साभार- दोपहर का सामना 31 05 2019
१७वीं लोकसभा के नतीजे आ गए। इस चुनाव में एनडीए ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त कर विपक्ष को चारों ख़ाने चित्त कर दिया। परिणाम इतने चौंकाने वाले रहे कि बड़े-बड़े राजनैतिक पंडितों और विश्लेषकों को भी झटका लगा। मतगणना ने एग्ज़िट पोल के रुझानों को भी पीछे छोड़ दिया। यूपीए और महागठबंधन के सभी प्रयोग विफल रहे। जनता ने पूरी तरह से उनकी राजनीति को नकार दिया। मुस्लिम मतों की अगर बात की जाए तो २०१४ की तरह ही २०१९ के इस चुनाव में भी मुसलमानों में यह कहकर भ्रम फैलाने की कोशिश की गई कि अगर नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो मुसलमानों को भारत छोड़कर जाना पड़ सकता है। २०१४ में कांग्रेस सहित अन्य कथित सेक्युलर दलों ने अनेक मुल्ला-मौलवियों से बीजेपी के ख़िलाफ़ मतदान करने का फ़तवा जारी करवाया था। यह अलग बात है कि उन फ़तवों ने पूरी तरह वोटों के ध्रुवीकरण को हवा दी और ग़ैर-मुस्लिम वोटरों को ही एकजुट किया। नतीजतन बीजेपी और सहयोगी दलों की जीत की राह और आसान हो गई। २०१९ के लोकसभा चुनाव में ख़ास बात यह रही कि मुल्ला-मौलवियों ने अपने आप को फ़तवा वग़ैरह की राजनीति से दूर ही रखा। पिछले चुनाव का अनुभव ख़राब देख कर यह उम्मीद भी थी कि इस बार मुल्ला-मौलवी अपने आपको इस झमेले से दूर ही रखेंगे और ऐसा ही हुआ भी। मुस्लिम समाज का यह क़दम स्वागत योग्य ही कहा जाएगा। दरअसल वे जानते थे कि ऐसा कोई भी फ़तवा मतों का ध्रुवीकरण ही करेगा। सबसे बड़ी बात यह रही कि मुस्लिम समाज ने कुछेक चुनावी क्षेत्रों को छोड़कर आक्रामक प्रचार से ख़ुद को दूर रखा।
२०१४ के बाद से बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को सत्ता से हटाने के लिए अलग-अलग स्तर पर प्रयोग हो रहे थे। विपक्षी पार्टियों ने २०१८ से ही जातिगत समीकरणों का जाल बिछाना शुरू कर दिया था। इसका प्रयोग उत्तरप्रदेश में ख़ासकर उपचुनावों में किया गया। कैराना, फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव में सपा-बसपा ने हाथ मिलाकर जीत का स्वाद चखा। ऐसा आभास देने की कोशिश की गई जैसे दोनों पार्टियों को बीजेपी का विजयी रथ रोकने के लिए ब्रह्मास्त्र मिल गया हो। लोकसभा चुनाव के लिए सपा-बसपा और आरएलडी ने महागठबंधन कर लिया। यादव, मुस्लिम, दलित, जाट वोट बैंक का नया फ़ॉर्मूला बनाया। गठबंधन-महागठबंधन के नाम का देश भर में डंका बजाया जाने लगा। लेकिन नतीजे बिलकुल अलग आए। बात अगर मुस्लिम मतदाताओं की करें तो २०११ की जनगणना के अनुसार, देश की ५४३ लोकसभा सीटों में से लगभग २९ सीट ऐसी है जहां मुस्लिम आबादी ४० प्रतिशत से अधिक है। यह सीटें जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, केरल, पश्चिम बंगाल, लक्षदीप और तेलंगाना की हैदराबाद में आती हैं। इसके अलावा देश की १९ लोकसभा सीट ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी ३० से ४० प्रतिशत है, जबकि ४८ सीटों पर यह आंकड़ा २० से ३० प्रतिशत है। बीजेपी को इन सीटों पर उल्लेखनीय सफलता मिली है। उसने इन में से ५८ सीटों पर विजय पताका फहराई है। इसका यह भी मतलब हुआ कि बीजेपी को उन लोकसभा क्षेत्रों में अप्रत्याशित सफलता हासिल हुई, जहां मुस्लिम आबादी ज़्यादा है। ध्यान देने की बात यह रही कि विपक्ष का सारा ध्यान इन्हीं ९६ सीटों पर रहा। २०१४ में इन सीटों में से ३९ पर बीजेपी का परचम लहराया था।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आजादी के बाद से दो बार को छोड़कर लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की भागीदारी लगातार घटी है। २०१४ के लोकसभा चुनाव में २२ मुस्लिम प्रत्याशी लोकसभा में पहुंचे थे, लेकिन इस बार कुछ सुधार के साथ अलग-अलग दलों के २७ मुस्लिम सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंचे हैं। भारतीय संसद में सबसे ज्यादा मुसलमान सांसद १९८० में चुने गए थे। १९८० में ४९ मुसलमान चुनकर संसद पहुंचे थे। १९८४ के चुनावों में भी ४५ मुसलमान सांसद चुने गए थे। १९५२ में जब पहली बार चुनाव हुए तो २५ मुसलमान संसद का हिस्सा बने थे। माना जा रहा है कि इस बार चुनाव को लेकर मुस्लिम समाज के नज़रिए से चुनावी परिदृश्य काफ़ी बदला हुआ था। मुसलमानों को मोदी का डर दिखाया जाता रहा लेकिन इस बार उसी समाज के एक धड़े ने इस 'डर' को दूर करने की कोशिश की। मुस्लिम समाज को सिर्फ़ अपनी