरोप समेत खाड़ी देशों के लगभग ५० देशों में मुसलमानों को बैंकिग से जोड़ने के लिए इस्लामिक बैंक खोले गए हैं। भारत में केन्द्रीय रिज़र्व बैंक भी ऐसे बैंकों की स्थापना की अनुमति दे चुका है। मुस्लिम समाज से जुड़े अनेक ग्रुप इसे हक़ीक़त में लाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन इस सिस्टम के 'लूपहोल्स' का ठगबाज़ गिरोह अक्सर फ़ायदा उठाकर इस्लामिक बैंकों की अवधारणा को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।

अधिकांश मुसलमानों को साधारण बैंक सिस्टम से ज्यादा इस्लामी बैंक की अवधारणा लुभाती है। लेकिन अनेकों कोशिश के बाद भी इस्लामी बैंक का निज़ाम हमारे देश में सफल नहीं हो पाया है। उलटे इस्लामी बैंक की धोखाधड़ी के मामले अधिक पाए गए हैं। पिछले दिनों ही इस्लामी बैंक के नाम पर तक़रीबन ३० हज़ार मुसलमानों को ठगकर एक शख़्स दुबई फ़रार हो गया। एक अंदाज़े के मुताबिक़ यह धोखाधड़ी करीब डेढ़ हज़ार करोड़ की है। लोगों को बड़े रिटर्न का वादा कर इस ठग ने एक पोंजी स्कीम चलाई और उसे इस्लामी बैंक की तर्ज़ का निवेश बताया। और इस स्कीम का हश्र भी वही हुआ जैसा अन्य पोंजी स्कीमों का अब तक होता रहा है। करोड़ों की ठगी करने वाला मंसूर खान मैनेजमेंट ग्रैजुएट है जिसने २००६ में आई मॉनेटरी अडवाइज़री (आईएमए) के नाम से अपना व्यापार शुरू किया। आईएमए ने अपने इनवेस्टर्स को विश्वास दिलाया था कि उनका पैसा बुलियन के कारोबार में निवेश किया जाएगा और उन्हें ७ से ८ प्रतिशत रिटर्न भी मिलेगा। चूंकि इस्लाम में ब्याज के रूप में मिलने वाली किसी भी रक़म को अनैतिक और इस्लाम विरोधी माना जाता है। इसलिए ठग मंसूर ने इस धारणा की तोड़ के रूप में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का कार्ड खेलते हुए निवेशकों को साधारण निवेशक नहीं बल्कि 'बिज़नस पार्टनर' का दर्जा दिया। निवेशकों या कथित भागीदारों को भरोसा दिलाया गया कि ५० हज़ार के निवेश पर उन्हें तिमाही, छमाही या सालाना अवधि के अंतर्गत 'रिटर्न' दिया जाएगा। अब जब जमा रकम से रिटर्न मिलने को भागीदार का हिस्सा समझा दिया गया तो मुसलमान इस बहकावे में आसानी से आ गया। 'ब्याज हराम है' वाली धारणा टूट गई, क्योंकि व्यापार में भागीदारी की कमाई ब्याज न होकर हिस्सेदारी हो गई और तकनीकी रूप से ऐसी आय हलाल रोज़ी की श्रेणी में आ गई।

ऐसा ही एक मामला हीरा गोल्ड स्कीम का भी है। हीरा ग्रुप नाम की कंपनी पर भी तक़रीबन ५०० करोड़ रुपये का घपला और धोखाधड़ी करने का आरोप है। इस इन्वेस्टमेंट कंपनी की डायरेक्टर ४५ साल की सिंगल मदर नौहेरा शेख है जो हमेशा बुर्क़े में ही दिखाई देती थी। हीरा गोल्ड में निवेश करने वाले भी उसकी शक्ल-ओ-सूरत, पहनावे और बुर्क़े की आड़ में इस्लामी निवेश का सहारा लेने के झांसे में आ गए। नौहेरा शेख ने अपने मुस्लिम निवेशकों को 'हलाल स्कीम' के नाम पर बेवक़ूफ़ बनाया। वह लोगों से 'पोंजी स्कीम' के तहत गोल्ड में इन्वेस्टमेंट की बात कहती और उन्हें 'ब्याज मुक्त हलाल बिज़नेस' का लालच देती। नौहेरा ने २ लाख से भी ज़्यादा निवेशकों के साथ अपनी पोंजी स्कीम चला रखी थी। उसने अपने निवेशकों को यह विश्वास दिलाया था कि उनका पैसा सोने, हीरे व अन्य जवाहरात के कारोबार में लगाया गया है और उस हलाल तिजारत की कमाई का निश्चित किया गया हिस्सा वह अपने निवेशकों को दे रही है। आम और सीधा सादा मुसलमान इस्लामी निवेश के नाम पर नौहेरा के जाल में फंसता गया। हीरा ग्रुप अपने निवेशकों को सालाना ३६ से ४२ प्रतिशत तक लाभ देता था। हीरा ग्रुप की ३ कंपनियों-हीरा गोल्ड, हीरा टेक्सटाइल्स और हीरा एक्सिम को अगर मिलाकर जोड़ा जाए तो कंपनी का सालाना टर्नओर लगभग एक ह​ज़ार करोड़ का था। १७ कंपनियों की मालकिन नौहेरा शेख के ख़िलाफ़ हैदराबाद, बैंगलूरु और मुंबई में कई केस दर्ज हैं। नौहेरा ने तो राजनीति में भी हाथ आज़माया और महिला एम्पावरमेंट पार्टी की अध्यक्ष बन गई। पिछले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में महिला एम्पावरमेंट पार्टी के उम्मीदवार खड़े कर ​उसने खूब ​सुर्ख़ियां भी बटोरी। बचपन में मां के साथ तिरुपति के दक्षिणी शहर में सब्​ज़ी​ बेचने वाली नोहरा शेख 'पोंजी स्कीम' के जरिए करोड़ों का टर्नओवर करने वाली कारोबारी बन गई।