सुरक्षा की फ़िक्र रही। देश भर में मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं से भी उसमें असुरक्षा की भावना घर गई थी। लेकिन उन घटनाओं के बाद कांग्रेस सहित अनेक दलों का रवैया भी मुसलमानों को बहुत रास नहीं आया। मुस्लिम समाज अतीत से सीख लेकर आगे बढ़ने के अवसर भी देख रहा है। नतीजतन एक धड़े ने सीधे-सीधे बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के साथ जाने का मन बनाया। उसकी यह सोच एनडीए को मिले कुल मतों में हुई वृद्धि के रूप में सामने आई। इस मामले में बीजेपी के सहयोगी दल शिवसेना और जेडीयू पर मुसलमानों ने ज़्यादा विश्वास दिखाया। मुंबई सहित महाराष्ट्र के अनेक लोकसभा क्षेत्रों में शिवसेना के पक्ष में की गई रैलियों और सभाओं में मुसलमानों की अच्छी-ख़ासी भीड़ इस बात की गवाह हैं।
बीजेपी ने ख़ुद भी मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करते हुए बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में भी पार्टी का जनाधार बढ़ाया है। पिछले कार्यकाल में अपनी छवि के उलट मुसलमानों के लिए सरकार ने कुछ ऐसे काम किये जिस से मुस्लिम समाज का एक तबक़ा जरूर प्रभावित हुआ। हज कोटा दोगुना करना, सऊदी अरब से कैदियों को छुड़ाना, तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं की तरफ़दारी में क़ानून बनाना या आम नागरिकों के साथ ही मुस्लिम युवाओं के लिए क़र्ज़ दिलाना जैसे प्रयास कुछ हद तक मुसलमानों में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। हालांकि ट्रिपल तलाक़ पर आम मुसलमान अब भी सरकार की नीयत को लेकर पूरी तरह मुतमईन नहीं हुआ है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं में यह भावना घर कर रही है कि सरकार उनकी सुरक्षा का ख़्याल रख रही है। यही कारण है कि मुस्लिम समाज के एक तबक़े के भीतर से राजनैतिक दलों द्वारा फैलाई गई ग़लतफ़हमी मिट रही है और वे भाजपा और शिवसेना के क़रीब जाने में अब हिचक नहीं रहे हैं। मोहन भागवत का यह कहना कि हिंदुस्तान मुसलमानों के बिना अधूरा है और नरेंद्र मोदी का दुबई सहित भारत की अनेक मस्जिदों में जाना बड़े नीतिगत बदलाव का संकेत देता है। वैसे भी भारतीय समाज की संरचना ऐसी है कि किसी एक जाति या धर्म की राजनीति करके यहां लंबी राजनीतिक पारी बड़ी मुश्किल से खेली जा सकती है। एक सियासी दल के लिए यह बहुत मुश्किल है कि वह समाज के एक बड़े वोट बैंक को लंबे समय के लिए नज़रअंदाज़ कर सके। एक हद के बाद सभी को उसी भारतीय संरचना में रचना-बसना पड़ता है और यह अच्छी बात है।
चुनाव जीतने के बाद संसद के सेंट्रल हॉल में हुई एनडीए की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना कि देश सत्ता भाव को नहीं बल्कि सेवा भाव को स्वीकार करता है, यह दर्शाता है कि अब सरकार भी मुसलमानों को अपने क़रीब करने की इच्छुक है। तभी तो अपने भाषण में नरेंद्र मोदी ने अल्पसंख्यकों का ख़ास ज़िक्र किया और अपने नवनिर्वाचित सांसदों को नसीहत देते हुए बिना भेदभाव के काम करने को भी कहा। मोदी ने अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से आरोप लगाया कि वोट-बैंक की राजनीति में भरोसा रखने वालों ने अब तक अल्पसंख्यकों को डर में जीने पर मजबूर किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से सभी के प्रति समान रवैया रखने, उन्हें साथ लेकर चलने और अल्पसंख्यकों की और उपेक्षा न होने देने की बात कही, उससे यह संदेश गया कि मोदी अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना चाहते हैं। मुस्लिम समाज ने उनके इस भाषण को सकारात्मक रूप में लिया है। परंपरागत विरोधी हालांकि अभी विश्वास नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन कुछ बोलने से भी इसलिए बच रहे हैं कि आम मुसलमान कहीं उन्हें ही सारे फ़साद की जड़ न मान ले। आज मुसलमान शिक्षा पर ज़ोर दे रहा है और सच्चाई को समझ रहा है। उसने पाया कि भाजपा-शिवसेना के नाम पर डराकर सिर्फ़ उसका वोट लिया गया। युवा मुसलमानों को लगता है कि अगर आज मुस्लिम कमज़ोर हालात में हैं तो इसके ज़िम्मेदार वही लोग हैं जिन्होंने मुसलमानों के दिल में ख़ौफ़ बनाए रखा कि 'हमारे' साथ रहो वरना 'वो' आ जाएंगे। इस भय को निकालने में ही मुसलमानों की भलाई है। ऐसे में मुसलमानों से सिर्फ़ यही कहा जा सकता है, 'मुसलमानों, अब तो जागो।' और कहावत भी तो यही है कि 'जब जागो तभी सवेरा....'