हलाल इन्वेस्टमेंट और इस्लामी बैंक के नाम पर मुसलमानों को मंसूर और नौहरा ने ख़ूब बेवक़ूफ़ बनाया। इन दोनों ने ही अपनी स्कीम को आम मुसलमानों तक पहुंचाने के लिए मौलवियों और मुस्लिम नेताओं को साथ लिया। जैसे इस्लाम की पहचान बुर्क़ा पहनकर मुसलमानों में अपनी शिनाख़्त और धर्मभीरु होने का दिखावा नौहेरा करती थी उसी तर्ज़ पर सार्वजनिक तौर पर मंसूर और उसके कर्मचारी भी हमेशा साधारण कपड़ों में रहते थे। ये सब लंबी दाढ़ी रखते और ऑफ़िस में ही नमाज़ पढ़ते। नौहेरा और मंसूर, दोनों नियमित तौर पर मदरसों और मस्जिदों में दान दिया करते थे। इनके यहाँ से अच्छी ख़ासी रक़म ​ज़​कात के तौर पर बांटी जाती थी। मंसूर की कंपनी तो हर निवेश करने वाले मुस्लिम ​शख़्स को पवित्र ​क़ुरआन की प्रति भेंट करती थी। यानि धोखेबा​ज़ों​ को इस बात की भी शर्म नहीं थी कि वे उस पवित्र क़ुरआन के नाम पर अपनी रोटी सेंक रहे हैं जो ​ख़ुदा ने राहे ह​क़​ के लिए भेजी है। जिसकी झूठी ​क़​सम खाने से भी सच्चा मुसलमान घबरा जाता है। दरअसल मंसूर और नौहेरा ने धार्मिक भावनाओं के ​ज़​रिए ही मुसलमानों तक पहुंच बनाने के लिए हर हथकंडा अपनाया। इस्लामी बैंक या हलाल इन्वेस्टमेंट के नाम पर मुसलमानों को ठगने वाली तमाम कंपनियां शुरुआत में निवेश के बदले तगड़ा रिटर्न देती हैं। कुछ महीने बड़े चेक निवेशकों को दिए जाते हैं जिस से योजना का मौखिक रूप से और ​ज़्यादा प्रचार होता है। हराम​-​हलाल के ​फ़​तवे ​दफ़्तरों में रखे जाते हैं ताकि आम मुसलमानों की जिज्ञासा का ​फ़​तवों के ​ज​रिये जवाब दिया जा सके। यानि इस्लाम के नाम पर दीन को भी रो​ज़​गार बनाकर उसमें ठगी का रास्ता निकाल लिया जाता है।

दरअसल दीन की सही जानकारी न होने, ​फ़​तवों की तकनीकी बातों को सही तरह से न समझने और समाज से हटकर अपनी अलग ​शिनाख़्त बनाने की धुन का यह नतीजा है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का ताना-बाना ही कुछ ऐसा है कि यहाँ के बैंकिंग सिस्टम से अलग कुछ नहीं हो सकता। ऐसे में धर्म की आड़ में ब्याज का भय दिखाकर इस्लामी बैंक के नाम पर धोखाधड़ी करना आसान हो जाता है। ​आख़िर मुसलमान ब्याज नहीं खा सकता तो उस ब्याज की र​क़​म को बिना किसी सवाब की नीयत के दान क्यों नहीं कर देता? ऐसे कई मुस्लिम हैं जो ऐसा ही करते हैं। बैंकों से ऋण भी लेते हैं और जमाराशि का ब्याज भी। लेकिन ब्याज की राशि दान कर देते हैं। आखिर दीन में इसकी गुंजाइश तो है ही। बेवजह की कट्टरपंथी सोच ​आख़िर किस तरह आर्थिक नुकसान पहुंचा सकती है उसका नमूना हैं आईएमए और हीरा ग्रुप जैसी कंपनियां। यही दो नहीं ऐसी अनेक कंपनियां कहीं न कहीं मुसलामानों का दोहन कर रही हैं। मुसलमानों को उनकी पहचान करनी होगी और ऐसी धोखेधड़ी से बचना होगा। ऐसी धोखेबा​ज़​ कंपनियों में निवेश कर मुसलमान न ​सिर्फ़ अपना बल्कि देश की अर्थव्यवस्था का भी नुकसान कर रहे हैं। यह बात समझने और लोगों को समझाने की भी है। काश कि मुसलमान ऐसे लोगों को आसानी से पहचान सकता जो मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर बेवक़ूफ़ बना रहे हैं।